बहस की संसदीय परंपरा कहां खो गई?

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बहस की संसदीय परंपरा कहां खो गई?

वरुण गांधी

भारतीय संसद के 2021 के मानसून सत्र में लोकसभा ने 18 से ज्यादा विधेयकों को औसतन 34 मिनट की चर्चा के साथ मंजूरी दे दी। पीआरएस इंडिया के आंकड़े बताते हैं कि अनिवार्य रक्षा सेवा विधेयक (2021) को लोकसभा में सिर्फ 12 मिनट की बहस के बाद मंजूरी मिल गई, जबकि दिवाला और दिवालियापन संहिता (संशोधन) विधेयक ( 2021) पर महज पांच मिनट बहस हुई। एक भी विधेयक को संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया। सभी विधेयक ध्वनिमत से पास हुए। संसद की कार्य उत्पादकता का आलम यह है कि वह इस साल के हालिया सत्र में 129 फीसद आंकी गई लेकिन बहस की संसदीय परंपरा इस दौरान तकरीबन समाप्त हो गई। क्या संसद महज डाकघर बनकर रह गई है?

बिलों पर बहस नहीं
विधान पर बहस संसदीय लोकतंत्र की घोषित खासियत है। 2013 में अमेरिका में सीनेटर टेड क्रूज को ओबामाकेयर पर बोलने के लिए संसद में 21 घंटे और 19 मिनट मिले। जब संसदीय कार्यवाही में इस तरह की बहस के लिए अलग से समय दिया जाता है, तो आम सहमति बनाते हुए कानून की गुणवत्ता में सुधार का रास्ता साफ होता है। इस बीच, भारत में कृषि कानून निरसन विधेयक-2021 महज आठ मिनट (लोकसभा में तीन मिनट, राज्यसभा में पांच मिनट) में पारित हुआ। इस तरह सांसदों की संख्या कर्मचारियों की गिनती तक सीमित होकर रह गई। संविधान बनाने के लिए भारत की संविधानसभा की बहस दिसंबर 1946 को शुरू होकर 166 दिन तक चली, जो जनवरी 1950 में समाप्त हुई। इस पूरी कवायद का मकसद यह था कि संसदीय बहस की परंपरा को बहाल रखते हुए उसे मजबूती दी जाए और सांसदों के लिए विवेकसम्मत तरीके से मतदान की इजाजत हो।

LEKH PIYAL BHATTACHARJEE -

संसद में विधेयक पास तो हो रहे हैं, लेकिन बिना बहस और चर्चा के (फोटोः BCCL)

वेस्टमिंस्टर में, ब्रिटिश प्रधानमंत्री को हर बुधवार हाउस ऑफ कॉमंस में सांसदों के सवालों के जवाब देने होते हैं। यह पटल पर रखे और दूसरे सवालों के अनुपूरक प्रश्नों का मिश्रण होता है। प्रधानमंत्री को नहीं पता होता कि कौन से सवाल पूछे जाएंगे। इसका इतना महत्व है कि कोविड-19 के दौरान भी प्रधानमंत्री को वर्चुअली सांसदों के सवालों के जवाब देने पड़े, जबकि इस अवधि में भारत में प्रश्नकाल को ही समाप्त कर दिया गया।

जवाबदेही सुनिश्चित करने का एक और साधन संसदीय समितियां हैं। अमेरिका में संसदीय समितियां कानूनों की जांच करती हैं, सरकारी नियुक्तियों की पुष्टि करती हैं, तफ्तीश करती हैं और सुनवाई करती हैं। 2013 में यूके में हाउस ऑफ कॉमंस ने एक सार्वजनिक सुनवाई तंत्र चलाया। इसके तहत जनता एक वेब पोर्टल के माध्यम से मसौदा कानून पर टिप्पणियां कर सकती थी। इस प्रक्रिया में 1,400 से अधिक टिप्पणियों के साथ करीब एक हजार लोगों ने भाग लिया। इसके उलट सामान्य तौर पर अपने देश में लंबी अवधि की विकास योजनाएं संसदीय जांच के अधीन नहीं हैं और इन्हें सालाना खर्च की घोषणा के तहत मंजूरी मिल जाती है। हालांकि इस तरह की समितियों को जब भी हस्तक्षेप का मौका मिला है, बेहतर नतीजे सामने आए हैं। मसलन, संयुक्त संसदीय समिति ने अक्टूबर 2013 में टेलिकॉम लाइसेंस और इनके आवंटन पर तथा दिसंबर 1993 में प्रतिभूतियों और बैकिंग लेनदेन में अनियमितताओं पर विचार किया और इसका प्रभावशाली नतीजा सामने आया।

