Movie of the Week- Ijaazat- 1987

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गुलज़ार साहब के निर्देशन में बनी “इजाज़त”! ये फिल्म न सिर्फ अपने दौर से आगे की फिल्म है बल्कि बहुत परिपक्व विषय पर भी है. फिल्म के हर एंगल में आपको गुलज़ार की खूबसूरती और शायरी दिख जाएगी. वो जितने बेहतर गीतकार हैं उतने ही अच्छे निर्देशक भी हैं. चेहरे के किस भाव को किस तरह कैमरा में क़ैद करना है ये उनकी सबसे उम्दा खूबी है. बाकी की कसार इसके संगीत ने पूरी कर दी. गाने इस तरह से पिरोये गए हैं मानो संवाद हो. खूबसूरत संवाद, जिन्हें हलके संगीत के साथ कहा जा रहा है.

यूं तो ये पूरी फिल्म ही दिलकश है मगर मुझे सबसे खूबसूरत किरदार मुझे माया(अनुराधा पटेल) का लगा. सुधा(रेखा) और महेंद्र(नसीरुद्दीन शाह) के साथ तो जो हुआ वो सब सामने ही है. पर माया…… वो जीते जी झेलती ही रही, और उसी घुटन से छुटकारा पाने की जद्दोजहद में ज़िंदगी गुजारती रही. हर कोई उसे पागल, अजीब और ढीठ कहता रहा. हर कोई उसके इस किरदार को ही देखता रहा, मगर कोई ये नहीं समझ सका वो बाग़ी हुई तो आखिर क्यों?  उसने अपनी मर्ज़ी से दरबदर की ज़िन्दगी नहीं चुनी थी. वो सुकून की तलाश में भागती रहती थी. और भागती भी किस्से थी? अपने माँ-बाप के साये से। वो माँ-बाप जिन्होंने जन्म दिया, पाला. जिनका उसपर पूरा हक़ था और ज़िम्मेदारी उसपर पैसा खर्च करने की. उससे ज़्यादा कुछ नहीं. उसके माँ-बाप एक खोखली शादी को समाज के नाम पर ढोते रहे। सिर्फ समाज के नाम पर। और जिस समाज के नाम पर वो ये सब कर रहे थे, उसी समाज ने कभी माया की सुध नहीं ली कभी उसे नहीं समझा. मुझे लगता है कि वो सुधा और महेंद्र से ज़्यादा समझदार थी.

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माया ने शादी के नाम पर इतनी कड़वाहट पी ली थी कि वो माँ बनना चाहती थी पर शादी से डरती थी। दूसरी तरफ सुधा थी. एक आम औरत. जो ये तो झेल सकती थी कि उसके पति की ज़िन्दगी में कोई औरत थी, मगर उसके लिए ये बर्दाश्त नामुमकिन था कि वो औरत अब भी इर्द-गिर्द है. सुधा महेंद्र से उसी समर्पण की उम्मीद कर रही थी जो समर्पण उसने महेंद्र को दिया था.

लेकिन प्यार और परिवार की जिम्मेदारियों के बीच खड़ा महेंद्र हर बार हारा हुआ साबित हुआ. वो अपनी ज़िंदगी में आई दोनों औरतों को प्यार सम्मान देना चाहता था मगर बदले में वो कुछ भी न पा सका.

ये फिल्म इतनी रूमानी है कि इसे देखकर इश्क करने का जी करने लगे. जी चाह उठे के एक बार इश्क में हम भी तो बर्बाद होकर देखें.

फिल्म से एक और ख़ास चीज़ का एहसास हुआ कि ज़रूरी नही अगर सबकुछ दिख रहा है तो वो सही ही है. कई बार कुछ चीज़ों का छुपाना, कुछ रिश्तों को छोड़ देना और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कुछ कड़े फैसले ले लेने चाहिए. क्यूंकि न माया बुरी थी और न ही सुधा अच्छी. जो भी कुछ था वो आपसी समझ पर था.

मेरी तरफ से इस फिल्म को 3.5 स्टार्स.