राजनीतिक चश्मे से मानवाधिकार दर्शन, कश्मीर-लखीमपुर खीरी का फर्क नया नहीं है

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राजनीतिक चश्मे से मानवाधिकार दर्शन, कश्मीर-लखीमपुर खीरी का फर्क नया नहीं है

नई दिल्ली
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनिंदा मामलों पर मानवाधिकार का राग अलापने का मुद्दा उठाया। उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के 28वें स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में कहा कि कुछ लोग मानवाधिकारों को लेकर सेलेक्टिव हैं, ऐसे लोगों से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में मानवाधिकार की व्याख्या कुछ लोग अपने-अपने तरीके से, अपने-अपने हितों को देखकर करने लगे हैं। एक ही प्रकार की किसी घटना में कुछ लोगों को मानवाधिकार का हनन दिखता है और वैसी ही किसी दूसरी घटना में उन्हीं लोगों को मानवाधिकार का हनन नहीं दिखता। पीएम मोदी की यह शिकायत आधारहीन नहीं है। अब तक राजनीतिक परिपाटी के अनुसार तो मानवाधिकार का मुद्दा भी राजनीतिक नफा-नुकसान के नजरिए से ही देखा जाता है। यही वजह है कि कश्मीर में अल्पसंख्यकों की हत्या हो या लखीमपुर-खीरी में किसानों को रौंदने की विभत्स घटना, कभी भी मानवाधिकार के किसी एक मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल एकमत नहीं दिखते हैं।

सभी दलों का एक ही हाल

आखिर प्रधानमंत्री की पार्टी बीजेपी भी मानवाधिकार हनन के मुद्दों पर सेलेक्टिव अप्रोच ही रखती है। इतिहास में उन उदाहरणों की कमी नहीं है जब बीजेपी और उसके नेताओं ने भी इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटनाओं पर न केवल चुप्पी साध ली बल्कि बचाव में बेतुके तर्क भी दिए। यही हाल अन्य राजनीतिक दलों का भी है। जिन दलों ने हैदराबाद यूनिवर्सिटी के दलित छात्र रोहित वेमुला की हत्या का मामला जोर-शोर से उठाया, वो राजस्थान में दलितों पर एक के बाद एक, लगातार हुए अत्याचारों पर आश्चर्यजनक चुप्पी ठान ली। पिछले हफ्ते ही 7 तारीख को प्रदेश के हनुमानगढ़ जिला स्थित प्रेमपुरा में दर्जनभर लोगों ने जगदीश नाम के एक दलित युवक की लाठियों से पीटकर हत्या कर दी।

गहलोत ने भी गलती से कर दिया मोदी का समर्थन

इस घटना पर जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से कहा गया कि बीजेपी राहुल और प्रियंका गांधी की चुप्पी पर सवाल खड़ा कर रही है तो उन्होंने बड़ा दिलचस्प जवाब दिया। गहलोत ने कहा, ‘राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है तो राहुल और प्रियंका यहां पर क्यों आएंगे? यहां पर तो प्रधानमंत्री, गृह मंत्री या विपक्ष को दौरा करना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि उत्तर प्रदेश में तो हम विपक्ष में हैं इसलिए तो जा रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि मूर्ख लोग भाजपा के पदाधिकारी बन गए हैं।’ गहलोत ने यह टिप्पणी बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा की प्रेस कॉन्फ्रेंस में उठाए गए सवालों को लेकर की थी।

गहलोत के इस बयान पर गौर करेंगे तो यह साफ हो जाता है कि कांग्रेस नेता ने भी जाने-अनजाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही समर्थन किया है। उनका यह कहना कि राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है, इसलिए राहुल-प्रियंका को नहीं आना चाहिए और चूंकि यूपी में उसकी सरकार नहीं है तो वहां कांग्रेस नेताओं का जाना फर्ज है, एक बड़ा संदेश देता है। इससे साफ हो गया है कि राजनीतिक दल मानवाधिकार की नहीं, अपने राजनीतिक हितों की चिंता करते हैं।

