MP लैंगिक भेदभाव: लड़कियों के लिए सरकारी और लड़कों के लिए हैं प्राइवेट स्कूल | Gender discrimination: govt. schools for girls and private for boys | Patrika News
यह स्थिति इसलिए अधिक चौंकाती है कि इक्कीसवीं सदी के इस दौर में लड़कियों के लिए कोई भी वर्जित क्षेत्र नहीं रह गए हैं। चांद से लेकर माउंट एवरेस्ट तक बेटियां परचम लहरा रहीं हैं। पढ़ाई व प्रतियोगी परीक्षाओं में मेरिट में स्थान बना रहीं हैं। लेकिन सन फस्र्ट बड़ी सामाजिक स’चाई है। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफारमेशन सिस्टम फार एजुकेशन (यू डाइस) की वार्षिक रिपोर्ट की माने तो 25 प्रतिशत से अधिक परिवार बेटियों को प्राइवेट स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं। उनके लिए सरकारी स्कूलों की मुफ्त शिक्षा ही मुफीद है। जहां लड़कों से 9 प्रतिशत अधिक लड़कियों के दाखिले हो रहे हैं। जबकि हर माता-पिता को यही कहते सुना जाता है कि बेटा-बेटियों में उन्होंने कभी फर्क नहीं किया पर आंकड़ों से पता चलता है कि स”ााई इसके उलट है।
आपदा के पहले भी यही टे्रंड
कोरोना के संकट के बाद प्राइवेट स्कूलों में नामांकन में कमी दर्ज की गई थी। लेकिन बेटियों के हालात में कोई खास बदलाव नहीं हुआ था। यूडाइस के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2020-21 में प्रदेश के 31 हजार निजी स्कूलों में 71 लाख विद्यार्थियों के दाखिले हुए थे। इनमें 40 लाख लड़के और 30 लाख लड़कियां शामिल हैं। वहीं, 2018-19 में 67 लाख विद्यार्थियों में से 38 लाख लड़के और 28 लाख लड़कियां शामिल थीं। साफ है कि निजी स्कूलों से लड़कियों के बाहर होने की वजह आपदा नहीं थी। यह टे्रंड पहले से ही चलता आ रहा है।
श्रेष्ठता नहीं सोच पर सवाल
निजी शिक्षण संस्थानों में लड़कियों की 25 प्रतिशत की कमी का मामला श्रेष्ठता से वंचित होने का नहीं है और न ही प्राइवेट स्कूलों में दाखिला श्रेष्ठता का पैमाना है। लेकिन सवाल सोच पर है। प्रदेश में लिंगानुपात का अंतर घटा है। लेकिन शिक्षा के आंकड़े भेदभाव की पोल खोलते हैं। निजी स्कूलों की तुलना में सरकारी स्कूलों में बेटों पर बेटियां भारी हैं। यूडाइस की रिपोर्ट के अनुसार 2020-21 में सरकारी स्कूलों में हुए 89 लाख नामांकन में 43 लाख लड़कों और 45 लाख लड़कियों के दाखिले हुए थे। समाज अब भी बेटियों पर खर्च करने से कतराता है।
सोच बदलनी चाहिए
बेटे पूंजी हैं और बेटियां कर्ज, सदियों से यह भारतीय सोच रही है। हाल के दशकों में आगे बढऩे के अवसर मिले तो महिलाओं ने अपनी क्षमता को साबित किया है। लेकिन खर्च के मामले में अभी भी लोग बेटियों को लेकर पीछे हटते हैं, यह चिंताजनक है। यह समझना होगा कि शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो समाज को ऊपर रखेगा। लैंगिक भेदभाव से ऊपर उठने से ही काबिल समाज गढ़ा जा सकता है। महिला सशक्तिकरण कोरी बातों से नहीं आएगा।
शिप्रा पाठक, समाजसेवी
्रदेश की यह है स्थिति
सरकारी स्कूल
99152 कुल सरकारी स्कूल
8904779 विद्यार्थी
4366583 बालक
4538196 बालिका प्राइवेट स्कूल
31512 कुल निजी स्कूल
7094440 विद्यार्थी
4013970 बालक
3080470 बालिका
