Opinion: विपक्षी एकजुटता से क्यों उत्साहित हैं इसके लीडर्स, वजह जान कर आप भी चौंक जाएंगे
ओमप्रकाश अश्क, पटनाः इस बार लोकसभा का चुनाव दिलचस्प होगा। विपक्ष के 15 दल एकजुट होकर एनडीए के खिलाफ साझा उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है। बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए भी मुकाबले के लिए अपनी तैयारी में कोई कोर कसर नहीं छोड़ने वाला। पटना में पिछले हफ्ते (23 जून) को 15 विपक्षी दलों की बैठक में चुनावी रणनीति बनाने का काम अगली बैठक के लिए टाल दिया गया। अगली बैठक शिमला में कांग्रेस की मेजबानी में होनी थी। हालांकि अभी तक बैठक का स्थान और दिन तक तय नहीं हो पाया है।
शरद पवार बैठक बेंगलुरु में होने की बात कह रहे तो कांग्रेस खेमा इसे हैदराबाद में कराने पर विचार कर रहा है। खैर, एकता बन गई तो बैठक कहीं हो, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन एक खतरा तो बना ही हुआ है कि लोकसभा की लड़ाई 15 दलों के एकजुट हो जाने के बावजूद दोतरफा नहीं होगी। लड़ाई का तीसरा केंद्र बनाने के लिए कई ऐसे दल विपक्षी एकता से बाहर हैं, जिनका अपने राज्यों में खासा प्रभाव है। राजनीति में कब क्या हो जाए, कहना मुश्किल होता है। लेकिन एक बात तो साफ है कि चुनावी जंग में दो खेमे नहीं, बल्कि तीन खेमे होंगे। और, बीजेपी के लिए यही सबसे बड़ी सुकून की बात है।
वोटों का गणित समझिए
पटना में विपक्षी दल भले किसी रणनीतिक नतीजे पर नहीं पहुंचे, लेकिन कई मसलों पर चर्चा तो हुई ही। इसमें एक चर्चा यह भी हुई कि 2019 में लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 37.6 प्रतिशत था। जो 15 दल एक साथ आने को तैयार हुए हैं, उनके वोट मिला कर 37.3 प्रतिशत हैं। यानी मात्र 15 प्रमुख विपक्षी दल ही बीजेपी की बराबरी करने के लिए पर्याप्त हैं। अगर नरेंद्र मोदी की सरकार के एंटी इन्कम्बैंसी को ध्यान में रखें, जो किसी भी सत्ताधारी के लिए स्वाभाविक स्थिति होती है तो विपक्षी दल पाशा पलटने में कामयाब हो जाएंगे। इसी उम्मीद में साथ चलने का निर्णय ले चुके 15 विपक्षी दल उत्साहित हैं।
निर्गुट दल बीजेपी को ही तो फायदा पहुंचाएंगे!
जिस तरह से विपक्षी दलों के दो खेमे बन गए हैं, उससे बीजेपी को ही फायदा होने वाला है। सीधे कहें तो वे बीजेपी के मददगार बन कर उभरेंगे। तेलंगाना में बीआरएस की सरकार है। सीएम केसी राव का फोकस अब अपनी पार्टी के विस्तार पर है। तीन दिन पहले ही केसीआर अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और समर्थकों की सैकड़ों गाड़ियों के काफिले के साथ महाराष्ट्र के पंढरपुर मंदिर में पूजा करने गए थे। महाराष्ट्र में वे अपनी पार्टी का विस्तार भी कर रहे हैं। हालांकि विस्तार की उनकी योजना देश भर के लिए है। मध्य प्रदेश में भी उन्होंने कुछ लोगों को अपनी पार्टी बीआरएस से जोड़ा है। बाकी जगहों को छोड़ भी दें तो तेलंगाना में क्या वे एकजुट विपक्ष के साथ अब आ पाएंगे ? यानी तेलंगाना में अगर विपक्षी वोटों का बंटवारा हुआ तो यब बीजेपी के हित में ही तो होगा।
पटनायक और केजरीवाल भी बीजेपी के मददगार बनेंगे?
