कितना सार्थक है “एक देश एक चुनाव”

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राजनीतिक हलकों में ‘एक देश एक चुनाव’ के मसले को लेकर विवाद की स्थिति कायम है. ऐसे में मोदी सरकार के द्वारा ‘एक देश एक चुनाव’ की सोच को कितनी सफलता मिल पायेगी, ये देखने वाला विषय होगा. बंगाल की मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के द्वारा बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक में सम्मिलित होने से इनकार कर दिया है, इसके साथ ही कई और विपक्षी दल जैसे समाजवादी पार्टी और लेफ्ट ने भी सवाल खड़े कर दिए हैं.

अब सवाल है कि आखिर इस ‘एक देश एक चुनाव’ के नियम को लागू करने में क्या कोई समस्या है? क्या कोई संवैधानिक पेंच है? या फिर राजनैतिक दलों ने बस ‘विरोध’ करने की नीति पर अमल करने का सोच रखा है?

एक देश एक चुनाव की नीति को लागू करने के लिए सभी राज्यों की सहमति की सबसे अहम भूमिका होगी. ऐसे में अगर एक देश एक चुनाव की नीति पर अमल किया जायेगा तो देश के धन और समय दोनों की बचत होगी, जोकि भारत जैसे देश के लिए एक सार्थक कदम होगा.

और जहाँ तक हमारे देश की बात है, यहाँ पर हर साल कोई न कोई चुनाव होते रहते हैं. कभी विधानसभा चुनाव तो उपचुनाव तो कभी अन्य पंचायती स्तर के चुनाव. ऐसे में सारे चुनाव एक साथ होने की सार्थकता ये होगी कि समय और धन दोनों की ही बचत होगी.

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वैसे भी भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे कहते हैं कि ‘पीएम मोदी मानते हैं कि वन नेशन, वन इलेक्शन के विचार को बीजेपी या मोदी के एजेंडा के तौर पर नहीं देखना चाहिए. ये देश का एजेंडा होना चाहिए.’

वैसे अभी तक कांग्रेस पार्टी ने इस मसले पर अपना पत्ता तो नही खोला है लेकिन वो इस मसले पर एक साथ चुनाव होने का विरोध करती आ रही है. अब देखना होगा की वक़्त के साथ क्या वो इस मसले पर मोदी सरकार के साथ खड़ी होती है?

सभी राष्ट्रीय दलों को इस मसले पर सोच-विचार करके ही अपना फैसला लेना चाहिए. वैसे भी भारत जैसे देश में समय और धन को इस तरह से खर्च करने से बेहतर एक साथ चुनाव कराना ही होगा.