(आंकड़े: केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की 2020-21 की यूडाइस रिपोर्ट)
यह स्थिति इसलिए अधिक चौंकाती है कि इक्कीसवीं सदी के इस दौर में लड़कियों के लिए कोई भी वर्जित क्षेत्र नहीं रह गए हैं। चांद से लेकर माउंट एवरेस्ट तक बेटियां परचम लहरा रहीं हैं। पढ़ाई व प्रतियोगी परीक्षाओं में मेरिट में स्थान बना रहीं हैं। लेकिन सन फस्र्ट बड़ी सामाजिक स’चाई है। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफारमेशन सिस्टम फार एजुकेशन (यू डाइस) की वार्षिक रिपोर्ट की माने तो 25 प्रतिशत से अधिक परिवार बेटियों को प्राइवेट स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं। उनके लिए सरकारी स्कूलों की मुफ्त शिक्षा ही मुफीद है। जहां लड़कों से 9 प्रतिशत अधिक लड़कियों के दाखिले हो रहे हैं। जबकि हर माता-पिता को यही कहते सुना जाता है कि बेटा-बेटियों में उन्होंने कभी फर्क नहीं किया पर आंकड़ों से पता चलता है कि स”ााई इसके उलट है।
आपदा के पहले भी यही टे्रंड
कोरोना के संकट के बाद प्राइवेट स्कूलों में नामांकन में कमी दर्ज की गई थी। लेकिन बेटियों के हालात में कोई खास बदलाव नहीं हुआ था। यूडाइस के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2020-21 में प्रदेश के 31 हजार निजी स्कूलों में 71 लाख विद्यार्थियों के दाखिले हुए थे। इनमें 40 लाख लड़के और 30 लाख लड़कियां शामिल हैं। वहीं, 2018-19 में 67 लाख विद्यार्थियों में से 38 लाख लड़के और 28 लाख लड़कियां शामिल थीं। साफ है कि निजी स्कूलों से लड़कियों के बाहर होने की वजह आपदा नहीं थी। यह टे्रंड पहले से ही चलता आ रहा है।
श्रेष्ठता नहीं सोच पर सवाल
निजी शिक्षण संस्थानों में लड़कियों की 25 प्रतिशत की कमी का मामला श्रेष्ठता से वंचित होने का नहीं है और न ही प्राइवेट स्कूलों में दाखिला श्रेष्ठता का पैमाना है। लेकिन सवाल सोच पर है। प्रदेश में लिंगानुपात का अंतर घटा है। लेकिन शिक्षा के आंकड़े भेदभाव की पोल खोलते हैं। निजी स्कूलों की तुलना में सरकारी स्कूलों में बेटों पर बेटियां भारी हैं। यूडाइस की रिपोर्ट के अनुसार 2020-21 में सरकारी स्कूलों में हुए 89 लाख नामांकन में 43 लाख लड़कों और 45 लाख लड़कियों के दाखिले हुए थे। समाज अब भी बेटियों पर खर्च करने से कतराता है।
सोच बदलनी चाहिए
बेटे पूंजी हैं और बेटियां कर्ज, सदियों से यह भारतीय सोच रही है। हाल के दशकों में आगे बढऩे के अवसर मिले तो महिलाओं ने अपनी क्षमता को साबित किया है। लेकिन खर्च के मामले में अभी भी लोग बेटियों को लेकर पीछे हटते हैं, यह चिंताजनक है। यह समझना होगा कि शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो समाज को ऊपर रखेगा। लैंगिक भेदभाव से ऊपर उठने से ही काबिल समाज गढ़ा जा सकता है। महिला सशक्तिकरण कोरी बातों से नहीं आएगा।
शिप्रा पाठक, समाजसेवी
्रदेश की यह है स्थिति
सरकारी स्कूल
99152 कुल सरकारी स्कूल
8904779 विद्यार्थी
4366583 बालक
4538196 बालिका प्राइवेट स्कूल
31512 कुल निजी स्कूल
7094440 विद्यार्थी
4013970 बालक
3080470 बालिका
(आंकड़े: केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की 2020-21 की यूडाइस रिपोर्ट)