1857 की क्रांति से आजादी की लड़ाई में भोजपुर की रही भूमिका

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1857 की क्रांति से आजादी की लड़ाई में भोजपुर की रही भूमिका

1857 की क्रांति से आजादी की लड़ाई में भोजपुर की रही भूमिका

आजादी का अमृत महोत्सव

-पहले स्वतंत्रता संग्राम से ही वह नींव तैयार हुई, जिस पर आजादी का महल खड़ा हुआ

आरा, हिन्दुस्तान टीम।

हमारा देश इस साल आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इसे लेकर देश के अन्य हिस्सों की तरह भोजपुर में भी खासा उत्साह है। इसकी तैयारी हर ओर चल रही है। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857 की क्रांति) से लेकर आजादी की लड़ाई तक में भोजपुर की अहम भूमिका रही है। 1857 की क्रांति के अमर योद्धा बाबू वीर कुंवर सिंह के विद्रोह की गाथा आज भी हर किसी के जेहन में है। गांवों के चौपालों पर उनकी वीरता के लोकगीत आज भी गाहे-बगाहे गूंजते हैं। लोक प्रसंग भी अक्सर सुनाये जाते हैं। विद्रोहियों को दबाने में अंग्रेजों ने कुंवर सिंह का इस्तेमाल करना चाहा था। इस दिशा में पटना कमिश्नरी का अंग्रेज कमिश्नर विलियम टेलर बेहद सक्रिय था। उसने बाबू कुंवर सिंह को भी साथ लेकर क्रांतिकारियों के दमन की कोशिश की। उन्हें आरा जेल में स्थानांतरित किया गया, लेकिन आरा जेल में भी जमकर विद्रोह हुआ। कुंवर सिंह अंतत: विद्रोही हो गये। अंग्रेजी पलटन के पीछे पड़ जाने पर गंगा पार करते वक्त उन्हें हाथ में गोली लगी और योद्धा ने अपना हाथ काटकर गंगा मइया को समर्पित कर दिया। चंद दिनों बाद ही वे अलविदा कह गये। हालांकि 80 साल की उम्र में अंग्रेजी साम्राज्यवाद को चुनौती देने वाले कुंवर सिंह, उनके भाई अमर सिंह और उनके सहयोगियों-सेनानियों के साहस और पराक्रम ने ही वह नींव तैयार की, जिस पर आजादी का महल खड़ा हो तैयार हुआ।

अगस्त क्रांति में भी आंदोलन की ज्वाला भड़की

सन 1942 की अगस्त क्रांति व भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी भोजपुर जिले में आंदोलन की ज्वाला खूब भड़की। 15 सितंबर, 1942 को अगिआंव प्रखंड के लसाढ़ी सहित उसके आसपास के गांवों के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। वासुदेव सिंह, गिरीवर सिंह, रामानंद पांडेय, रामदेव साह, जगन्नाथ सिंह, शीतल लोहार, सभापति सिंह, केशव सिंह और शीतला प्रसाद सिंह सहित 12 सपूत अंग्रेज सैनिकों से लोहा लेते वीर गति को प्राप्त हो गये थे। इनमें अकली देवी नामक एक वीरांगना भी शामिल थीं। लसाढ़ी में 12 शहीद सपूतों की आदमकद प्रतिमा भी स्थापित है।

अगस्त क्रांति में शहीद हुए कवि कैलाश

भोजपुर कवि कैलाश जैसे सपूतों की भी धरती रही है। कवि कैलाशपति सिंह आरा सदर प्रखंड के घोड़ादेई गांव के निवासी थे। वे प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 11वीं राजपूत रेजिमेंट में भर्ती हुए थे। युद्ध की समाप्ति के बाद अपने गांव पहुंचे। सदाफल देव की शिक्षा व योगाभ्यास से प्रभावित होकर गांव-गांव जाकर भाषण करते थे। आजादी की लड़ाई में वे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए मुठिया एकत्रित करते थे, जिससे वे कांग्रेस के स्वयंसेवकों को भोजन कराते थे। स्वतंत्रता सेनानी रामसुभग सिंह, सरदार हरिहर सिंह, रघुवंश नारायण सिंह, रामबिलास सिंह, रंगबहादुर लाल और रामायण प्रसाद के वे परम मित्र थे। अगस्त क्रांति के दौरान 10 अगस्त से ही पूरा जिला आजादी के संघर्ष में उमड़ पड़ा। पूरे शाहाबाद में तारकटी और रेल लाइन उखाड़ने की घटनाएं हो रही थीं। 15 सितंबर को लसाढ़ी की घटना को अभी जिलावासी भूले भी नहीं थे कि 28 सितंबर को सरकार के साथ असहयोग और मालगुजारी नहीं देने के विरोध से संबंधित कार्यक्रम बना। इसी को लेकर कवि कैलाश आरा पहुंचे थे। अंग्रेजी सैनिकों के आतंक से शहर थर्रा उठा था। इसके बाद भी कवि कैलाश ने कचहरी में पहुंच पर्चे बांटना शुरू किया और नारा लगाया-टॉल देना पाप है। इसके बाद अंग्रेजी सैनिकों ने उनके मुंह में हंटर ठूंसकर चुप कराना चाहा। फिर भी चुप नहीं हुए तो एसडीओ ऑफिस के सामने इस कदर पिटाई की कि वे शहीद हो गये।

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