3 युद्ध देख चुकीं शहर की 90 वर्षीय पारो, इनके पिता ने फील्ड मार्शल सैम की जान बचाई थी – Ludhiana News h3>
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दुगरी की रहने वाली 90 वर्षीय हरपाल कौर, जिन्हें परिवार और करीबी पारो कहकर बुलाते हैं, ने ऐसा जीवन जिया है जो साहस की मिसाल है। वह न सिर्फ 1942 के बर्मा युद्ध की चश्मदीद रही हैं, बल्कि 1962, 1971 और 1947 के युद्धों की साक्षी भी रही हैं।
उनके पिता सूबेदार मेहर सिंह, और पति सूबेदार हरनेक सिंह, दोनों भारतीय सेना में अपनी बहादुरी के लिए जाने जाते थे। हरपाल कौर बताती हैं कि जब वह सिर्फ 8 साल की थीं, तब 1942 में बर्मा की लड़ाई शुरू हुई थी। उस समय वह फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के घर उनकी बेटी शेरी बेबी के साथ खेल रही थीं। तभी उनके पिता सूबेदार मेहर सिंह ने कहा कि हम युद्ध में जा रहे हैं, तुम अपने घर जाओ।
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मानेकशॉ ने पारो को प्यार से कहा कि तुमको ड्राइवर घर छोड़ कर आएगा। युद्ध के बाद हम तुम्हारे घर साग और मूली की रोटी खाने आएंगे। बर्मा युद्ध के दौरान मानेकशॉ को जब गोली लगी, तो हरपाल कौर के पिता ने उन्हें अपने कंधों पर उठाकर 9 किलोमीटर तक दौड़ लगाई और उनकी जान बचाई।
युद्ध के बाद मानेकशॉ खुद वादा निभाने आए और बोले, पारो, आज तुम्हारे घर साग और मक्के की रोटी खाएंगे। जब खाना परोसा गया तो उन्होंने मुस्कराकर पूछा, पारो, मूली कित्थे है। भागकर मूली लाने के बाद मानेकशॉ बोले कि चल, गड्डी विच घुमा के लावां।
हरपाल कौर ने बताया कि 1962 की लड़ाई के समय उनके पति हरनेक सिंह फ़र्स्ट सिख रेजिमेंट में थे। गांव के सभी लोगों ने छतों पर ईंटें और पत्थर जमा कर लिए थे, क्योंकि दुश्मन के हमले का डर था। रात को लाइट नहीं होती थी, दिन में ही चूल्हा जलाकर खाना खा लिया जाता था।
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गोलियों और तोपों की आवाजें सुनाई देती थीं। मिट्टी के मकानों पर घास-फूस डालकर छिपने की कोशिश की जाती थी। हरपाल कौर के पिता सूबेदार मेहर सिंह 1947 के दंगों में शहीद हुए। मुसलमानों ने अब्दुलपुर बस्ती के पास उन पर धोखे से हमला कर दिया था और तीन गोलियां मारी थीं।
लाल जूती देखकर गांव वालों ने 7 दिन बाद उनकी लाश को पहचान कर मंजे में डालकर घर लाया। उस वक्त घर की महिलाएं भी हथियार लेकर सुरक्षा में खड़ी रहती थीं। हरपाल कौर बताती हैं कि अब जमाना बदल गया है। पहले गांव में एकता होती थी, अब पड़ोसी को भी नहीं पता होता कि सामने कौन रहता है।
जब सैम मानेकशॉ लुधियाना आए, तो उन्होंने सबसे पहले स्टेज से पारो को बुलाया और गले लगाकर अपनी छड़ी और सफेद मोतियों वाला पर्स उपहार में दिया। जब 1971 की जंग शुरू हुई, तो हरपाल कौर ने अपने तीनों बच्चों को जमीन में खोदे गड्ढों में छिपाकर सुरक्षित रखा। खुद तलवार लेकर रात भर घर के दरवाजे पर पहरा देती थीं। वो बताती हैं, मैं कभी डरी नहीं, मैं चाहती थी कि दुश्मन सामने आए और मैं उसे सबक सिखाऊं।
