Opinion: बीजेपी ने परिजनों के टिकट का कोटा कम किया, क्या विपक्ष भी ऐसा करेगा?

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Opinion:  बीजेपी ने परिजनों के टिकट का कोटा कम किया, क्या विपक्ष भी ऐसा करेगा?

Opinion: बीजेपी ने परिजनों के टिकट का कोटा कम किया, क्या विपक्ष भी ऐसा करेगा?

Family Politics: बीजेपी अगर अपने को पार्टी विद डिफरेंस कहती है तो इसका नमूना भी वह दिखाती रहती है। बीजेपी ने पिछले साल यूपी चुनाव से यह नीतिगत निर्णय लिया कि चुनाव में एक परिवार से एक को ही टिकट मिलेगा। क्या विपक्षी दल भी ऐसा उदाहरण पेश कर पाएंगे?

 

हाइलाइट्स

  • बीजेपी दे रही एक परिवार में एक टिकट
  • आरजेडी में तो परिजनों की हो गई भरमार
  • यूपी में मुलायम सिंह फैमिली का दबदबा
  • झारखंड में सोरेन परिवार की खूब चलती
ओमप्रकाश अश्क, पटना: राजनीति में समय-समय पर बदलाव देखने को मिलते रहे हैं। सियासत का सबसे खराब दौर 1990 से शुरू हुआ, जब दूसरों को जिताने वाले अपराधी तत्वों ने खुद राजनीति के मजे लेने के लिए चुनाव का सहारा लिया। बिहार और यूपी इसके सबसे बड़े केंद्र बने। बिहार में शहाबुद्दीन, आनंद मोहन, अनंत सिंह, सूरजभान जैसे अनगिनत नाम मिल जाएंगे, जिन्हें राजनीति का चस्का लगा। इनमें कुछ खुद राजनीति के किरदार बने तो कई अपने परिजनों का कल्याण करने में लगे रहे। यूपी की बात करें तो मुख्तार अंसारी, उसका भाई अफजाल अंजसारी से लेकर अतीक तक की राजनीति में प्रवेश की कहानी ऐसी ही रही। अपने आपराधिक साम्राज्य के विस्तार और पुलिस संरक्षण के लिए इन लोगों ने सियासत को एक टूल के रूप में इस्तेमाल किया। इसके बाद राजनीति में वंशवाद का प्रवेश हुआ। एक परिवार से कई-कई लोग राजनीति में एमएलए या सांसद बनने लगे। बीजेपी ने इधर एक नई परंपरा शुरू की है। एक परिवार के एक ही व्यक्ति को टिकट देने का प्रचलन शुरू किया है। अगर दूसरे दल भी इसका अनुसरण कर लें तो सामान्य कार्यकर्ताओं की भी राजनीति में रुचि बढ़ेगी, जो कुछ को छोड़ तकरीबन हर दल के लिए अब दुर्लभ जीव हो गए हैं।

कार्यकर्ता को कोई पूछता नहीं, परिवार हावी

वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर कहते हैं कि भाजपा ने ‘एक परिवार, एक टिकट’ की परंपरा शुरू की है। बीजेपी ने यह शुरुआत गत साल हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से की। कर्नाटक के चुनाव में भी कमोबेश यह परंपरा कायम रही। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले यह खबर आई थी कि कम से कम दो बड़े गैर भाजपा नेताओं का भाजपा में इसी शर्त के कारण प्रवेश नहीं हो सका। क्योंकि वे अपने और अपने पुत्र के लिए चुनाव का टिकट चाहते थे। यह ऐसी परंपरा है, जिसे भाजपा विरोधी दल भी अपना सकते हैं। इससे किसी भी दल में कार्यकर्ताओं का मनोबल बना रहेगा। यदि अधिक से अधिक टिकट कुछ ही परिवारों में सिमट जाएं तो अन्य कार्यकर्ता किस उम्मीद या किस प्रेरणा से पार्टी में काम करते रहेंगे?

बिहार की राजनीति में वंशवाद का बोलबाला

बिहार हर काम में आगे रहता है। राजनीति का अपराधीकरण हो या राजनीति में वंशवाद, बिहार ने कई ऐसे नजीर पेश किए हैं कि जान-सुन कर दंग रह जाएंगे। लालू यादव की पार्टी आरजेडी ही अकेली नहीं है, जिस पर वंशवाद हावी न हो। लालू खुद केंद्रीय मंत्री और बिहार के सीएम रहे हैं। उनकी पत्नी राबड़ी देवी भी बिहार की सीएम रह चुकी हैं। वे अब भी विधान परिषद की सदस्य हैं। बेटी मीसा भारती राज्यसभा के रास्ते संसद में हैं तो बेटे तेजस्वी यादव बिहार के डेप्युटी सीएम और तेज प्रताप मंत्री बने हुए हैं। अब तो उनके परिवार में तेजस्वी यादव की पत्नी राजश्री ही ऐसा बचती हैं, जिन्होंने राजनीति का स्वाद नहीं चखा है। आने वाले दिनों में वे भी राजनीति में आ जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। इसलिए कि राजनीति में उतरे लालू परिवार के लगभग सभी सदस्य किसी न किसी कानूनी झमेले में उलझे हैं। राजश्री अभी तक बेदाग हैं।

लोजपा तो एक कुनबे की पार्टी बन गई है

राम विलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी की बात करें तो उनके बेटे चिराग पासवान, भाई पशुपति पारस और भतीजे प्रिंस राज संसदीय राजनीति में हैं। लोकसभा में पांच सदस्यों वाली पार्टी में तीन तो एक ही परिवार के हैं। अब तो जानकारी यह भी मिल रही है कि चिराग पासवान की मां रीना पासवान भी सियासत में कदम रखने वाली हैं। आश्चर्य तो यह कि राम विलास पासवान के निधन के बाद लोजपा में विभाजन हो गया। लोजपा भी दो धड़ों में बंट गई। पशुपति पारस और उनके बेटे एक तरफ हैं तो चिराग अकेले दूसरी तरफ। राम विलास पासवान की पहचान दलित नेता की रही है। उनके परिजन उन्हीं की विरासत संभाल रहे हैं। बिहार के एक और दलित नेता हैं जीतन राम मांझी। वह खुद तो राजनीति में हैं ही, बेटे संतोष भी एमएलसी हैं।

झारखंड और यूपी का भी हाल जान लीजिए

दो दशक पहले तक बिहार का हिस्सा रहे झारखंड में सोरेन परिवार की अभी तूती बोल रही है। शिबू सोरेन सांसद हैं तो एक बेटे हेमंत सोरेन झारखंड के सीएम। एक बेटा बसंत सोरेन और एक बहू सीता सोरेन विधायक हैं। यानी एक ही परिवार से चार आदमी राजनीति में जमे हुए हैं। पड़ोस के सूबे यूपी की बात करें तो मुलायम सिंह यादव के परिवार ने राजनीति में गजब की कुंडली बनाई है। अखिलेश यादव, उनकी पत्नी और दोनों चाचा राजनीति के रंग में रंगे हुए हैं। इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रतिद्वंद्वी बीजेपी किस रास्ते पर चल रही है। बीजेपी को उस रास्ते पर चल कर फायदा भी हो रहा है। बांगल की बात करें तो तीसरी बार सीएम बनीं ममता बनर्जी ने अब अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को राजनीति में अपना वारिस बनाने का फैसला किया है। अभिषेक अभी सांसद के अलावा टीएमसी के महासचिव हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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