हमेशा की तरह।

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As always
हमेशा की तरह ।

हमेशा की तरह सवेरा हुआ, अलार्म बज उठा मगर चादर की सिलवटों में लिपटी हुई, सुबह की मीठी ठंड में सिकुड़ती हुई सी नींद मानो आज खुलना ही नहीं चाहती थी । दिल दिमाग इससे पहले की सक्रिय होते और मेरी मासूम उम्मीदों और सपनो को जिंदगी के मसलो की तरफ धकेलते मैंने चादर से खुद को ढका और करवट ले कर सुबह की मीठी ठंड के एहसास के साथ आँखें फिर से मूँद ली । ये हलकी ठंड की नरम सी नींद ज्यादा देर चलती कहाँ है !
दिल और दिमाग की जदोजहद दिन शुरू होते ही शुरू हो गई। ‘छुट्टी का दिन होते हुए भी आज आराम नहीं मिल सकता क्या ?’ दिल ने जरा तानाशाही अंदाज़ में कहा । कम भावुक व्यवहारिक दिमाग ने थोड़ा सा तिलमिला कर चुप रहने और जाग जाने को कहा । शांत कमरे में बाहर से आ रहे हल्के शोर और कमरे में लगी घड़ी की सुइयों की टिक-टिक को रोक देने की वो चाह आज हारना नहीं चाहती थी जैसे । और शायद मैं भी कहीं न कहीं ये लड़ाई को रोकना नहीं चाहती थी, इस गुजरते वक़्त में मुझे थोड़ा और सोने को जो मिल रहा था । आज कुछ तो अलग था, कुछ अलग ही जंग दिल और दिमाग की, देखना ये था कि आज कौन अव्वल आने वाला था । मैंने उस वक़्त भागती हुई घड़ी की सुइयों की गति को पकड़ने के लिए दिमाग का साथ दिया और बिस्तर से उठ खड़ी हुई ।

सही गलत की बात जब हो वहां फैसला लेना इतना मुश्किल नहीं होता जितना की तब जब दोनों ही पक्ष गलत ना हो । दिमाग अपने स्तर पर सही था और दिल अपनी जगह ठीक । मगर आज दिल जिद्द पर था शायद ! हो भी क्यों ना, पिछले तीन दिन से आराम के कुछ पल चुराने की साजिशे जो नाकाम हुए जा रही थी । नाकामी से झुँझलायें हुए मन ने मानो आज दिमाग की न चलने देने की ठान रखी थी ।

हर बार की तरह मेरी आदत भी आदत से मजबूर दिल को समझाने की, दिल को समझाना चाहा ” फायदा दिमाग की बात मानने में ही है” । एक बड़ा ही भावुक, नरम सवाल दिल ने किया “क्या खुद की कोई जिंदगी नहीं तेरी ?” तो काम भी तो खुद के लिए ही कर रही है ना, फायदा भी तो तेरा ही है’ बिना झिझक दिमाग ने पलटवार किया । भावनाओ और उम्मीदों के सागर में डूबा मन उदास सा हुआ । उसको समझ आने लगा आज भी हार का सामना होगा, आज भी उसकी नहीं चलेगी । मन ने फिर एक सवाल किया “क्या सच में ये सब मैं सिर्फ अपने लिए कर रही हूँ?”
इस बार दिमाग के पास जवाब नहीं था, कुछ पल कमरे और मेरे अंदर सब शांत सा हो गया । हिम्मत जुटा कर, जिंदगी की सचाइयों और जरूरतों से वाकिफ कराते हुए दिमाग ने कहीं ना कहीं थोड़ा दयनीय भाव से मन का साथ दिया । मन ने भी हर बार की तरह अपनी लालसाओं को दफ़न कर दिमाग के बढ़े हाथ को थामा। इस लड़ाई के चलते-चलते मैं तैयार हुई और कमरे की बत्ती बुझा, ताला लगा कर काम पर निकल गई।
दिमाग और दिल दोनों की जीत खुद को कहीं हार कर हो गई। दिल ने हमेशा हारना ही सीखा है और देखा जाएँ तो आज भी जीता तो दिमाग ही हमेशा की तरह ।