Azamagarh Rampur by election: आजमगढ़ और रामपुर का रण: यूपी उपचुनाव से हटकर क्या कांग्रेस ने अपना नुकसान किया है? h3>
लखनऊ: कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में रामपुर और आजमगढ़ उपचुनाव (UP lok sabha by election) में नहीं उतरने का फैसला किया था। इस फैसले के पहले ही आजमगढ़ और रामपुर दोनों जगहों पर कांग्रेस से चुनाव लड़ने की मंशा रखने वालों ने पर्चे खरीद लिए थे। लेकिन फैसला आते ही, रामपुर के नवाब काजिम अली खान ने साफ कर दिया कि वह किसी भी सूरत में आजम खान (azam khan news) के किसी उम्मीदवार (एसपी के प्रत्याशी) का समर्थन नहीं करेंगे। यानी, वह और उनके समर्थक आजम के विरोध में बीजेपी को मतदान करेंगे।
आजमगढ़ में ऐलानिया तो विरोध के स्वर नहीं उभरे, लेकिन माना जा रहा है, कांग्रेस के लोग एसपी का विकल्प चुनेंगे। लेकिन क्या वोटर दोबारा लौटकर कांग्रेस के खेमे में आएगा? संगठन की जिस मशीनरी को चलायमान करने के लिए विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कमोबेश सभी सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे, क्या वह फिर निष्क्रिय नहीं हो जाएगी? इन दोनों सवालों का जवाब इसी ओर इशारा करता है कि वजह कुछ भी रही हो, कांग्रेस ने मैदान छोड़कर अपना नुकसान ही किया है।
पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री के पोते विभाकर शास्त्री ने उपचुनाव से हटने के कांग्रेस के तर्क पर जिस तरह से यह कहते हुए सवाल खड़े किए हैं, ‘क्या पिछले 5 सालों से संगठन नहीं था? तो क्या बिना संगठन के चुनाव लड़ा गया था?
गठबंधन ने सीमित किया दायरा
पार्टी के ज्यादातर जानकार मानते रहे हैं कि कांग्रेस 1989 के बाद से लगातार गठबंधन में ही राजनीति करती रही। इससे नुकसान यह हुआ कि कांग्रेस का दायरा ही सीमित होता गया। कांग्रेस के झंडे अलग-अलग जगहों से गायब होते रहे। कार्यकर्ता जो गठबंधन में एक बार दूसरे दल से जुड़े, वे वहीं के होकर रह गए। मजबूरी में दूसरे दल के वोटर बने लोगों को भी नई पार्टी का मिजाज भाने लगा।
विधानसभा चुनाव 2022 में जब कांग्रेस ने बिना किसी गठबंधन के चुनाव लड़ा तो भले ही आकलन इस बात का हो रहा हो कि पार्टी को कितने वोट मिले, लेकिन यह 1989 के बाद से पहला मौका था कि कांग्रेस का संगठन, भले ही बेहद कमजोर रहा हो, वह हर विधानसभा क्षेत्र में दिखाई दिया। झंडे कमोबेश हर विधानसभा क्षेत्र में लगे। कम ही संख्या में सही, पार्टी के लोग अपने दल के लिए वोट मांगने निकले। लेकिन यह कोशिश उपचुनाव में मैदान छोड़ने से एक बार फिर थम गई।
प्रदेश कांग्रेस के एक पूर्व पदाधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि क्या दिक्कत थी किसी को चुनाव मैदान में खड़ा करने पर। लोग खुद तैयार थे। प्रत्याशी उतारे जाते तो कार्यकर्ताओं, नेताओं आदि के पास राजनीतिक कार्यक्रम होते और वोटरों के पास अपनी पार्टी को वोट करने का विकल्प। राजनीतिक दल लगातार कार्यक्रम और चुनाव लड़कर ही आगे बढ़ते हैं। वे उस वक्त तक इंतजार करें कि पहले हम मजबूत हो जाएं और तब चुनाव लड़ेंगे तो उनका वोटर कहां से उनके लिए आगे आएगा? वह तो दूसरा राजनीतिक दल थाम ही लेगा, आखिरकार उसे वोट तो करना ही है।
एक और राजनीतिक परिवार खोने का खतरा!
