Deepawali 2022 : हुक्का-पाती परंपरा और बेटियों का घरौंदा, आखिर क्या है वैज्ञानिक महत्व, जानिए
बेगूसराय/औरंगाबाद : पूरे देश में दीपोत्सव की रौनक है। मां लक्ष्मी की आराधना की जा रही है। अलग-अलग हिस्सों में कई प्रथाएं भी हैं। बेगूसराय और उसके आसपास खासकर मिथिलांचल में हुक्का-पाती की परंपरा है तो कई जगहों पर लड़कियां घरौंदा सजाती हैं। हुक्का-पाती, घरौंदा के सामान और मिट्टी के दीये से बाजार भरा पड़ा है। ऐसी मान्यता है कि हुक्का-पाती पूजा से घर का दरिद्र बाहर जाता है और मां लक्ष्मी प्रवेश करती हैं। जबकि घरौंदा पूजा को लेकर लोगों का मानना है कि इसे घर का अन्न भंडार हमेशा भरा रहता है।
बेगूसराय और मिथिलांचल में हुक्का-पाती परंपरा
दीपावली के मौके पर बिहार के कुछ इलाकों में हुक्का-पाती की परंपरा है। खासकर बेगूसराय और उसके आसपास के क्षेत्रों में ज्यादा देखने को मिलता है। ये वर्षों पुरानी परंपरा है। मान्यता के अनुसार सनातन काल से ही दिवाली के दिन लक्ष्मी पूजा की जाती है। इसके बाद घर के मुखिया के अलावा बाकी सदस्य पूजास्थल पर घी के दीये से सनसनाठी की बनी हुई हुक्का-पाती को जलाते हैं। फिर घर के हरेक कोने में दिखाकर घर के बाहर रखकर जलती हुई सनसनाठी का पांच बार तर्पण करते हैं। सनसनाठी से पूजा के दौरान घर से दरिद्र को बाहर करनेवाला मंत्र भी दोहराया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस पूजा के दौरान घर के दरिद्रता को बाहर किया जाता है। लक्ष्मी को घर में प्रवेश कराया जाता है। बेगूसराय में हुक्का-पाती रिवाज के बिना दिवाली मनती ही नहीं है।
हुक्का-पाती परंपरा का वैज्ञानिक महत्व समझिए
हुक्का-पाती पटसन के पौधे से सन निकालने के बाद बची हुई लकड़ी और उसके रस्सी से बनाया जाता है। हालांकि बेगूसराय जिले के मार्केट की बात की जाय तो स्थानीय कारोबारी राजकुमार राय ने बताया कि 500 रुपए में एक बोझ पटसन किसानों से खरीदकर हुक्का-पाती बनाकर 20-50 रूपए में बेची जाती है। हुक्का-पाती का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्रोफेसर बिपिन कुमार के मुताबिक पटसन बरसात के बाद तैयार एक हल्की लकड़ी होती है। जो जलने में आसान होती है। सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से भी सही है। इसके जलने से कार्बन डाईऑक्साइड कम निकलता है। घर में इसके घुमाने से बरसात के दौरान कीट-पतंग जो घर में आ जाते हैं तो वे सारे जलकर खत्म हो जाते हैं। दीपावली में साफ-सफाई की जो महत्व है, उसमें और सपोर्ट करता है।
दिवाली पर घरौंदे पूजा का भी कम महत्व नहीं
दिवाली के मौके पर एक और पूजा होती है। इसे घरौंदा कहा जाता है। इस पर्व का उल्लास तब दोगुना हो जाता है, जब घर में बेटियां घरौंदे की पूजा करती हैं। इस दौरान बेटियां लकड़ी या फिर मिट्टी के बने घर को सजाती हैं और उसमें गृहस्थ जीवन की सामग्रियों को भरकर पूरे परिवार के समृद्धि और खुशहाली की कामना करतीं हैं। देश के दूसरे बाजारों की तरह औरंगाबाद में बेटियों के गृह पूजन किए जाने की सारी सामग्रियां उपलब्ध है। इनमें सिर पर दीप लिए हुए महिलाओं की आकृति बनी रहती है। उसी दीप को जलाकर घरौंदे की पूजा की जाती है। मिट्टी के दीपक के साथ-साथ मिट्टी के जाता, मिट्टी की कड़ाही और मिट्टी के बर्तन की खूब बिक्री होती है। इतना ही नहीं घरौंदे को भरने के लिए फरही, धान का लावा और कई अन्य सामग्रियों से बाजार भरा पड़ा है। ऐसी मान्यता है कि घरौंदे की पूजा से घर का अन्न भंडार हमेशा भरा रहता है।
