India@75Years: पंजाबी रिफ्यूजियों संग आए तंदूर ने कैसे बदल दिया दिल्ली के स्ट्रीट फूड का रंग-ढंग देखें…

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India@75Years: पंजाबी रिफ्यूजियों संग आए तंदूर ने कैसे बदल दिया दिल्ली के स्ट्रीट फूड का रंग-ढंग देखें…

India@75Years: पंजाबी रिफ्यूजियों संग आए तंदूर ने कैसे बदल दिया दिल्ली के स्ट्रीट फूड का रंग-ढंग देखें…

बीते 75 सालों में दिल्ली वालों को बेशुमार एक से एक स्वादिष्ट स्ट्रीट फूड खाने को मिले हैं। असल में 1947 से 1957 के बीच दिल्ली के स्ट्रीट फूड का रंग-ढंग ही बदल दिया। पंजाबी रिफ्यूजी अपने संग तंदूर क्या लाए, घर जैसा सस्ता भोजन सड़क किनारे ढाबों पर मिलने लगा। मेथी की चटनी के संग बेडमी-आलू की सब्ज़ी खाती दिल्ली को सबसे खास रावलपिंडी से आए छोले-भठूरे इसी दौर में मिले। ऐसे ही अविभाजित हिंदुस्तान के लाहौर से आए पंजाबी पूरी-छोलों ने दिल्लीवालों को अपना बनाया। कहा जा सकता है कि 1947 में बंटवारे के वक्त अविभाजित हिन्दुस्तान के उस पार से दिल्ली आकर बसे पंजाबियों ने अपने स्ट्रीट फूड से खूब रिझाया।

​तंदूर आया, खुले ढाबे

सड़क छाप सस्ते ढाबों का चलन भी आज़ादी के बाद ही तेज हुआ। पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी ही तंदूर दिल्ली और भारत के अन्य शहरों में तपाने लगे। सड़क किनारे ताज़ा, स्वादिष्ट और सस्ता भोजन मिलने लगा। इससे रिफ्यूजी परिवारों को रोज़गार ही नहीं मिला, तंदूरी पकवान बनाने और खाने का सलीका आ गया। इन्हीं ढाबों में पंजाबियों के हाथों दिल्ली ने मा की दाल का स्वाद चखा। इससे पहले दिल्ली वाले परांठे वाली गली के देसी घी से लबालब स्टफ्ड परांठे खाने में मशगूल थे।

ढाबे की तर्ज़ पर 1947 में दरियागंज में ‘मोती महल’ चालू हुआ। रोज रात को कव्वाली का प्रोग्राम होता और लाजवाब पकवान परोसे जाने लगे। खासियत थी कि यहां ढाबे और फाइन डाइन वाले ग्राहक साथ-साथ बैठ कर खाने लगे।

​बटर चिकन और तंदूरी नान

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हालांकि ‘मोती महल’ नाम का रेस्टोरेंट 1929 से पेशावर (अब पाकिस्तान) में था, लेकिन बटर चिकन के जनक कुंदन लाल गुजरात ने इसे देश के बंटवारे के बाद सबसे पहले दिल्ली में बनाया और खिलाना शुरू किया। बंटवारे के बाद पेशावर के ‘मोती महल’ में काम कर चुके कुंदन लाल गुजरात, कुंदन लाल जग्गी और ठाकुर दास मग्गो तीनों साथियों ने महज 4,000 रुपये की लागत पर दरियागंज में यह रेस्टोरेंट खोल दिया। तंदूरी नान और रोटियां खिलाने के लिए तीन तंदूर लगाए गए। तंदूर में ही मसाले लगा-लगा कर मुर्गा और मछली पका-पका कर परोसना शुरू किया। यूं तंदूरी चिकन दिल्ली की प्लेट पर पहुंच गया।

अब तक मटिया महल के ‘करीमस’ में ही दिल्ली वाले मटन खाते थे, चिकन का तो कोई क्रेज ही नहीं था। बाय चांस बटर चिकन बना और देश- दुनिया के रेस्टोरेंटों के मेन्यू में छा गया। बची-खुची मा की दाल और राजमा से यहीं एक रात दाल मक्खनी बन गई। दशकों बाद 1980 के दशक में फाइव स्टार होटल मौर्य शेरटन के ‘बुखारा’ रेस्टोरेंट को दाल बुखारा से वाहवाही बटोरने का गौरव मिला। इस जैसा रुतबा ही कभी ‘मोती महल’ का था।

