B’day Special: ये बात Harivansh Rai Bachchan को थी नापसंद, पंडित नेहरू हो गए थे नाराज

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B’day Special: ये बात Harivansh Rai Bachchan को थी नापसंद, पंडित नेहरू हो गए थे नाराज

हिंदी और उर्दू का घालमेल पसंद नहीं था हरिवंश राय बच्चन को, इससे नाराज होकर पंडित नेहरू ने कहा, ‘देयर इज एनफ ट्रबुल इन द कंट्री’

हमारे देश में गंगा-जमुनी संस्कृति की बात करने वाले बहुत लोग हैं, जबकि तमाम लोग ऐसे भी हैं, जो ये भी पूछ लेते हैं कि गंगा और जमुना का बंटवारा किसने कर दिया? अक्सर हिंदुस्तानी भाषा की बात की जाती है, जिसमें हिंदी भी हो और उर्दू भी. गंगा जमनी तहजीब की बात करने वाले लोग भाषा के इस नए संस्करण के बारे में काफी बातें करते हैं, कई तरह के मंच से इसके बारे विचार रखे जाते रहे हैं. टीवी मीडिया खासतौर पर इसको बढ़ावा देता है. लेकिन हिंदी के प्रख्यात कवि और अमिताभ बच्चन के पिता हरिवंश राय बच्चन को हिंदी और उर्दू का मेल पसंद नहीं था. उनका मानना था हिंदी में जब भी गहराई से घुसते हैं, तो वो संस्कृत की तरफ जाने लगती है और उर्दू में गहराई से उतरते हैं तो वो अरबी और फारसी की तरफ. सो उन्हें हिंदी में उर्दू का घालमेल कभी पंसद नहीं आता था. एक बार तो उन्होंने इस हिंदी उर्दू के चक्कर में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तक से तर्क वितर्क कर डाले और नेहरू नाराज हो गए थे.

ये मामला तब का है जब इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर डा. हरिवंश राय बच्चन ज्यादा सेलरी के चक्कर में पहले आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र में बतौर प्रोडयूसर काम किया, फिर दिल्ली चले आए. उनको भारत सरकार के साथ अवर सचिव के तौर पर विदेश विभाग के हिंदी सैक्शन में काम करने का मौका मिला. यूं तो बड़ी हसरत से दिल्ली आए थे बच्चन साहब लेकिन धीरे धीरे उन्हें अपने काम में नीरसता महसूस होने लगी थी. दरअसल वहां उनको अनुवाद का काम मिला था. उनको लगा कि खाली अनुवाद ही करना है, तो उनकी सारी पढ़ाई लिखाई बेकार है. लेकिन मजबूरी थी, जब तक कोई दूसरी नौकरी ना मिलती तब तक अनुवाद करते ही रहना था. हालांकि उनके ज्यादातर अनुवाद सीधे पीएम नेहरूजी के लिए होते थे. जो भी राष्ट्रध्यक्ष भारत आते तो उनका स्टेटमेंट हिंदी में भी पढ़ा जाता था, उसका अनुवाद भी हरिवंश राय बच्चन को करना होता था.

ऐसे ही बजट सत्र से पहले भी राष्ट्रपति के द्वारा लोकसभा और राज्यसभा के एक संयुक्त सदन को सम्बोधित करने की परम्परा थी. तो अगर राष्ट्रपति हिंदी में भाषण देते थे, तो उपराष्ट्रपति उसे अंग्रेजी में सदन के सामने पढ़ते थे, लेकिन अगर राष्ट्रपति ने भाषण अंग्रेजी में पढ़ा तो उपराष्ट्रपति को हिंदी में पढ़ना होता था. उस वक्त राष्ट्रपति थे डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, वो काफी विद्वान थे, आमतौर पर ये भाषण पीएम कार्यालय से जाता था. लेकिन राधाकृष्णन पीएम ऑफिस के लिखे भाषण में भी अपने खास तरीके से बदलाव कर दिया करते थे. वैसे भी वो दार्शनिक थे, ऊपर से अंग्रेजी में उनसे बेहतर लिखने बोलने वाला कोई भी सदन में नहीं था. जब राष्ट्रपति ने अपना भाषण फायनल कर दिया तो उसकी एक कॉपी अनुवाद के लिए हरिवंश राय बच्चन के पास भेज दी गई.

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हरिवंश राय बच्चन ने पंडित नेहरू से कहा, ‘पंडितजी, एक आदमी की उच्चारण सुविधा के लिए भाषा तो नहीं बदली जाती, आप इसका अनुवाद उर्दू में क्यों ना करा लें…’. पंडितजी का चेहरा फौरन गुस्से में लाल हो गय़ा और वो अपनी सीट से उठ गए, फिर बोले, ‘देयर इज एनफ ट्रबुल इन दिस कंट्री’, अगर उर्दू में अनुवाद करवाया भी जाएगा, तब भी उसे हिंदी ही कहा जाएगा, क्या फर्क है उर्दू और हिंदी में?’ बच्चन साहब एकदम खामोश हो गए थे, पंडितजी का गुस्सा देखकर वैसे ही वो थोड़े सहम से गए थे. इधर पंडित नेहरू ने भी उनकी परेशानी भांप ली थी, वो थोड़े सामान्य हुए और कहा, ‘मुझे मालूम है तुम्हें उर्दू बहुत अच्छी नहीं आती, रेडियो के एक उर्दू रीडर हैं मिस्टर पुरी, उनको भिजवाता हूं, जहां भी कठिन शब्द आए हैं, उनकी मदद से वहां उर्दू के आसान शब्द रख दो. ये काम रात में ही हो जाना चाहिए, क्योंकि सुबह 11 बजे ये भाषण पढ़ा जाना है’. और वैसी ही किया गया देर रात तक पुरी और बच्चन ने मिलकर उस भाषण को संशोधित किया. लेकिन हरिवंश राय का कवि हृदय अंदर से कभी भी हिंदी भाषा में उर्दू शब्दों के घालमेल को पसंद नहीं कर पाया.

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