Akhilesh Yadav: UP में सत्ता की उम्मीदें शेष, इसलिए विधानसभा में दिखेंगे अखिलेश…जानिए सांसदी से इस्तीफे की बड़ी वजह h3>
लखनऊ : अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के लोकसभा से इस्तीफा देने की खबर आने के बाद समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) महिला मोर्चा की अध्यक्ष जूही सिंह ने ट्वीट किया ‘राष्ट्रीय अध्यक्ष जी यूपी विधानसभा में हमारा सशक्त नेतृत्व करेंगे।’ दरअसल, हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Election 2022) में सत्ता की टूटी उम्मीदों के बाद पार्टी के प्रासंगिक बने रहने के लिए सक्रिय व सशक्त नेतृत्व बुनियादी शर्त बन गई है। पार्टी को उम्मीद है कि विधानसभा में रहकर अखिलेश सरकार से सीधे मुखातिब होंगे तो कार्यकर्ताओं के हौसले भी मजबूत होंगे और जनता में पैठ के जरिए सत्ता की शेष रहीं उम्मीदों को बनाए और बढ़ाए रखना भी आसान होगा।
अखिलेश जिस करहल विधानसभा सीट से जीते हैं, वह उनके पिता मुलायम सिंह यादव की मैनपुरी लोकसभा सीट का हिस्सा है। यह जिला सपा का गढ़ माना जाता है, लेकिन, इस बार यहां की चार में दो सीटें भाजपा जीती है। जिस आजमगढ़ से अखिलेश यादव सांसद थे, उस जिले की सभी 10 विधानसभा सीटों पर सपा ने कब्जा किया। यही वजह है कि इस्तीफा देने से पहले करहल और आजमगढ़ दोनों की ही उम्मीदों को अखिलेश ने परखा। होली में सैफई के दौरे के दौरान अखिलेश ने करहल के पार्टी कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों से बातचीत की। इसके बाद सोमवार को वह आजमगढ़ गए। वहां पार्टी के विधायकों व प्रमुख कार्यकर्ताओं से बातचीत की और उनकी ओर से आश्वस्त होने के बाद विधानसभा में बने रहने का फैसला किया।
दिल्ली का रास्ता लखनऊ से जाता है!
राजनीति की यह सबसे चर्चित कहावत है कि ‘दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है।’ ट्विटर पर अपने बायो में ‘सोशलिस्ट लीडर ऑफ इंडिया’ लिखने वाले अखिलेश भी इस सच को बखूबी जानते हैं कि यूपी में सपा की सड़क बची रहेगी, तभी दिल्ली के रास्ते पर चलना, पहुंचना और वहां असर बनाए रखना संभव होगा। चुनाव दर चुनाव संसद में सपा की हिस्सेदारी घटती ही जा रही है। सांसद के तौर पर भी अखिलेश यादव की संसद में उपस्थिति और सक्रियता बहुत कम रही है। वहां, उनके उठाए गए मुद्दे भी यूपी से जुड़े रहे।
निष्क्रियता का लगता रहा है आरोप
अखिलेश विपक्ष के चेहरे के तौर पर सबसे बड़ा आरोप ‘निष्क्रियता’ का झेलते रहे। 2010-11 में समाजवादी साइकल यात्रा के जरिए माहौल बनाकर सत्ता में आए अखिलेश 2017 में जब सत्ता से बाहर हुए तो सड़क से कटते नजर आए। गठबंधन के विफल प्रयोगों के बीच जनता के मुद्दों पर सड़क पर उनकी मौजूदगी प्रतीकात्मक रही। उनके ‘निर्देशों’ पर प्रतिनिधिमंडल के आने-जाने की औपचारिकताएं जरूर बनी रहीं। लखीमपुर कांड के बाद जरूर अखिलेश सड़क पर उतरे और हिरासत में लिए गए, लेकिन मुलायम सिंह की अगुआई में विपक्ष में रहते हुए जिस संघर्ष के लिए सपा जानी जाती थी, वह जज्बा गायब दिखा।
पिता-चाचा रह चुके हैं नेता प्रतिपक्ष
पार्टी को उम्मीद है कि 22 की आजमाइश से मिले सबक के बाद अखिलेश पुरानी भूमिका में आ सकते हैं। सदन से सड़क तक अपनी मौजूदगी बढ़ाकर 2024 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2027 के विधानसभा चुनाव तक की तैयारी सहज होगी। अखिलेश के पिता मुलायम और चाचा शिवपाल भी नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभा चुके हैं।
ताकि बना रहे वोट और सपोर्ट
सपा सत्ता में भले न आ सकी हो, लेकिन पार्टी ने अब तक का सर्वाधिक वोट शेयर हासिल किया है। कोर वोटर पूरी ताकत के साथ जुटा रहा। विधानसभा के नतीजों को अगर लोकसभा के हिसाब से देखें तो 23 लोकसभा सीटों पर सपा की बढ़त है। वेस्ट यूपी से लेकर पूर्वांचल तक कई जिलों में पार्टी का प्रदर्शन काफी बेहतर हुआ है। वोटर व सपोर्टर का यह साथ बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सपा उनके मुद्दों पर जमीनी संघर्ष करती दिखे। लोकसभा, राज्यसभा से लेकर विधानपरिषद तक पार्टी की भागीदारी घट रही है। हालांकि, इस बार विधानसभा में पिछली की मुकाबले सपा के दोगुने से अधिक विधायक हैं।
अखिलेश खुद उनकी अगुआई करेंगे तो पार्टी के कोर वोटर्स की भी उम्मीद बनी रहेगी और वे नए विकल्प नहीं तलाशेगा। गठबंधन व पार्टी में सेंधमारी की आशंकाएं भी कमजोर होंगी। अखिलेश की सक्रियता नीचे तक संगठन को भी सक्रिय करेगा। कांग्रेस की पस्त जमीन व बसपा के खाली स्पेस के बीच अगर अखिलेश जमीन पर पसीना बहाते दिखेंगे तो उनके लिए विस्तार की संभावनाएं भी और मजबूत होंगी।
दिल्ली का रास्ता लखनऊ से जाता है!
