41 सालों में तीन बार बदला गया नाम, व्यापमं के चरित्र में फिर भी नहीं हुआ बदलाव

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41 सालों में तीन बार बदला गया नाम, व्यापमं के चरित्र में फिर भी नहीं हुआ बदलाव

41 सालों में तीन बार बदला गया नाम, व्यापमं के चरित्र में फिर भी नहीं हुआ बदलाव

भोपाल: अक्सर कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है। आप तो काम देखो। काम से ही पहचान बनती है। फिर वो चाहे व्यक्ति हो या कोई संस्था। इन दिनों एमपी में एक ऐसा उदाहरण देखने को मिल रहा है जो यह साबित कर रहा है कि नाम चाहे जो रख लो पर काम नहीं बदलेगा। आप सही समझे। मैं व्यापमं (व्यवसायिक परीक्षा मंडल) से कचबो (कर्मचारी चयन बोर्ड) तक सफर कर चुके सरकारी संस्थान की ही बात कर रहा हूं। पिछले एक दशक से अपने “कुकर्मों” की वजह से पूरी दुनिया में चर्चित इस संस्थान के नाम तो बदल रहे हैं पर चरित्र जस का तस है। दस साल पहले मेडिकल भर्ती परीक्षा में बड़े घोटाले की वजह से चर्चा में आया यह संस्थान अब पटवारी भर्ती में घोटाले को लेकर चर्चा में है। इसकी वजह से सरकार बैकफुट पर आ गई। मजे की बात यह है कि इस बार भी घोटाले के तार सत्तारूढ़ दल से ही जुड़े हैं।

पटवारी भर्ती घोटाले पर बात करने से पहले एक नजर इस संस्थान पर डालते हैं। 1970 की बात है। तब पंडित श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री थे। उन्होंने मेडिकल कॉलेजों में भर्ती के लिए होने वाली परीक्षाओं को कराने के लिए एक बोर्ड बनाया। नाम रखा गया प्री मेडिकल टेस्ट बोर्ड। यह नाम करीब 12 साल तक चला। लगभग एक दशक बाद 1981 में इसी तरह का एक बोर्ड इंजीनियरिंग परीक्षा के लिए बनाया गया। उस समय अर्जुन सिंह राज्य के मुख्यमंत्री थे। एक साल बाद दोनों बोर्ड का आपस में विलय करके एक नया बोर्ड बनाया गया। उसका नाम रखा गया – प्रोफेशनल एक्जामिनेशन बोर्ड। हिंदी में नाम हुआ – व्यावसायिक परीक्षा मंडल। जो व्यापमं नाम से मशहूर हुआ।

30 सालों तक चला सफर
गठन के करीब 30 साल तक व्यापमं आम सरकारी संस्थान की तरह चलता रहा। उसके भीतर क्या चल रहा है, इसके बारे में कभी कोई खास चर्चा नहीं हुई। इस दौरान कई सरकारें आईं और गईं। किसी का ध्यान व्यापमं के “चरित्र” पर नहीं गया। साल 2013 मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। बीजेपी की दस साल पुरानी सरकार। दस साल की कांग्रेस सरकार की कमियों के भरोसे राज्य के लोगों का भरोसा जीतती आ रही बीजेपी सरकार को व्यापमं ने बड़ा झटका दिया। अचानक यह राज खुला कि व्यापमं में बैठे अफसरों ने सरकार के इशारे पर बड़ा खेल किया है। एक नेटवर्क के जरिए अयोग्य छात्रों को परीक्षा में पास कराया गया। इसके लिए मोटी कीमत ली गई। इस “कीमत” में दलाल, नकली छात्र, बोर्ड के अफसर – कर्मचारी, सरकार, निजी मेडिकल कॉलेजों के मालिक, बीजेपी के नेता और उनके मातृ संगठन के माननीय भी हिस्सेदार बने।

व्यापमं का यह घोटाला जब खुला तो देश भर में हंगामा हुआ। राज्य सरकार कटघरे में आई। खुद मुख्यमंत्री पर कांग्रेस ने गंभीर आरोप लगाए। पहले राज्य सरकार की एटीएस ने जांच की। उसने शिवराज सरकार के मंत्री स्वर्गीय लक्ष्मीकांत शर्मा के साथ साथ व्यापमं के अधिकारी पंकज त्रिवेदी, नितिन महेंद्र, अजय सेन और सीके मिश्रा को भी गिरफ्तार किया। निजी मेडिकल कॉलेजों के मालिक और अधिकारी भी पकड़े गए।

सुप्रीम कोर्ट पहुंचा मामला
मामला स्थानीय अदालत से होते हुए देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचा। उसके आदेश पर सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू की जो आज भी जारी है। इस मामले में सैकड़ों लोग गिरफ्तार हुए। दर्जनों लोगों की संदिग्ध मौतें हुईं। आरोपों की जद में सीएम हाउस भी आया। लंबे समय तक यह मामला पूरे देश में छाया रहा। मेडिकल भर्ती परीक्षा की जांच के दौरान यह भी पता चला कि व्यापमं ने इसके अलावा और जो परीक्षाएं कराई हैं, उन सभी में घपला हुआ है। खूब हंगामा हुआ। विधानसभा में जमकर आरोप प्रत्यारोप हुए। इस दौरान कई लोगों ने अपना मुंह बंद करने की भरपूर “कीमत” वसूली तो कुछ को मुंह बंद रखने के लिए “समर्थन मूल्य” दिया गया। यह बात भी उसी दौरान सामने आई।