​दाल समोसे आए आजादी के साथ

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आज़ादी से पहले दिल्ली में आलू के समोसे ही खाए जाते रहे। मुल्तान से आए लोग दाल के समोसे बनाने-खिलाने लगे। सबसे पहले 1947 से मुल्तानी ढांडा में ‘जनता स्वीट्स’ नाम की हलवाई शॉप के दाल समोसों से तारीफ बटोरनी शुरू की। दो कजन दर्शन कुमार कम्बोज और चंद्र प्रकाश वधावन दुकान से पहले यहीं रेहड़ी से दाल समोसों से रिझाने लगे। हल्के नमक-मिर्च की धुली मूंग दाल की स्टफिंग के समोसे की कवरिंग एकदम खस्ता होता, घी-तेल नाममात्र का, इसलिए बेहद स्वादिष्ट लगने लगे। दो-चार साल आगे-पीछे पंचकुइयां रोड पर ‘फ्रंटियर’ ने भी दाल के समोसों को दिल्ली के स्ट्रीट में जगह दिलाने में सहयोग दिया। इसी दौरान, मूंग दाल की स्टफिंग की पूरनी भी दिल्ली में पसंद की जाने लगी। इसे दिल्ली को खिलाने लगे पाक शहर डेरावाल से बंटवारे के संग आए हलवाई।

मुल्तान (अब पाकिस्तान) का पसन्दीदा स्ट्रीट फूड मोठ कचौड़ी भी 1950 के दशक से छाने लगा। इसके नाम के साथ ही मुल्तानी जुड़ा है। सबसे पहले मुल्तानी ढांडा में ‘मुल्तान मोठ भंडार’ से नंद लाल चावला ने जलवा बिखेरा। मूंग दाल को भून कर बनी पिट्ठी की स्टफिंग की कचौड़ियां, चावल और दाल मूंग या दाल मोठ के संग कॉम्बो के तौर पर खाने का ट्रेंड निकाला। मसालेदार लच्छा प्याज, हरी मिर्च का अचार और इमली की तरीदार चटनी डालकर, ढाक के पत्ते पर कचौड़ियों संग पेश करते हैं।

छोले-भठूरे और पूरी-छोले

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बेडमी-आलू खाने वाली दिल्ली को सबसे पहले पंजाबी पूरी-छोलों से रिझाने वाली हलवाई शॉप फतेहपुरी चौक स्थित ‘मेघराज एंड संस’ बताई जाती है। पंजाबी पूरी-छोले के नाश्ते की शुरुआत का श्रेय मेघराज परिवार के संस्थापक लाला मेघराज अरोड़ा को ही जाता है। लाहौर (अब पाकिस्तान) में 1915 में ‘मेघराज स्वीट्स’ खोलने से पहले वह वहीं मशहूर ‘निक्कूशाह हलवाई’ की दुकान पर काम करते थे। अपनी दुकान से उन्होंने आटा-मैदा मिक्स में उड़द दाल की पीठी भर कर देसी घी की पूरियां और छोले-आलू की सब्जी से धूम मचा दी। बंटवारे के बाद 1947 में दिल्ली आकर वही जलवा कायम रखा। फिर 1952 में लाहौर से ही आए ‘बिल्ले दी हट्टी’ ने कमला नगर से जलवा बिखेरा। देखा-देखी सारी दिल्ली में पंजाबी पूरी-छोले बनने-मिलने लगे और लोकप्रियता में बेडमी-आलू पीछे खिसक गई।

दिल्ली ने आज़ादी के बाद ही छोले-भठूरों का स्वाद चखा। भठूरे पिंडी छोलों के साथ ही ज़्यादा टेस्टी लगते हैं, हालांकि अब हर किस्म के छोलों के साथ खाए जाते हैं। 1947 के दो-चार साल बाद ही दिल्ली में यहां-वहां छोले-भठूरे परोसे जाने लगा। सदर बाज़ार की ‘नंद दी हट्टी’ के संस्थापक नंद लाल मक्कड़ ने 1948 में रेहड़ी पर बनाने-खिलाने शुरू किए। 1950 में कमला नगर की ‘चाचे दी हट्टी’ भी छोले-भठूरे खिलाने लगी। इसके संस्थापक प्राण लाल सलूजा के साथ मिलकर दौलत राम, धर्मवीर और एक-दो अन्य जनों ने देश-दुनिया को पिंडी छोलों का स्वाद चखाया। रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में ही पहलेपहल ऐसे छोले बने और नाम ही पड़ गया पिंडी छोले।

​पकौडों- समोसों से आगे मोमोज और मैगी

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टॉम अंकल उर्फ रमेश कटारिया को डीयू नॉर्थ कैंपस में ‘टॉम अंकल मैगी पॉइंट’ नामक स्टॉल से 1995 से मैगी को दिल्ली के स्ट्रीट फूड में शुमार करने का श्रेय जाता है। उन्होंने ही सबसे पहले मैगी के साथ एक्सपेरिमेंट किए और यंग जेनरेशन को फिदा होते देर नहीं लगी।

उधर लाजपत नगर की सेंट्रल मार्केट में ‘डोलमा आंटी मोमोज’ नाम के काउंटर पर 1994 से दिल्लीवालों ने पहली बार मोमोज़ का स्वाद चखा था। तब से अब तक मोमोज ने हमारे पकौड़ों और समोसों को पछाड़ दिया है। श्रेय ओनर डोलमा दोरजी और डोलमा थीरिन जेठानी-देवरानी की जोड़ी को जाता है। वेज, पनीर और चिकन की स्टफिंग के स्टीम मोमोज हैं। रेड चिली सॉस और प्याज-लहसुन की गार्लिक सॉस को मिक्स कर साथ पेश करते हैं।