राजनीति की यह सबसे चर्चित कहावत है कि ‘दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है।’ ट्विटर पर अपने बायो में ‘सोशलिस्ट लीडर ऑफ इंडिया’ लिखने वाले अखिलेश भी इस सच को बखूबी जानते हैं कि यूपी में सपा की सड़क बची रहेगी, तभी दिल्ली के रास्ते पर चलना, पहुंचना और वहां असर बनाए रखना संभव होगा। चुनाव दर चुनाव संसद में सपा की हिस्सेदारी घटती ही जा रही है। सांसद के तौर पर भी अखिलेश यादव की संसद में उपस्थिति और सक्रियता बहुत कम रही है। वहां, उनके उठाए गए मुद्दे भी यूपी से जुड़े रहे।
निष्क्रियता का लगता रहा है आरोप
अखिलेश विपक्ष के चेहरे के तौर पर सबसे बड़ा आरोप ‘निष्क्रियता’ का झेलते रहे। 2010-11 में समाजवादी साइकल यात्रा के जरिए माहौल बनाकर सत्ता में आए अखिलेश 2017 में जब सत्ता से बाहर हुए तो सड़क से कटते नजर आए। गठबंधन के विफल प्रयोगों के बीच जनता के मुद्दों पर सड़क पर उनकी मौजूदगी प्रतीकात्मक रही। उनके ‘निर्देशों’ पर प्रतिनिधिमंडल के आने-जाने की औपचारिकताएं जरूर बनी रहीं। लखीमपुर कांड के बाद जरूर अखिलेश सड़क पर उतरे और हिरासत में लिए गए, लेकिन मुलायम सिंह की अगुआई में विपक्ष में रहते हुए जिस संघर्ष के लिए सपा जानी जाती थी, वह जज्बा गायब दिखा।
पिता-चाचा रह चुके हैं नेता प्रतिपक्ष
पार्टी को उम्मीद है कि 22 की आजमाइश से मिले सबक के बाद अखिलेश पुरानी भूमिका में आ सकते हैं। सदन से सड़क तक अपनी मौजूदगी बढ़ाकर 2024 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2027 के विधानसभा चुनाव तक की तैयारी सहज होगी। अखिलेश के पिता मुलायम और चाचा शिवपाल भी नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभा चुके हैं।
ताकि बना रहे वोट और सपोर्ट
सपा सत्ता में भले न आ सकी हो, लेकिन पार्टी ने अब तक का सर्वाधिक वोट शेयर हासिल किया है। कोर वोटर पूरी ताकत के साथ जुटा रहा। विधानसभा के नतीजों को अगर लोकसभा के हिसाब से देखें तो 23 लोकसभा सीटों पर सपा की बढ़त है। वेस्ट यूपी से लेकर पूर्वांचल तक कई जिलों में पार्टी का प्रदर्शन काफी बेहतर हुआ है। वोटर व सपोर्टर का यह साथ बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सपा उनके मुद्दों पर जमीनी संघर्ष करती दिखे। लोकसभा, राज्यसभा से लेकर विधानपरिषद तक पार्टी की भागीदारी घट रही है। हालांकि, इस बार विधानसभा में पिछली की मुकाबले सपा के दोगुने से अधिक विधायक हैं।
अखिलेश खुद उनकी अगुआई करेंगे तो पार्टी के कोर वोटर्स की भी उम्मीद बनी रहेगी और वे नए विकल्प नहीं तलाशेगा। गठबंधन व पार्टी में सेंधमारी की आशंकाएं भी कमजोर होंगी। अखिलेश की सक्रियता नीचे तक संगठन को भी सक्रिय करेगा। कांग्रेस की पस्त जमीन व बसपा के खाली स्पेस के बीच अगर अखिलेश जमीन पर पसीना बहाते दिखेंगे तो उनके लिए विस्तार की संभावनाएं भी और मजबूत होंगी।