लोकसभा चुनाव में वोटिंग के दो चरण व्यतीत हो चुके हैं और चुनाव गाथा में काफी कुछ घटित हो चुका है. दिल-ए-मायूस अब तक ये सोच रहा है कि इतने दिन तक नमो टीवी बिना किसी मालिक के और लाइसेंस के चल रही है, हेलिकॉप्टर की चेकिंग करने पर एक आईएएस का निलंबन, और फिर कभी बुर्का में वोट का भूत. इस चुनाव में असल में कोई आचार संहिता है भी या ये सिर्फ लाचार संहिता में बदल चुकी है.
वैसे भी अगर हम भारत के चुनाव को ‘द ग्रेट इंडियन डेमोक्रेटिक सर्कस’ का नाम दें तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी. कभी पता चलता है कि वोटिंग के लिए पुलवामा के शहीदों का नाम लिया जा रहा है तो कभी साध्वी प्रज्ञा के भाजपा में शामिल होने की खबरे भी सामने आती है. अब देश में चुनाव तो लगभग हर बरस होते ही रहतें हैं. कभी लोकसभा, कभी विधानसभा तो कभी नगर पंचायत. यानि की इस सर्कस का ठिकाना हमेशा बदलता रहता है लेकिन रुकता नही है.
खैर इसी के बीच में बजरंग बलि और अली की तुकबंदी भी हो गयी. सपा नेता आजम खान ने खाकी अंडरवियर की बात भी कर दी. इन सब के बीच चुनाव आयोग ने अपनी क्षमता के हिसाब से निलंबन और रोक लगाने का काम भी किया है, लेकिन ये सवाल भी जायज़ है कि क्या चुनाव आयोग की शक्तियां काफी हैं? क्या जितने संसाधन और ताकतें अभी चुनाव आयोग के पास हैं वो काफी हैं या फिर और शक्तियों की ज़रूरत है. खैर इस बात पर एक अच्छी-खासी बहस हो सकती है.
वैसे भी इस डिजिटल ज़माने में अंदाज़-ए-चुनाव प्रचार बहुत बदल चुका है, अब ऐसे समय पर चुनाव आयोग को भी इस प्रचार व्यस्था से बराबरी करनी पड़ेगी. अब जब सबके हाथो में फ़ोन हैं और सोशल मीडिया पर मैसेज भेजना आसान है तो इन सब पर लगाम लगाना बेहद मुश्किल काम है.
अब आचार संहिता को लागू करने में प्रत्याशियों का भी बेहद ज़रूरी योगदान होना आवश्यक है. देश में चुनाव है और रोज़ नयी-नयी दुर्लभ घटनाएं देखने को मिल रही हैं. आगे भी ऐसी ही दुर्लभता बनी रहे, इसकी कामना करना ही उचित होगा.