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दुगरी की रहने वाली 90 वर्षीय हरपाल कौर, जिन्हें परिवार और करीबी पारो कहकर बुलाते हैं, ने ऐसा जीवन जिया है जो साहस की मिसाल है। वह न सिर्फ 1942 के बर्मा युद्ध की चश्मदीद रही हैं, बल्कि 1962, 1971 और 1947 के युद्धों की साक्षी भी रही हैं।
उनके पिता सूबेदार मेहर सिंह, और पति सूबेदार हरनेक सिंह, दोनों भारतीय सेना में अपनी बहादुरी के लिए जाने जाते थे। हरपाल कौर बताती हैं कि जब वह सिर्फ 8 साल की थीं, तब 1942 में बर्मा की लड़ाई शुरू हुई थी। उस समय वह फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के घर उनकी बेटी शेरी बेबी के साथ खेल रही थीं। तभी उनके पिता सूबेदार मेहर सिंह ने कहा कि हम युद्ध में जा रहे हैं, तुम अपने घर जाओ।
मानेकशॉ ने पारो को प्यार से कहा कि तुमको ड्राइवर घर छोड़ कर आएगा। युद्ध के बाद हम तुम्हारे घर साग और मूली की रोटी खाने आएंगे। बर्मा युद्ध के दौरान मानेकशॉ को जब गोली लगी, तो हरपाल कौर के पिता ने उन्हें अपने कंधों पर उठाकर 9 किलोमीटर तक दौड़ लगाई और उनकी जान बचाई।
युद्ध के बाद मानेकशॉ खुद वादा निभाने आए और बोले, पारो, आज तुम्हारे घर साग और मक्के की रोटी खाएंगे। जब खाना परोसा गया तो उन्होंने मुस्कराकर पूछा, पारो, मूली कित्थे है। भागकर मूली लाने के बाद मानेकशॉ बोले कि चल, गड्डी विच घुमा के लावां।
हरपाल कौर ने बताया कि 1962 की लड़ाई के समय उनके पति हरनेक सिंह फ़र्स्ट सिख रेजिमेंट में थे। गांव के सभी लोगों ने छतों पर ईंटें और पत्थर जमा कर लिए थे, क्योंकि दुश्मन के हमले का डर था। रात को लाइट नहीं होती थी, दिन में ही चूल्हा जलाकर खाना खा लिया जाता था।
गोलियों और तोपों की आवाजें सुनाई देती थीं। मिट्टी के मकानों पर घास-फूस डालकर छिपने की कोशिश की जाती थी। हरपाल कौर के पिता सूबेदार मेहर सिंह 1947 के दंगों में शहीद हुए। मुसलमानों ने अब्दुलपुर बस्ती के पास उन पर धोखे से हमला कर दिया था और तीन गोलियां मारी थीं।
लाल जूती देखकर गांव वालों ने 7 दिन बाद उनकी लाश को पहचान कर मंजे में डालकर घर लाया। उस वक्त घर की महिलाएं भी हथियार लेकर सुरक्षा में खड़ी रहती थीं। हरपाल कौर बताती हैं कि अब जमाना बदल गया है। पहले गांव में एकता होती थी, अब पड़ोसी को भी नहीं पता होता कि सामने कौन रहता है।
जब सैम मानेकशॉ लुधियाना आए, तो उन्होंने सबसे पहले स्टेज से पारो को बुलाया और गले लगाकर अपनी छड़ी और सफेद मोतियों वाला पर्स उपहार में दिया। जब 1971 की जंग शुरू हुई, तो हरपाल कौर ने अपने तीनों बच्चों को जमीन में खोदे गड्ढों में छिपाकर सुरक्षित रखा। खुद तलवार लेकर रात भर घर के दरवाजे पर पहरा देती थीं। वो बताती हैं, मैं कभी डरी नहीं, मैं चाहती थी कि दुश्मन सामने आए और मैं उसे सबक सिखाऊं।