बीजेपी भी कहीं चुप, कहीं मुखर

उधर, यूपी में हाथरस जैसे भयावह कांड पर बीच-बचाव करती दिखी बीजेपी राजस्थान के मुद्दे पर मुखर हो गई। केंद्रीय जल शक्ति मंत्री और बीजेपी नेता गजेन्द्र सिंह शेखावत ने ट्वीट के जरिये कहा, ‘राहुल जी आप लखीमपुर की चिंता ना करें वहां योगी जी का शासन है, आपके प्रिय गहलोत जी का नहीं! आप राजस्थान के प्रेमपुरा में इस दलित युवक की हत्या पर कुछ कहने की हिम्मत दिखाएं ताकि जनता को मालूम हो कि आप कितने सच्चे हैं?’ उन्होंने आरोप लगाया, ‘आप न्याय नही मांग रहे, आप वोट लेने के जुगाड़ में लगे हो! आपके लिए राजस्थान और उत्तर प्रदेश के नागरिकों की जान में बहुत अंतर है। आप प्रेमपुरा के लिए इसलिए न्याय नहीं मांगेंगे क्योंकि यहां आपका फायदा नहीं है।’

हनुमानगढ़, जालोर समते पूरे राजस्थान में दलितों पर बर्बरता, ऊना कांड पर बवाल मचाने वाली कांग्रेस चुप क्यों है?
कबर्धा में सांप्रदायिक हिंसा, सब चुप

बहरहाल, उत्तर प्रदेश के लखीमपुर-खीरी में किसानों को तेज रफ्तार गाड़ियों से रौंदकर मारने का मामला गरम है और विपक्ष चुनावी राज्य में इसे बड़ा मौका मानकर खूब हायतौबा मचा रहा है तो एक नजर उन विभत्स घटनाओं पर भी डालते हैं जब विपक्षी नेता खुले मन से निंदा भी नहीं कर पाए। ऐसा ही एक वाकया छत्तीसगढ़ के कवर्धा में सामने आया है। कवर्धा के लोहारा नाका चौक पर 3 अक्टूबर को दो समुदाय के युवक अपना-अपना धार्मिक झंडा लगाने के मुद्दे पर भिड़ गए। घटना में एक पक्ष के लोगों ने दूसरे पक्ष के युवक को बुरी तरह से पीट दिया। देखते-देखते इस मामले ने सांप्रदायिक रंग ले लिया और हिंसा होने लगी। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर पत्थरबाजी की और खूब तोड़-फोड़ किए। क्या इस इस बात को सिरे से खारिज किया जा सकता है कि ऐसी घटना किसी बीजेपी शासित राज्य में होती तो पूरा विपक्ष एकजुट होकर इसे और हवा देने में जुट जाता, और सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ने का पूरा-पूरा आरोप राज्य सरकार, उसकी मशीनरी और बीजेपी-आरएसएस पर मढ़ दिया जाता?

महाराष्ट्र का भी वही हाल

इसी महीने कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) और शिवसेना गठबंधन महअघाड़ी के शासन वाले राज्य महाराष्ट्र में भी बीते 9 अक्टूबर को बेहद घृणित घटना सामने आई। वहां नागपुर में एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी समेत तमाम बड़े विपक्षी नेता चुप रहे। हद तो यह है कि झारखंड में जब तक बीजेपी का शासन रहा तब तक वहां मुसलमानों या दलितों पर हुए अत्याचारों पर विपक्षी दलों ने खूब बवाल काटा, लेकिन सत्ता में आते ही उन्होंने ऐसी ही घटनाओं पर जुबान सिल ली। पालघर में साधुओं की लिंचिंग का मामला भला कौन भूल सकता है?

झारखंड में तो गजब घिरी कांग्रेस

झारखंड में हेमंत सरकार के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी लिंचिंग की घटनाएं जारी हैं, लेकिन क्या आपने कभी सुना कि राहुल-प्रियंका या फिर अन्य किसी विपक्षी नेता ने नाराजगी जाहिर की है? कांग्रेस-जेएमएम-आरजेडी की गठबंधन सरकार में ही रामगढ़ में एक मुस्लिम जाबिर अंसारी की पिटाई की गई, दुमका में शुभान अंसारी को पीट-पीटकर मार दिया गया, राजधानी रांची में मोबारक खान की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई, लेकिन गजब का सन्नाटा छाया रहा। तबरेज अंसारी की घटना याद है?