विपक्ष 15 दलों के एकजुट होने की बात करता है। आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल भी अपने कुनबे के साथ विपक्षी एकता बैठक में भाग लेने पटना पहुंचे थे। पटना आने से पहले और लौटने के बाद अरविंद केजरीवाल की पार्टी के सीनियर लीडर जिस तरह के बयान दे रहे हैं, उससे साफ है कि वे एकजुट होने के पक्ष में नहीं हैं। उनकी राह अलग होगी। अगर वे ऐसा करते हैं तो क्या विपक्ष की आपस की लड़ाई से बीजेपी को फायदा नहीं होगा? ओडिशा में बीजू जनता दल की सरकार है। नवीन पटनायक ने शुरू में ही नीतीश कुमार को साफ-साफ बता दिया था कि वे किसी दल या गठबंधन के साथ चुनाव नहीं लड़ेंगे। ऐसे में विपक्षी वोट बंटेंगे तो क्या बीजेपी को फायदा नहीं होगा ?
ओवैसी, मायावती, रेड्डी, नायडू किसका वोट काटेंगे?
विपक्षी एकता बैठक से कई ऐसे दल नदारद रहे, जिनका अपने राज्यों या कम्युनिटी में खासा जनाधार रहा है। एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी, बीएसपी की मायावती, वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी, टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू, जेडीएस, अकाली दल, बीजेडी के नवीन पटनायक, बीआरएस के केसीआर जैसे नेता तो प्रत्यक्ष तौर पर विपक्षी एकजुटता से अलग रहे। इनमें कुछ ने रुचि नहीं दिखाई तो कुछ को आमंत्रित ही नहीं किया गया। ये सब अपने-अपने राज्यों या कम्युनिटी में प्रभाव रखते हैं। जब इनकी वजह से विपक्षी वोट बंटेंगे तो क्या बीजेपी को फायदा नहीं होगा ? आम आदमी पार्टी और ममता बनर्जी की टीएमसी भी आने वाले दिनों में एकजुटता तोड़ कर अगर इन्हीं नेताओं की कतार में शामिल दिखें तो आश्चर्य नहीं। यानी चुनावी जंग तितरफा होने के प्रबल संकेत मिल रहे हैं। यह स्थिति बीजेपी के लिए सर्वथा अनुकूल होगी।
विपक्षी एकजुटता में सीट शेयरिंग सबसे बड़ी बाधा
विपक्षी एकजुटता बरकरार रहेगी या टूट जाएगी, अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी। पर, इतना तो तय है कि सीटों के बंटवारे के सवाल पर आपस में खूब खटपट होगी। यही खटपट विपक्षी एकता के विखंडित हो जाने का कारण बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सीटों के बंटवारे का कोई मान्य या किताबी फार्मूला नहीं है। इसके लिए दो हो मानक हो सकते हैं। लोकसभा या विधानसभा चुनावों में प्राप्त मतों को सीट बंटवारे का आधार बनाया जाए। अगर यह मानक तय हुआ तो कांग्रेस का क्या होगा, जिसे यूपी, बिहार, बंगाल जैसे राज्यों में पिछले लोकसभा चुनाव में मुट्ठी भर ही वोट मिले थे। कांग्रेस यहीं आकर अलग चलने का रास्ता अख्तियार कर सकती है।
