रामचरितमानस और जाति की सियासत के बीच संतुलन बिठा रहे अखिलेश यादव, क्या यूपी में नए सियासी घमासान की तैयारी है

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रामचरितमानस और जाति की सियासत के बीच संतुलन बिठा रहे अखिलेश यादव, क्या यूपी में नए सियासी घमासान की तैयारी है

रामचरितमानस और जाति की सियासत के बीच संतुलन बिठा रहे अखिलेश यादव, क्या यूपी में नए सियासी घमासान की तैयारी है


लखनऊ: रामचरित मानस को लेकर बिहार से शुरू हुई राजनीतिक आंधी ने अब उत्तर प्रदेश को अपनी चपेट में ले लिया है। समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरितमानस की चौपाई को लेकर सवाल उठाए और उसे हटाने की मांग कर डाली तो बवाल शुरू हो गया। एक तरफ लखनऊ में रामचरितमानस की प्रतियां जलाई गईं तो दूसरी तरफ अखिलेश यादव एक धार्मिक आयोजन में शिरकत करने गए तो उनको काले झंडे दिखाए गए। लखनऊ में स्वामी प्रसाद मौर्य पर दो एफआईआर हो गई हैं। हिंदूवादी संगठन स्वामी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इस बीच सपा प्रमुख अखिलेश यादव, बसपा सुप्रीमो मायावती मायावती से लेकर भाजपा के नेताओं के बयान आ रहे हैं। केंद्र में रामचरितमानस जरूर है लेकिन सियासत भी खूब हो रही है। मोटे तौर पर सियासत बिना ‘हाथ जलाए’ विरोध से वोट बैंक साधने की दिख रही है। मामला समर्थन और विरोध के बीच गुंथा हुआ है, आइए समझते हैं कैसे?

दरअसल स्वामी प्रसाद मौर्य ने पिछले दिनों रामचरितमानस की चौपाई पर सवाल उठाया और इसे जातिगत भेदभाव का आरोप लगाते हुए इसे हटाने की मांग की। मामले में समाजवादी पार्टी की तरफ से फौरन बयान आया कि स्वामी प्रसाद मौर्य का बयान निजी है। लेकिन इसके बाद से बवाल थमा नहीं। पार्टी हाईकमान अखिलेश यादव की तरफ से इस मुद्दे पर चुप्पी ही साधी रखी गई। इस बीच अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय टीम का ऐलान किया तो स्वामी प्रसाद मौर्य को राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। भाजपा अब इसे ही मुद्दा बनाते हुए आक्रामक हो गई है। यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने अखिलेश यादव की चुप्पी पर सवाल उठाए हैं। केशव प्रसाद मौर्य ने ट्वीट किया, “मानसिक रूप से विक्षिप्त हो चुकी समाजवादी पार्टी ने अपना हिंदू विरोधी चरित्र उजागर कर दिया है, श्रीरामचरित मानस को अपमानित करने वाले को सपा बहादुर श्री अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय महासचिव बनाकर खुद सपा के ताबूत में आख़िरी कील ठोक दी है। विनाश काले विपरीत बुद्धि”

इससे पहले अखिलेश यादव लखनऊ में एक धार्मिक आयोजन में शामिल होने गए। यहां स्वामी के रामचरितमानस पर बयान को लेकर कुछ लोगों ने उन्हें काला झंडा दिखाया तो अखिलेश बिफर पड़े। उन्होंने कहा कि मैं मंदिर में दर्शन करने जा रहा था। क्या बीजेपी और आरएसएस के लोगों ने वहां गुंडागर्दी नहीं की? अगर हमें पता होता कि चार-छः गुंडे आएंगे तो हम भी अपनी तैयारी से जाते। अखिलेश ने इस घटना को रामचरितमानस विवाद से जोड़ते हुए कहा कि मुख्यमंत्री चूंकि वह योगी भी हैं और धार्मिक स्थान से उठकर सदन में आए हैं, तो मैं ये कहूंगा कि वो चौपाई एक बार हमें पढ़कर सुना दो। क्या आप पढ़कर सुना सकते हो मुझे बताओ? मैं मुख्यमंत्री जी से पूछने जा रहा हूं कि मैं शूद्र हूं कि नहीं हूं? अखिलेश ने स्पष्ट किया कि (रामचरितमानस) ग्रंथ की कोई खिलाफत नहीं कर रहा है। न भगवान के खिलाफ हैं और न आमजनमानस के खिलाफ हैं लेकिन ये बीजेपी वाले बताएं कि उनके नेता क्या-क्या कहते हैं? मुख्यमंत्री जी से मैं सदन में पूछूंगा कि मैं शूद्र हूं कि नहीं हूं?

