Bihar Politics: लालू को शरद यादव ने शिखर तक पहुंचाया, फिर लालू ने क्यों तोड़ दी शरद की पार्टी ? पूरी कहानी पढ़ें

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Bihar Politics: लालू को शरद यादव ने शिखर तक पहुंचाया, फिर लालू ने क्यों तोड़ दी शरद की पार्टी ? पूरी कहानी पढ़ें

Bihar Politics: लालू को शरद यादव ने शिखर तक पहुंचाया, फिर लालू ने क्यों तोड़ दी शरद की पार्टी ? पूरी कहानी पढ़ें


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देश की राजनीति में अपनी अलग धाक स्थापित करने वाले समाजवादी नेता शरद यादव ऐसे राजनेता थे कि जब जिनके साथ रहे, पूरी मजबूती से अडिग होकर रहे। चाहे लालू प्रसाद हों या नीतीश कुमार हों। देवी लाल हों या कोई अन्य समाजवादी नेता। शरद जी ने साथ दिया तो लालू प्रसाद को सत्ता पर बिठाया। वहीं नाराज हुए तो लालू प्रसाद को गद्दी से हटाने में भी अहम भूमिका निभाई। बिहार की राजनीति को समझने वाले यह बखूबी जानते हैं कि शरद यादव के प्रयासों से ही लालू प्रसाद बिहार की सत्ता के शीर्ष पर पहुंच पाए थे। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद उन्होंने लालू प्रसाद को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनवाया। फिर 1990 के आम चुनाव में कांग्रेस के पराजय के बाद खंडित जनादेश के बीच लालू को मुख्यमंत्री बनाने के लिए भी मैदान सजाया। उस समय के जनता दल के दो और उम्मीदवार रामसुंदर दास व रघुनाथ झा को मात मिली। 

बिहार में जब लालू प्रसाद का कद और केंद्र की राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ा, तो शरद की सियासत हाशिये पर जाने लगी। इस कारण दोनों के बीच तनातनी बढ़ने लगी। इसी बीच लालू ने 1997 में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नाम से अलग पार्टी बना ली। तब लालू जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। केंद्र में जनता दल के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा की सरकार थी। आईके गुजराल प्रधानमंत्री थे। पार्टी में लालू के एकाधिकार से शरद को परेशानी हो रही थी, जिसके बाद उन्होंने रंजन यादव को साथ लेकर लालू को अध्यक्ष पद से हटाने की तैयारी कर ली थी। जबकि लालू प्रसाद को दोबारा चुने जाने का भरोसा था। लेकिन शरद ने दूसरे प्रदेशों के बड़ी संख्या में अपने समर्थित सदस्यों को राष्ट्रीय परिषद में जोड़ लिया और लालू को हटाने की तैयारी कर ली। लालू जब दिल्ली पहुंचे तो उन्हें लगा कि शरद के रहते वह चुनाव नहीं जीत सकते हैं। फिर भी उन्होंने नामांकन कर दिया। शरद को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने नामांकन वापसी के लिए दबाव बनाया तो लालू ने जनता दल को तोड़कर अपना रास्ता अलग कर लिया। 

इसके बाद शरद यादव की राजनीति बिहार में और तेज हुई। लालू प्रसाद के अलग होने पर शरद यादव जार्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार के साथ हो लिये। समता पार्टी के साथ जनता दल का विलय हुआ और जदयू बना। फिर राजनीति में इन तीनों की जोड़ी बेहद हिट रही। वे संरक्षक तथा मेंटर की भूमिका में रहे। इस तिकड़ी ने भाजपा के साथ मिलकर बिहार में लालू प्रसाद का जनाधार को जदयू तथा एनडीए गठबंधन की ओर शिफ्ट कराया। नीतीश कुमार ने जब 2005 में बिहार के शासन की बागडोर संभाली तो शरद यादव की भी भूमिका इसमें महत्वपूर्ण होकर सामने आयी। दिसंबर, 2006 में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। लगभग दस साल अप्रैल, 2016 तक जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। उनके कद का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के वे राष्ट्रीय संयोजक रहे।

कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोल कर सुर्खियों में आए शरद यादव ने 1999 में बिहार के मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र से लालू यादव को शिकस्त दी तो देश भर में उसकी चर्चा हुई। साल 2013 में नीतीश कुमार ने जब बीजेपी के साथ संबंध तोड़ने का फैसला लिया, तो शरद यादव इसको लेकर आशंकित दिखे। इसी बीच 2015 में शरद यादव और नीतीश कुमार ने अहम फैसला लिया और लालू यादव संग महागठबंधन में आ गए। बिहार में महागठबंधन की सरकार बनी।

बाद में जब 2017 में नीतीश कुमार ने महागठबंधन सरकार से अलग होने का निर्णय लिया तो शरद यादव इससे भी सहमत नहीं हुए। इस कारण शरद यादव को राज्यसभा की सदस्यता भी गंवानी पड़ी। उन्होंने अपनी पार्टी बनाई लेकिन इसके बाद वे अस्वस्थ हो गए और उनकी राजनीतिक गतिविधियां भी शिथिल पड़ती चली गईं। हालांकि इस दौरान वे खुद राजद से जुड़े रहे तो पुत्री सुभाषिणी को कांग्रेस से जोड़ा। 2019 के चुनाव में हार के बाद तो वे मानो टूट से गये थे। लेकिन उनकी विचारधारा की उर्वरता तथा तेज बीच-बीच में तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर ट्विट के माध्यम से देश के सामने आती रही। 5 जनवरी को उन्होंने निकाय चुनाव में आरक्षण को लेकर इलाहाबाद कोर्ट के फैसले पर अपना मत रखा था और इसका स्वागत किया था। 

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