रामपुर की सियासत में आजम खान और नूर महल दो अलग-अलग ध्रुव हैं। दोनों की सियासत एक दूसरे के विरोध के साथ ही शुरू हुई और अब भी उसी राह पर बढ़ रही है। अब जबकि कांग्रेस ने फैसला कर लिया कि वह चुनाव में नहीं उतरेगी तो काजिम ने भी ऐलान कर दिया कि वह बीजेपी को वोट देंगे। जाहिर है कि कांग्रेस इसे पसंद नहीं करेगी। ऐसे में काफी हद तक संभव है कि वह काजिम को पार्टी विरोधी गतिविधियों में निकाल दे, जिसकी आशंका काजिम खुद भी जता चुके हैं।
फैसले पर सवाल
अगर ऐसा होता है तो चेहरों की कमी से जूझती कांग्रेस के लिए एक और कद्दावर राजनीतिक परिवार खोना पड़ेगा। काजिम कहते हैं कि संगठन की कमजोरी चुनाव न लड़ने का कोई कारण नहीं हो सकती। अगर यह वजह थी तो विधानसभा चुनाव में संगठन क्या बेहद मजबूत था? क्या तब भी चुनाव छोड़ देना था? वह तो फैसले पर यह भी सवाल उठाते हैं कि गलत रिपोर्ट पेश की गई यहां को लेकर, जिसकी वजह से चुनाव से हटने का फैसला हुआ। हालांकि प्रदेश कांग्रेस के मीडिया डिपार्टमेंट के उपाध्यक्ष पंकज श्रीवास्तव पार्टी का बचाव करते हुए कहते हैं, कभी-कभी बड़ी लड़ाई के लिए कई मोर्चों पर सेनाएं कुछ कदम पीछे हटती हैं। इसे उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
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पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री के पोते विभाकर शास्त्री ने उपचुनाव से हटने के कांग्रेस के तर्क पर जिस तरह से यह कहते हुए सवाल खड़े किए हैं, ‘क्या पिछले 5 सालों से संगठन नहीं था? तो क्या बिना संगठन के चुनाव लड़ा गया था?
गठबंधन ने सीमित किया दायरा
पार्टी के ज्यादातर जानकार मानते रहे हैं कि कांग्रेस 1989 के बाद से लगातार गठबंधन में ही राजनीति करती रही। इससे नुकसान यह हुआ कि कांग्रेस का दायरा ही सीमित होता गया। कांग्रेस के झंडे अलग-अलग जगहों से गायब होते रहे। कार्यकर्ता जो गठबंधन में एक बार दूसरे दल से जुड़े, वे वहीं के होकर रह गए। मजबूरी में दूसरे दल के वोटर बने लोगों को भी नई पार्टी का मिजाज भाने लगा।
विधानसभा चुनाव 2022 में जब कांग्रेस ने बिना किसी गठबंधन के चुनाव लड़ा तो भले ही आकलन इस बात का हो रहा हो कि पार्टी को कितने वोट मिले, लेकिन यह 1989 के बाद से पहला मौका था कि कांग्रेस का संगठन, भले ही बेहद कमजोर रहा हो, वह हर विधानसभा क्षेत्र में दिखाई दिया। झंडे कमोबेश हर विधानसभा क्षेत्र में लगे। कम ही संख्या में सही, पार्टी के लोग अपने दल के लिए वोट मांगने निकले। लेकिन यह कोशिश उपचुनाव में मैदान छोड़ने से एक बार फिर थम गई।
प्रदेश कांग्रेस के एक पूर्व पदाधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि क्या दिक्कत थी किसी को चुनाव मैदान में खड़ा करने पर। लोग खुद तैयार थे। प्रत्याशी उतारे जाते तो कार्यकर्ताओं, नेताओं आदि के पास राजनीतिक कार्यक्रम होते और वोटरों के पास अपनी पार्टी को वोट करने का विकल्प। राजनीतिक दल लगातार कार्यक्रम और चुनाव लड़कर ही आगे बढ़ते हैं। वे उस वक्त तक इंतजार करें कि पहले हम मजबूत हो जाएं और तब चुनाव लड़ेंगे तो उनका वोटर कहां से उनके लिए आगे आएगा? वह तो दूसरा राजनीतिक दल थाम ही लेगा, आखिरकार उसे वोट तो करना ही है।
एक और राजनीतिक परिवार खोने का खतरा!
रामपुर की सियासत में आजम खान और नूर महल दो अलग-अलग ध्रुव हैं। दोनों की सियासत एक दूसरे के विरोध के साथ ही शुरू हुई और अब भी उसी राह पर बढ़ रही है। अब जबकि कांग्रेस ने फैसला कर लिया कि वह चुनाव में नहीं उतरेगी तो काजिम ने भी ऐलान कर दिया कि वह बीजेपी को वोट देंगे। जाहिर है कि कांग्रेस इसे पसंद नहीं करेगी। ऐसे में काफी हद तक संभव है कि वह काजिम को पार्टी विरोधी गतिविधियों में निकाल दे, जिसकी आशंका काजिम खुद भी जता चुके हैं।
फैसले पर सवाल
अगर ऐसा होता है तो चेहरों की कमी से जूझती कांग्रेस के लिए एक और कद्दावर राजनीतिक परिवार खोना पड़ेगा। काजिम कहते हैं कि संगठन की कमजोरी चुनाव न लड़ने का कोई कारण नहीं हो सकती। अगर यह वजह थी तो विधानसभा चुनाव में संगठन क्या बेहद मजबूत था? क्या तब भी चुनाव छोड़ देना था? वह तो फैसले पर यह भी सवाल उठाते हैं कि गलत रिपोर्ट पेश की गई यहां को लेकर, जिसकी वजह से चुनाव से हटने का फैसला हुआ। हालांकि प्रदेश कांग्रेस के मीडिया डिपार्टमेंट के उपाध्यक्ष पंकज श्रीवास्तव पार्टी का बचाव करते हुए कहते हैं, कभी-कभी बड़ी लड़ाई के लिए कई मोर्चों पर सेनाएं कुछ कदम पीछे हटती हैं। इसे उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
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