हे भगवान! अंग्रेजी देखते ही लाल-पीले हुए नीतीश, कर्पूरी-लोहिया के दिल में कितनी बसती थी हिंदी

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हे भगवान! अंग्रेजी देखते ही लाल-पीले हुए नीतीश, कर्पूरी-लोहिया के दिल में कितनी बसती थी हिंदी

हे भगवान! अंग्रेजी देखते ही लाल-पीले हुए नीतीश, कर्पूरी-लोहिया के दिल में कितनी बसती थी हिंदी


पटना: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का हिंदी प्रेम कुछ यूं ही नहीं हो रहा है। दरअसल, देश की राजनीति की राह को जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीयता के तार से जोड़ दिया है, इस फलक पर नीतीश का हिंदी प्रेम अचानक से दिख गया है। पर ऐसे भी समाजवादियों ने भाषा के मुद्दे पर राष्ट्रीय संदर्भ में रखा है। आंदोलन किए, पत्र पत्रिकाएं तक निकाली। सामंती भाषा और लोक भाषा, देशी भाषा बनाम अंग्रजी तक पर बहस चलाई। साथ ही हिंदी को लादने के बजाय उसे सरलीकरण के पक्षधर भी थे। नीतीश कुमार पर समाजवादी रंग हमेशा गहरा रहा है।

राम मनोहर लोहिया और हिंदी

महात्मा गांधी के बाद डॉ. राम मनोहर लोहिया आजाद भारत के अकेले ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने अपनी भाषा के मुद्दे पर राष्ट्रीय संदर्भ में विचार किया और आंदोलन चलाए। उनका भाषा-चिन्तन बहुआयामी है। लोहिया जानते थे कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में अंग्रेजी का प्रयोग आम जनता की प्रजातंत्र में भागीदारी के बीच बड़ा रोड़ा है।

इसे सामन्ती भाषा बताते हुए इसके प्रयोग के खतरों से बारम्बार डॉ. राम मनोहर लोहिया ने आगाह किया। बताया कि यह मजदूरों, किसानों और शारीरिक श्रम से जुड़े आम लोगों की भाषा नहीं है। इसलिए लोहिया ने 60 के दशक में देश से अंग्रेजी हटाने का आह्वान किया। ‘अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन’ की गणना अब तक के कुछ इने- गिने आन्दोलनों में की जा सकती है। शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजी को हटाए बिना देश में ज्ञान-के जैसे विज्ञान, इतिहास, रसायन, फिजिक्स इत्यादि की वृद्धि नहीं हो सकती है। सच बात तो यह थी कि लोहिया जी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ राष्ट्र की उन्नति का साधन और अंग्रेजी को गुलामी का साधन समझते थे।

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कर्पूरी ठाकुर और हिंदी

राजनीतिक क्षितिज पर कर्पूरी ठाकुर एक हिंदी भक्त, हिंदी प्रेमी या हिंदी सेवी की तरह याद किए जायेंगे। कर्पूरीजी के मनः प्रदेश में सतत विचरणशील हिंदी और हिंदी प्रेम तब देखने का अवसर इस राज्य की जनता को मिला, जब सन् 1967 में बिहार में पहली बार समाजवाद की सरकार अस्तित्व में आई। इस सरकार में हिंदी के सौभाग्य से कर्पूरीजी शिक्षा मंत्री और साथ ही उपमुख्यमंत्री के पद पर प्रतिष्ठित हुए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से इस राज्य में मंत्री, उपमुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री तो बहुत हुए, पर हिंदी के प्रचार-प्रसार की दिशा में किसी का ध्यान तक नहीं गया। पर सत्तारूढ़ होते ही कर्पूरीजी ने सर्वप्रथम सचिवालय के कार्यकलापों में राजभाषा अधिनियम को कार्यान्वित कर हिंदी का प्रयोग टूट अनिवार्य कर दिया।
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हिंदी भाषा का अधिकाधिक प्रयोग करने की दृष्टि से राज्य स्तर पर ‘हिंदी प्रगति समिति’ का गठन किया, जिसका एकमात्र उद्देश्य था – सरकारी कार्यालयों तथा प्रतिष्ठानों में हिंदी भाषा के प्रयोग को बढ़ावा देना और इस बात की जांच-पड़ताल करना कि सभी सरकारी कार्यालयों में राजभाषा अधिनियम का सम्यक ढंग से अनुपालन हो रहा है या नहीं! कर्पूरीजी के शासनकाल में राजभाषा अधिनियम का उल्लंघन करनेवालों की प्रोन्नति और वेतन वृद्धि रोक दी जाती थी, जिसके परिणामस्वरूप जिलाधीश तक इस अधिनियम का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं करते थे।
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राज्य में बतौर शिक्षा मंत्री कर्पूरी ठाकुर ने एक अदभुत प्रयोग किया

बिहार के शिक्षा मंत्री की हैसियत से कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक के पाठ्यक्रम में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर उसे वैकल्पिक विषय बना दिया। उन्होंने एक युगद्रष्टा के समान यह देखा कि माध्यमिक शिक्षा में अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता के कारण अत्यल्प संख्यक छात्र ही मैट्रिक की सीमा से आगे बढ़ पाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप यहां के अधिसंख्यक युवक उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। इस तरह से अंग्रेजी उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता को समाप्त कर सभी युवकों के लिए उच्च शिक्षा का द्वार खोल दिया, जिसके परिणामस्वरूप उच्च शिक्षा में एकबारगी आश्चर्यजनक उछाल सा आअंग्रेजी की प्राथमिकता समाप्त होते ही उसका स्थान हिंदी ने ले लिया और महाविद्यालयों में हिंदी पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में आशातीत वृद्धि होने लगी। यदि कर्पूरीजी ने माध्यमिक शिक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त न की होती तो आज इस राज्य के घर-घर में हिंदी पढ़े-लिखे बीए और एमए नजर नहीं आते।

दरअसल, सीएम नीतीश कुमार का हिंदी प्रेम यूं ही नहीं है। भाषाई आधार पर वह देश के समाजवादियों को एक प्लेटफार्म देना चाहते हैं। मकसद सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध एक मजबूत राजनीतिक फोर्स तैयार करना है। ऐसा होता है तो यूपी, हरियाणा और ओडिशा को एक प्लेटफार्म पर लाकर एक विपक्षी एकता का इजहार तो हो सकता है।

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