कांग्रेस को गुमान है कि उसकी चार राज्यों में सरकारें हैं। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के हालिया चुनावों में उसे कामयाबी हासिल हुई है। राहुल गांधी की मेहनत भारत जोड़ो यात्रा के महीनों चले अभियान में साफ-साफ दिखी है। कांग्रेस के बारे में यह परसेप्शन भी बन रहा है कि वह रिवाइव कर रही है। तब सीट शेयरिंग में वह क्यों कंप्रोमाइज करेगी। यूपी में अखिलेश यादव क्या कांग्रेस को समाजवादी पार्टी के बराबर सीटें देने को तैयार होंगे या ममता बनर्जी कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों को जमीन देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगी? इसलिए विपक्षी एकजुटता की कामयाबी में कई ऐसे अवरोध नजर आते हैं, जो अंततः बीजेपी क हित में साबित होंगे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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शरद पवार बैठक बेंगलुरु में होने की बात कह रहे तो कांग्रेस खेमा इसे हैदराबाद में कराने पर विचार कर रहा है। खैर, एकता बन गई तो बैठक कहीं हो, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन एक खतरा तो बना ही हुआ है कि लोकसभा की लड़ाई 15 दलों के एकजुट हो जाने के बावजूद दोतरफा नहीं होगी। लड़ाई का तीसरा केंद्र बनाने के लिए कई ऐसे दल विपक्षी एकता से बाहर हैं, जिनका अपने राज्यों में खासा प्रभाव है। राजनीति में कब क्या हो जाए, कहना मुश्किल होता है। लेकिन एक बात तो साफ है कि चुनावी जंग में दो खेमे नहीं, बल्कि तीन खेमे होंगे। और, बीजेपी के लिए यही सबसे बड़ी सुकून की बात है।
वोटों का गणित समझिए
पटना में विपक्षी दल भले किसी रणनीतिक नतीजे पर नहीं पहुंचे, लेकिन कई मसलों पर चर्चा तो हुई ही। इसमें एक चर्चा यह भी हुई कि 2019 में लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 37.6 प्रतिशत था। जो 15 दल एक साथ आने को तैयार हुए हैं, उनके वोट मिला कर 37.3 प्रतिशत हैं। यानी मात्र 15 प्रमुख विपक्षी दल ही बीजेपी की बराबरी करने के लिए पर्याप्त हैं। अगर नरेंद्र मोदी की सरकार के एंटी इन्कम्बैंसी को ध्यान में रखें, जो किसी भी सत्ताधारी के लिए स्वाभाविक स्थिति होती है तो विपक्षी दल पाशा पलटने में कामयाब हो जाएंगे। इसी उम्मीद में साथ चलने का निर्णय ले चुके 15 विपक्षी दल उत्साहित हैं।
निर्गुट दल बीजेपी को ही तो फायदा पहुंचाएंगे!
जिस तरह से विपक्षी दलों के दो खेमे बन गए हैं, उससे बीजेपी को ही फायदा होने वाला है। सीधे कहें तो वे बीजेपी के मददगार बन कर उभरेंगे। तेलंगाना में बीआरएस की सरकार है। सीएम केसी राव का फोकस अब अपनी पार्टी के विस्तार पर है। तीन दिन पहले ही केसीआर अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और समर्थकों की सैकड़ों गाड़ियों के काफिले के साथ महाराष्ट्र के पंढरपुर मंदिर में पूजा करने गए थे। महाराष्ट्र में वे अपनी पार्टी का विस्तार भी कर रहे हैं। हालांकि विस्तार की उनकी योजना देश भर के लिए है। मध्य प्रदेश में भी उन्होंने कुछ लोगों को अपनी पार्टी बीआरएस से जोड़ा है। बाकी जगहों को छोड़ भी दें तो तेलंगाना में क्या वे एकजुट विपक्ष के साथ अब आ पाएंगे ? यानी तेलंगाना में अगर विपक्षी वोटों का बंटवारा हुआ तो यब बीजेपी के हित में ही तो होगा।
पटनायक और केजरीवाल भी बीजेपी के मददगार बनेंगे?