संसदीय लोकतंत्र की एक बड़ी खासियत सांसदों को स्वायत्त पहल की इजाजत देना भी है। यह पहल कई बार प्राइवेट मेंबर बिल के तौर पर भी होती है। 2019 के बाद से यूके में सात निजी सदस्य विधेयक पास हुए हैं। यह संख्या कनाडा में छह रही। बात करें भारत की तो 1952 से दोनों सदनों द्वारा केवल 14 निजी सदस्य विधेयक पारित किए गए हैं। दिलचस्प है कि इनमें भी छह विधेयक तब पास हुए जब पंडित नेहरू सत्ता में थे। 1956 में फिरोज गांधी ने संसदीय कार्यवाही के तहत प्रेस की आजादी को सुरक्षित करने के लिए प्राइवेट मेंबर बेल पेश किया था। आगे चलकर इस बिल ने संसदीय कार्यवाही (संरक्षण और प्रकाशन) कानून (1956) की शक्ल ली।

संसद से परे, भारत में ज्यादातर सांसदों के लिए उनके निर्वाचन क्षेत्रों में परिवर्तन लाने की क्षमता सीमित है। एमपीएलएडी पर विचार करें, जो सांसदों को स्थानीय जिला प्राधिकरण को चुनिंदा विकास पहलों की सिफारिश करने में सक्षम बनाती है और जिसकी अधिकतम सीमा पांच करोड़ रुपये है। इसकी तथ्यात्मक सचाई इस पूरी व्यवस्था और उसकी मंशा पर सवाल खड़े करती है। देश में 6,38,000 गांवों की संख्या से हिसाब लगाएं तो हर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के हिस्से तकरीबन हजार गांव आएंगे। एक अध्ययन के मुताबिक इस तरह खर्च और उसकी उत्पादकता का आलम यह होगा कि बमुश्किल तीन मीटर कंक्रीट सड़क का निर्माण प्रत्येक गांव-कस्बे के हिस्से आएगा। खास बात यह कि पिछले डेढ़ साल से सांसदों को क्षेत्रीय विकास के लिए यह पैसा भी नहीं मिल रहा। इसके बदले 6,320 करोड़ रुपये की सरकारी बचत का ढोल पीटा जा रहा है।

व्हिप की मजबूरी
यही नहीं, हमारे पास सांसदों की बहस को दबाने और उनकी पहल को हतोत्साहित करने वाला संस्थागत तंत्र है। दल-बदलविरोधी कानून किसी भी ऐसे सांसद या विधायक को दंडित करता है जो एक पार्टी को दूसरी पार्टी के लिए छोड़ देता है। सांसद केवल व्हिप द्वारा हाइलाइट किए गए बटन को दबाने के लिए मजबूर हैं। भारत की 543 लोकसभा सीटों में से 250 पर ऐसे राजनेताओं का कब्जा है जो किसान होने का दावा करते हैं। कृषि कानूनों पर आवाज उठाने का हक इनमें से कितने सांसदों को हासिल हुआ? क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं कि लोकतंत्र के मंदिर में एक सांसद के लिए आत्मविवेक के आधार पर अपनी बात कहना और मतदान करना असंभव हो गया है? हमारी संसद नए भारत की बदलती आकांक्षाओं और बेचैनियों को प्रतिबिंबित करे यह दरकार अगर खारिज हुई तो यह संसदीय लोकतंत्र के लिए तो अच्छा नहीं ही होगा, यह नौबत भी आ सकती है कि विधायिका सीधे-सीधे कार्यपालिका की मोहताजी में काम करने लगे। इस तरह के खतरे के प्रति सचेत होना संसदीय लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह होना है।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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