सरायकेला पुलिस ने तबरेज अंसारी को 18 जून 2019 को चोरी के आरोप में गिरफ्तार कर सीजेएम कोर्ट में पेश किया था। कोर्ट ने उसे जेल भेज दिया और 22 जून को उसकी तबीयत खराब हो गई। तबरेज ने सरायकेला के सदर अस्पताल में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। इसे राहुल गांधी ने लोकतंत्र पर धब्बा और तानाशाही शासन जैसे उपमाओं से नवाजा था। लेकिन, हेमंत सोरेन सरकार में अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के बीच हुई मॉब लिंचिंग में 11 आदिवासियों, तीन मुसलमानों और चार हिंदुओं की जानें जा चुकी हैं, लेकिन उन्होंने शायद ही कभी मुंह खोला हो।

बंगाल में हाहाकर, लेकिन चहुंओर सन्नाटा

प. बंगाल में विधानसभा चुनाव के बाद हुई हिंसा के दौरान तो मानवाधिकार पर चुनिंदा हो-हंगामे की बेहतरीन मिसाल देखी गई। 2 मई को हुई मतगणना में तृणमूल कांग्रेस की जीत के बाद बीजेपी समर्थकों और उसके परिजनों पर जैसा कहर ढाया गया, वैसा भारतीय लोकतंत्र में शायद ही देखने को मिला हो। बीजेपी समर्थकों की हत्याएं हुईं, उनके घरों में घुसकर महिलाओं के साथ छेड़खानी और बलात्कार जैसे घिनौनी वारदातों को अंजाम देने के आरोप लगे और सैकड़ों परिवारों को जान बचाने के लिए पड़ोसी राज्य असम में पलायन करना पड़ा।

बंगाल से ऐसे भी वीडियो वायरल हुए जिनमें लोगों को लाउडस्पीकर लगाकर बीजेपी का समर्थन करने के लिए माफी मांगते देखा-सुना गया। दरअसल, वहां बीजेपी समर्थकों का स्थानीय टीएमसी समर्थकों ने सामाजिक बहिष्कार कर दिया। उन्हें ने दुकानों से राशन मिल रहे थे और ना दवाई। क्या किसी दूसरे प्रदेश में ऐसा कभी देखा-सुना गया? लोकतंत्र पर असली धब्बा तो यहीं लगा, लेकिन क्या बीजेपी विरोधियों ने इनकी लानत-मलामत की और क्या ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृमणूल कांग्रेस (TMC) से सवाल किया? राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के मुताबिक, प. बंगाल में दलितों के खिलाफ हिंसा के 1,627 जबकि रेप के 12 और हत्या की 20 घटनाएं दर्ज की गईं।

हर प्रदेश में दलित उत्पीड़न की घटनाएं
इसी तरह, पिछले वर्ष के आंकड़े बताते हैं कि दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं से कोई भी राज्य अछूता नहीं है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने बताया कि वर्ष 2020 में राजस्थान में दलित उत्पीड़न के 7,017, पंजाब में 165, मध्य प्रदेश में 6,899, झारखंड में 666, तमिलनाडु में 1,274 और छत्तीसगढ़ में 31 मामले सामने आए। और फिर, जब मामला मानवाधिकार का हो तो फिर दलित या मुसलमान ही क्यों, हमारे देश का संविधान हर इंसान को प्रतिष्ठित जिंदगी जीने का अधिकार देता है। फिर मानवाधिकार के चश्मे में सिर्फ दलितों या मुसलमानों को ही फिट करना भी अपने आप में घृणित राजनीति ही कही जाएगी।

शर्मनाक राजनीति से परे नहीं है मानवाधिकार का मुद्दा
हैरत की बात यह है कि राजनीतिक दल दलितों और मुसलमानों के मामलों में भी विभेद करने से नहीं चूकते। अगर ऐसे किसी राज्य में दलित या मुसलमान पर अत्याचार हो जहां दलितों और मुसलमानों का हितैषी होने का दंभ भरने वाली पार्टी या पार्टियों का गठबंधन का शासन हो तो ये चुप रहेंगी, लेकिन विपक्षी शासन वाले राज्य में ऐसे किसी मामले की भनक मिलते ही तुरंत मुखर हो जाएंगी। इसलिए, स्पष्ट है कि मानवाधिकार का मुद्दा राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए हित साधने का एक जरिया मात्र है और कुछ नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा, ‘मानवाधिकार का बहुत ज्यादा हनन तब होता है जब उसे राजनीतिक रंग से देखा जाता है, राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है, राजनीतिक नफा-नुकसान के तराजू से तौला जाता है। इस तरह का सेलेक्टिव व्यवहार, लोकतंत्र के लिए भी उतना ही नुकसानदायक होता है।’



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