विपक्ष 15 दलों के एकजुट होने की बात करता है। आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल भी अपने कुनबे के साथ विपक्षी एकता बैठक में भाग लेने पटना पहुंचे थे। पटना आने से पहले और लौटने के बाद अरविंद केजरीवाल की पार्टी के सीनियर लीडर जिस तरह के बयान दे रहे हैं, उससे साफ है कि वे एकजुट होने के पक्ष में नहीं हैं। उनकी राह अलग होगी। अगर वे ऐसा करते हैं तो क्या विपक्ष की आपस की लड़ाई से बीजेपी को फायदा नहीं होगा? ओडिशा में बीजू जनता दल की सरकार है। नवीन पटनायक ने शुरू में ही नीतीश कुमार को साफ-साफ बता दिया था कि वे किसी दल या गठबंधन के साथ चुनाव नहीं लड़ेंगे। ऐसे में विपक्षी वोट बंटेंगे तो क्या बीजेपी को फायदा नहीं होगा ?
ओवैसी, मायावती, रेड्डी, नायडू किसका वोट काटेंगे?
विपक्षी एकता बैठक से कई ऐसे दल नदारद रहे, जिनका अपने राज्यों या कम्युनिटी में खासा जनाधार रहा है। एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी, बीएसपी की मायावती, वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी, टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू, जेडीएस, अकाली दल, बीजेडी के नवीन पटनायक, बीआरएस के केसीआर जैसे नेता तो प्रत्यक्ष तौर पर विपक्षी एकजुटता से अलग रहे। इनमें कुछ ने रुचि नहीं दिखाई तो कुछ को आमंत्रित ही नहीं किया गया। ये सब अपने-अपने राज्यों या कम्युनिटी में प्रभाव रखते हैं। जब इनकी वजह से विपक्षी वोट बंटेंगे तो क्या बीजेपी को फायदा नहीं होगा ? आम आदमी पार्टी और ममता बनर्जी की टीएमसी भी आने वाले दिनों में एकजुटता तोड़ कर अगर इन्हीं नेताओं की कतार में शामिल दिखें तो आश्चर्य नहीं। यानी चुनावी जंग तितरफा होने के प्रबल संकेत मिल रहे हैं। यह स्थिति बीजेपी के लिए सर्वथा अनुकूल होगी।
विपक्षी एकजुटता में सीट शेयरिंग सबसे बड़ी बाधा
विपक्षी एकजुटता बरकरार रहेगी या टूट जाएगी, अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी। पर, इतना तो तय है कि सीटों के बंटवारे के सवाल पर आपस में खूब खटपट होगी। यही खटपट विपक्षी एकता के विखंडित हो जाने का कारण बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सीटों के बंटवारे का कोई मान्य या किताबी फार्मूला नहीं है। इसके लिए दो हो मानक हो सकते हैं। लोकसभा या विधानसभा चुनावों में प्राप्त मतों को सीट बंटवारे का आधार बनाया जाए। अगर यह मानक तय हुआ तो कांग्रेस का क्या होगा, जिसे यूपी, बिहार, बंगाल जैसे राज्यों में पिछले लोकसभा चुनाव में मुट्ठी भर ही वोट मिले थे। कांग्रेस यहीं आकर अलग चलने का रास्ता अख्तियार कर सकती है।
कांग्रेस को गुमान है कि उसकी चार राज्यों में सरकारें हैं। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के हालिया चुनावों में उसे कामयाबी हासिल हुई है। राहुल गांधी की मेहनत भारत जोड़ो यात्रा के महीनों चले अभियान में साफ-साफ दिखी है। कांग्रेस के बारे में यह परसेप्शन भी बन रहा है कि वह रिवाइव कर रही है। तब सीट शेयरिंग में वह क्यों कंप्रोमाइज करेगी। यूपी में अखिलेश यादव क्या कांग्रेस को समाजवादी पार्टी के बराबर सीटें देने को तैयार होंगे या ममता बनर्जी कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों को जमीन देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगी? इसलिए विपक्षी एकजुटता की कामयाबी में कई ऐसे अवरोध नजर आते हैं, जो अंततः बीजेपी क हित में साबित होंगे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)