इनपुट- बेगूसराय से संदीप और औरंगाबाद से आकाश
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दीपावली के मौके पर बिहार के कुछ इलाकों में हुक्का-पाती की परंपरा है। खासकर बेगूसराय और उसके आसपास के क्षेत्रों में ज्यादा देखने को मिलता है। ये वर्षों पुरानी परंपरा है। मान्यता के अनुसार सनातन काल से ही दिवाली के दिन लक्ष्मी पूजा की जाती है। इसके बाद घर के मुखिया के अलावा बाकी सदस्य पूजास्थल पर घी के दीये से सनसनाठी की बनी हुई हुक्का-पाती को जलाते हैं। फिर घर के हरेक कोने में दिखाकर घर के बाहर रखकर जलती हुई सनसनाठी का पांच बार तर्पण करते हैं। सनसनाठी से पूजा के दौरान घर से दरिद्र को बाहर करनेवाला मंत्र भी दोहराया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस पूजा के दौरान घर के दरिद्रता को बाहर किया जाता है। लक्ष्मी को घर में प्रवेश कराया जाता है। बेगूसराय में हुक्का-पाती रिवाज के बिना दिवाली मनती ही नहीं है।
हुक्का-पाती परंपरा का वैज्ञानिक महत्व समझिए
हुक्का-पाती पटसन के पौधे से सन निकालने के बाद बची हुई लकड़ी और उसके रस्सी से बनाया जाता है। हालांकि बेगूसराय जिले के मार्केट की बात की जाय तो स्थानीय कारोबारी राजकुमार राय ने बताया कि 500 रुपए में एक बोझ पटसन किसानों से खरीदकर हुक्का-पाती बनाकर 20-50 रूपए में बेची जाती है। हुक्का-पाती का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्रोफेसर बिपिन कुमार के मुताबिक पटसन बरसात के बाद तैयार एक हल्की लकड़ी होती है। जो जलने में आसान होती है। सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से भी सही है। इसके जलने से कार्बन डाईऑक्साइड कम निकलता है। घर में इसके घुमाने से बरसात के दौरान कीट-पतंग जो घर में आ जाते हैं तो वे सारे जलकर खत्म हो जाते हैं। दीपावली में साफ-सफाई की जो महत्व है, उसमें और सपोर्ट करता है।
दिवाली पर घरौंदे पूजा का भी कम महत्व नहीं
दिवाली के मौके पर एक और पूजा होती है। इसे घरौंदा कहा जाता है। इस पर्व का उल्लास तब दोगुना हो जाता है, जब घर में बेटियां घरौंदे की पूजा करती हैं। इस दौरान बेटियां लकड़ी या फिर मिट्टी के बने घर को सजाती हैं और उसमें गृहस्थ जीवन की सामग्रियों को भरकर पूरे परिवार के समृद्धि और खुशहाली की कामना करतीं हैं। देश के दूसरे बाजारों की तरह औरंगाबाद में बेटियों के गृह पूजन किए जाने की सारी सामग्रियां उपलब्ध है। इनमें सिर पर दीप लिए हुए महिलाओं की आकृति बनी रहती है। उसी दीप को जलाकर घरौंदे की पूजा की जाती है। मिट्टी के दीपक के साथ-साथ मिट्टी के जाता, मिट्टी की कड़ाही और मिट्टी के बर्तन की खूब बिक्री होती है। इतना ही नहीं घरौंदे को भरने के लिए फरही, धान का लावा और कई अन्य सामग्रियों से बाजार भरा पड़ा है। ऐसी मान्यता है कि घरौंदे की पूजा से घर का अन्न भंडार हमेशा भरा रहता है।
इनपुट- बेगूसराय से संदीप और औरंगाबाद से आकाश