​1950 के सालों से रबड़ी/ कुल्फी फलूदा

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उधर ज्ञानी गुरुचरण सिंह ने लायलपुर (अब पाकिस्तान) से आकर, 1951 में यहीं ठीहा लगाया और दिल्ली व देश में शुरू हुआ रबड़ी फलूदा का ठंडा सफर। उनकी सरहद पार भी ’ज्ञानी दी हट्टी’ नाम की हलवाई की दुकान थी। हालांकि दिल्ली को नई ठंडी स्वीट डिश खिलाने के लिए उन्होंने यहीं रबड़ी फलूदा को बनाया और खिलाया। शुरुआती दौर में, रबड़ी फलूदा का एक गिलास महज 4 आना (25 पैसे) का आता था।

आजादी से पहले कुल्फी के साथ भी फलूदा खाने का ट्रेंड नहीं था। लाहौर के अनारकली बाज़ार में कुल्फी फलूदा से धूम मचाने वाले रोशन लाल सोनी ने 1958 में करोल बाग से ऐसा चलन शुरू किया और ’रोशन दी कुल्फी’ का नाम रोशन होते देर नहीं लगी। यानी रबड़ी फलूदा के ’जन्म’ के करीब 7 साल बाद दिल्ली को कुल्फी फलूदा मिला। इससे पहले सीताराम बाज़ार के कूचा पाती राम में ’कूरेमल मोहन लाल कुल्फी वाले’ नाम का 1907 से ज़ारी दिल्ली का सबसे पुराना कुल्फी वाला भी बगैर फलूदा के कुल्फियां खिलाता था।

आज़ादी के बाद अंग्रेज़ों की ब्रेड भी हिंदुस्तानियों को भाने लगीं। इसी दौरान, 1948 में रघु दयाल के हाथों चाय-कॉफी के साथ बटर-टोस्ट और वेज सैंडविच से चावड़ी बाजार के रघुगंज में ’जैन कॉफी हाउस’ नाम की दुकान खोल कर पहचान बनाई। ब्रेड के स्नैक्स को पुरानी दिल्ली से साउथ दिल्ली और फिर पूरी दिल्ली में छाने में देर नहीं लगी। जंगपुरा में ‘नॉवल्टी स्टोर्स’ नामक कैफे से ब्रेड का जलवा बिखेरा 1954 से शान्ति स्वरूप ने अपने ओबरॉय होटल के अनुभव के बूते पर।

​आजादी से पहले जो खाती रही दिल्ली

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  • केक, पेस्ट्री और पैटीज: सी पी की बेकरी शॉप ‘वैंगर्स’ 1930 से पहले से कश्मीरी गेट से खिला रही है।
  • बेडमी-आलू: पहाड़ी धीरज में ‘कमल स्वीट्स’ बीते 100 साल से बना-परोस रही है।
  • गोलगप्पे: चांदनी चौक के ‘श्री बाला जी चाट भंडार’ के 1870 से पहले से जारी हैं चटकारे।
  • चाट-खोमचा: 1935 से इंडिया गेट पर ‘श्री प्रभु चाट भंडार’ का खोमचा लगता था, अब नजदीक ही शाहजहां रोड पर है।
  • नागौरी हलवा: चांदनी चौक का ‘शिव मिष्ठान भंडार’, चावड़ी बाज़ार का ‘श्याम स्वीट्स’ और खारी बावली का ‘मक्खन लाल’ आज़ादी से पहले से खिला रहा है।
  • रबड़ी-खुरचन: किनारी बाज़ार में ‘हज़ारी लाल जैन खुरचन वाले’ की तारीफ बीते सौ से ज्यादा साल से है।
  • अमृतसरी कुल्चा/ नान: फतेहपुरी में ‘काके दी हट्टी’ ने 1935 में ठीहे से कई स्टफिंग के नान बनाने-खिलाने के लिए तंदूर तपाया।
  • दही- भल्ला: चांदनी चौक में सेंट्रल बैंक के बाहर 1940 से है ‘नटराज कॉर्नर’ के दही-भल्लों का जलवा।
  • बंटा- लेमन: 1890 से 1900 के बीच ‘पंडित वेद प्रकाश लेमन वाले’ ने रिझाना शुरू किया।
  • जलेबी: साल 1884 से दरीबा कलां की ‘ओल्ड फेमस जलेबी वाला’ के चर्चे हैं।
  • फ्रूट चाट: 1900 से भुनी शकरकंदी और फ्रूट चाट खिला रहा है चावडी बाज़ार का ‘हीरा लाल चाट कॉर्नर’।
  • रसगुल्ले: 1929 से दिल्ली के मुंह में बंगाली मिठाइयों से मिठास घोल रहा है चांदनी चौक के फ़व्वारा चौक स्थित ‘अन्नपूर्णा भंडार’।
  • दाल बीजी और गुलाब जामुन: 1850 से चांदनी चौक में ‘कंवरजी’ हलवाई के गुलाब जामुन और दाल बीजी का नाम है।

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