Maharashtra Political Crisis: क्या एकनाथ शिंदे एनसीपी-शिवसेना-कांग्रेस गठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी थे?
Maharashtra Political Crisis: महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट के बीच मंगलवार को एक नाम सुर्खियों में रहा। एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde)। उनका नाम छगन भुजबल और नारायण राणे जैसे नेताओं की फेहरिस्त में जुड़ता दिख रहा है। भुजबल और राणे शिवसेना से छिटककर भारतीय जनता पार्टी (BJP) में शामिल हो गए थे। ये नेता शिवसेना (Shiv Sena) में टूट और बगावत की स्क्रिप्ट लिख चुके हैं। क्या इन्हीं के नक्शेकदम पर एकनाथ शिंदे चल पड़े हैं। शिंदे का सफर फर्श से अर्श तक का रहा है। एक जमाना था जब वह ऑटोरिक्शा चलाते थे। ठाणे में बीयर फैक्ट्री में मजदूरी करते थे। समय का पहिया ऐसा घूमा कि एकनाथ शिंदे ठाकरे परिवार के बाद शिवसेना में सबसे मजबूत नेताओं में से एक बन गए। आज महाराष्ट्र में राजनीतिक संकट के केंद्र में एकनाथ शिंदे ही हैं।
ठाकरे परिवार या यूं कहें एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस के त्रिकोणीय गठबंधन के लिए वो सबसे कमजोर कड़ी थे। इन तीनों के डर की वजह बेमानी भी नहीं है। कारण है कि एकनाथ शिंदे से कई दलों के विधायकों की वफादारी जुड़ी हुई है। शिंदे के लिए वो कुछ भी कर सकते हैं। इस वफादारी की सबसे बड़ी वजह विधायकों के लिए शिंदे का किसी भी समय उपलब्ध रहना है। किसी से छुपा नहीं है कि मातोश्री में अपॉइंटमेंट लेना कितना कठिन है। एकनाथ शिंदे इसमें विधायकों के लिए पुल का काम कर जाते थे। उनके साथ विधायक दिल की बात इसलिए भी साझा कर लेते थे क्योंकि वह कभी हवा में उड़ने वाले नेता नहीं रहे हैं। साथ ही उनकी आर्थिक पृष्ठभूमि से भी लोग काफी परिचित हैं।
कैसे ठाणे पहुंचे शिंंदे?
शिंदे परिवार मूल रूप से सतारा जिले का रहने वाला है। उनका परिवार 70 के दशक में ठाणे आ गया था। तब एकनाथ शिंदे बच्चे थे। 80 के दशक में वो शिवसेना से जुड़ गए। इसके पहले उनका सफर कांटों भरा था। एकनाथ शिंदे ने बीयर बनाने वाली फैक्ट्री और फिशरी जैसी जगहों पर काम किया। एक समय दो जून की रोटी कमाने के लिए ऑटोरिक्शा भी चलाया।
शिवसेना से जुड़ने के कुछ ही समय में शिंदे ठाणे जिले के शिवसेना अध्यक्ष आनंद दिघे के करीब आ गए। दिघे का स्थानीय इकाई पर भरपूर नियंत्रण था। उन्होंने इलाके में शिवसेना का परचम बुलंद कर दिया था। शिंदे ने दिघे को अपना रोलमॉडल बना लिया। पहनावे और बोलचाल में भी वह उनकी तरह दिखने की कोशिश करने लगे। दिघे ने शिंदे को उनकी वफादारी का ईनाम भी दिया। शिंदे को 1997 में ठाणे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की सीट जिताने में दिघे ने पूरी मदद की।
दिघे हमेशा रहे शिंंदे के साथ
2000 में शिंदे के बच्चों की एक हादसे में मौत हो गई थी। तब भी दिघे शिंदे के साथ पूरी मजबूती के साथ खड़े रहे। इस हादसे ने शिंदे को तोड़ दिया था। वो बाहरी दुनिया से बिल्कुल कट गए थे। कहा जाता है कि दिघे ने ही शिंदे को वापसी करने का हौंसला दिया। ठाणे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन में उन्हें नेता बनाया।
2001 में दिघे का निधन हो गया था। शिंदे ने दिघे के निधन से शिवसेना की ठाणे इकाई में बने खालीपन को भर दिया। फिर 2004 में शिंदे कोपरी-पचपखाड़ी सीट से जीतकर एमएलए बने। लगातार चार बार उन्होंने इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया।
दिघे की तरह शिंदे भी कुछ ही शब्दों में अपनी बातों को कहने के लिए जाने जाते हैं। हालांकि, उनकी आक्रामकता और काम करने का अनूठा स्टाइल उन्हें तमाम नेताओं से अलग करता है। अब तक शिवसेना के साथ उनकी गहरी वफादारी ने उन्हें पार्टी के अंदर बढ़ने का मौका दिया। बाल ठाकरे के निधन और उद्धव ठाकरे के बढ़ने का भी उन्हें फायदा हुआ।
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कैसे ठाणे पहुंचे शिंंदे?
शिंदे परिवार मूल रूप से सतारा जिले का रहने वाला है। उनका परिवार 70 के दशक में ठाणे आ गया था। तब एकनाथ शिंदे बच्चे थे। 80 के दशक में वो शिवसेना से जुड़ गए। इसके पहले उनका सफर कांटों भरा था। एकनाथ शिंदे ने बीयर बनाने वाली फैक्ट्री और फिशरी जैसी जगहों पर काम किया। एक समय दो जून की रोटी कमाने के लिए ऑटोरिक्शा भी चलाया।
शिवसेना से जुड़ने के कुछ ही समय में शिंदे ठाणे जिले के शिवसेना अध्यक्ष आनंद दिघे के करीब आ गए। दिघे का स्थानीय इकाई पर भरपूर नियंत्रण था। उन्होंने इलाके में शिवसेना का परचम बुलंद कर दिया था। शिंदे ने दिघे को अपना रोलमॉडल बना लिया। पहनावे और बोलचाल में भी वह उनकी तरह दिखने की कोशिश करने लगे। दिघे ने शिंदे को उनकी वफादारी का ईनाम भी दिया। शिंदे को 1997 में ठाणे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की सीट जिताने में दिघे ने पूरी मदद की।
दिघे हमेशा रहे शिंंदे के साथ
2000 में शिंदे के बच्चों की एक हादसे में मौत हो गई थी। तब भी दिघे शिंदे के साथ पूरी मजबूती के साथ खड़े रहे। इस हादसे ने शिंदे को तोड़ दिया था। वो बाहरी दुनिया से बिल्कुल कट गए थे। कहा जाता है कि दिघे ने ही शिंदे को वापसी करने का हौंसला दिया। ठाणे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन में उन्हें नेता बनाया।
2001 में दिघे का निधन हो गया था। शिंदे ने दिघे के निधन से शिवसेना की ठाणे इकाई में बने खालीपन को भर दिया। फिर 2004 में शिंदे कोपरी-पचपखाड़ी सीट से जीतकर एमएलए बने। लगातार चार बार उन्होंने इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया।
दिघे की तरह शिंदे भी कुछ ही शब्दों में अपनी बातों को कहने के लिए जाने जाते हैं। हालांकि, उनकी आक्रामकता और काम करने का अनूठा स्टाइल उन्हें तमाम नेताओं से अलग करता है। अब तक शिवसेना के साथ उनकी गहरी वफादारी ने उन्हें पार्टी के अंदर बढ़ने का मौका दिया। बाल ठाकरे के निधन और उद्धव ठाकरे के बढ़ने का भी उन्हें फायदा हुआ।
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