नाम बदलने की घोषणा
भारी बदनामी और हंगामे के बीच राज्य सरकार ने तमाम फसाद की जड़ बने व्यापमं का नाम बदलने का ऐलान कर दिया। हिंदी की हिमायती बीजेपी की सरकार ने व्यापमं के मूल अंग्रेजी नाम को ही प्रचलन में लाने का आदेश दिया। इस आदेश के बाद सरकारी अमले ने व्यापमं का नाम मिटा कर हर जगह पीईबी (प्रोफेशनल एक्जामिनेशन बोर्ड) लिखवा दिया। सरकारी रिकॉर्ड में व्यापमं पीईबी हो गया। लेकिन लोगों की जुबान पर यह नाम नहीं चढ़ा। चढ़ता भी कैसे? खुद भोपाल नगर निगम ने अपने बस अड्डे पर बड़ा बड़ा लिखवाया – व्यापमं चौराहा।

इस बीच 2018 आ गया। लोग जेल आते जाते रहे। एक लक्ष्मीकांत शर्मा को छोड़ कोई दूसरा सत्ताधारी नेता नहीं पकड़ा गया। अन्य दलों के भी कुछ नेता पकड़े गए। लेकिन धीरे धीरे सब छूटते रहे। जांच चालू है साथ ही वसूली भी। 2018 में बीजेपी की सरकार चली गई, लेकिन 15 महीने बाद ही, जैसा कि आरोप कांग्रेस लगाती है, उसके कुछ विधायकों और एक बड़े नेता को मुंह मांगा “समर्थन मूल्य” बीजेपी ने फिर अपनी सरकार बना ली। शिवराज सिंह चौहान फिर मुख्यमंत्री बने। इसके बाद उन्होंने एक बार फिर व्यापमं का नाम बदला। व्यापमं से पीईबी बना यह संस्थान अचानक कचबो (कर्मचारी चयन बोर्ड) हो गया। 2022 में व्यापमं ने कचबो तक का सफर पूरा किया।

नाम बदला पर डीएनए नहीं
नाम तो बदल गया पर संस्थान का डीएनए नहीं बदला। आजकल वह फिर चर्चा में है। इस बार उस पर रेवेन्यू सिस्टम की जान माने जाने वाले पटवारियों की भर्ती में घोटाला करने का आरोप लगा है। इस घोटाले में कचबो के साथ एक बीजेपी विधायक के कॉलेज का भी नाम आया है। विपक्ष ने विधानसभा में मामला उठाना चाहा तो अध्यक्ष ने अनुमति नहीं दी। 5 दिन चलने वाला विधान सभा का मानसून सत्र मात्र दो दिन में ही खत्म हो गया। इन दो दिनों में भी सिर्फ करीब ढाई घंटे ही सदन का कामकाज हुआ। सरकार के प्रवक्ता ने इस मुद्दे पर विपक्ष को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। उन्होंने अपनी सरकार का इतनी ताकत से बचाव किया कि ऐसा लगा जैसे विपक्ष ने ही पटवारी परीक्षा कराई हो।

कैसे होगी कथित घोटाले की जांच?
लेकिन अगले ही दिन जब पूरे प्रदेश में बड़ी संख्या में बेरोजगार युवा इस घोटाले के खिलाफ सड़कों पर उतरे तो खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पटवारी भर्ती परीक्षा की जांच कराने की घोषणा की। जांच कैसे होगी और कौन करेगा यह बाद में बताया जाएगा। कांग्रेस हमलावर है। वह सीबीआई से जांच की मांग कर रही है। उसके शीर्ष नेतृत्व ने भी पटवारी भर्ती घोटाले को उठाया है। उधर भर्ती परीक्षा में बैठे 12 लाख से भी ज्यादा युवा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। जो चुन लिए गए हैं अब वे भी परेशान हैं। शुरुआती दौर में जो तथ्य सामने आ रहे हैं वे यह बता रहे हैं कि पटवारी भर्ती में भी जम कर लेन देन हुआ है। एक बस्ते में कॉलेज चलाने वालों ने मात्र कुछ लाख रुपयों की एवज में उन लोगों को “पटवारी का बस्ता”(रेवेन्यू रिकॉर्ड) थमाने की व्यवस्था कर दी जिन्हें यह भी नहीं मालूम कि एमपी में कितने जिले और संभाग हैं। चुनाव सिर पर हैं। इसलिए हंगामा चल रहा है।
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इस हंगामे के बीच यह बात तो समझ में आई कि नाम से कुछ नहीं होता। जो जैसा होता है वैसा ही रहता है। व्यापमं ने ही 41 साल में तीन नाम पा लिए लेकिन उसका काम वही रहा। हमारे गांव में कहावत है – मिर्च का नाम जलेबी रक्खा..पर न हुई वो मीठी। ऐसा ही कुछ व्यापमं के साथ हो रहा है। अब कुछ भी हो पर एक बात पक्की है। अपना एमपी है तो गज्ज़ब। है कि नहीं।?

(अरुण दीक्षित, वरिष्ठ पत्रकार, ऊपर के लेख में लिखे गए विचार लेखक के हैं)

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