सपा और भाजपा की मिलीभगत है: मायावती

सपा-बसपा में बयानबाजियां चल ही रही थीं कि पूरे मामले में बसपा सुप्रीमो मायावती का भी बयान आ गया। उन्होंने ट्वीट किया कि भाजपा की राजनीतिक पहचान सर्वविदित है लेकिन रामचरितमानस की आड़ में सपा का वही राजनीतिक रंग-रूप दुःखद व दुर्भाग्यपूर्ण है। रामचरितमानस के विरुद्ध सपा नेता की टिप्पणी पर उठे विवाद व फिर उसे लेकर भाजपा की प्रतिक्रियाओं के बावजूद सपा नेतृत्व की चुप्पी से स्पष्ट है कि इसमें दोनों पार्टियों की मिलीभगत है ताकि आगामी चुनावों को जनता के ज्वलन्त मुद्दों के बजाए हिन्दू-मुस्लिम उन्माद पर पोलाराइज किया जा सके।

असल सियासत ये है
वैसे रामचरितमानस को लेकर खड़े हुए ताजा विवाद को सियासी नजरिए से देखेंगे तो कहानी साफ हो जाएगी। एक के बाद एक बड़ी हार झेल रहे अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के परंपरागत वोटबैंक यादव और मुस्लिमों के साथ ओबीसी की गैर यादव जातियों तक भी पहुंच बनाने की कोशिश में लगे हैं। ताजा रणनीति में उन्होंने दलित वोटबैंक को भी साधना शुरू कर दिया है। यही कारण है कि बसपा को लेकर अखिलेश यादव उतने आक्रामक नहीं दिखते, जितना वो बीजेपी को लेकर रहते हैं। हाल ही में वह भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर के साथ ही मंच शेयर करते दिखाई दिए।

अखिलेश जाति की राजनीति करते दिख रहे हैं लेकिन सॉफ्ट हिंदुत्व का दामन भी थामे दिख रहे हैं। उनकी राष्ट्रीय टीम में सबसे ज्यादा 11 यादव चेहरे हैं, वहीं 10 मुस्लिम चेहरे हैं। साथ ही चार ब्राह्णण, दो ठाकुर भी हैं। वहीं 6 दलित चेहरे और एक आदिवासी नेता भी हैं। इसके अलावा अति पिछड़ी जातियों को भी जगह दी गई है। अखिलेश मंदिर भी जाते हैं और जातिगत जनगणना की मांग भी करते हैं।

वहीं दूसरी तरफ दलित, मुस्लिम गठजोड़ की सियासत कर रहीं मायावती भाजपा की तुलना में समाजवादी पार्टी पर ज्यादा मुखर दिखती हैं। इस समय बसपा अपने सबसे कमजोर दौर से गुजर रही है और वो अपना छिटका मुस्लिम वोटबैंक वापस पाना चाहती हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव गवाह रहा है कि यूपी की मुस्लिम आबादी ने सबसे ज्यादा समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया। इसके अलावा मायावती के लिए दलित वोटबैंक खासतौर पर गैर जाटव जातियों पर पकड़ बनाए रखने की भी चुनौती है।

वहीं दूसरी तरफ भाजपा हिंदुत्व के एजेंडे पर आगे बढ़ रही है। वह रामचरित मानस के विवाद को सपा की हिंदू विरोधी मानसिकता करार देने की कोशिश में है।

अब सवाल ये है कि अखिलेश यादव को आखिर अपनी रणनीति जाति केंद्रित क्यों करनी पड़ रही है? राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार अखिलेश ने जब यूपी की सत्ता संभाली तो वह मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी हुआ करती थी। उसका स्टैंड क्लियर था, यादव और मुस्लिम वोटबैंक उसकी प्राथमिकता थे। लेकिन अखिलेश ने सपा की इस छवि को बदलने की कोशिश की। उन्होंने सर्वमान्य नेता बनने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए। 2012 और 2017 विधानसभा चुनाव हारे इस बीच 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कुछ खास नहीं कर सके। 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने वापसी की कोशिश की और चुनाव प्रचार में अपर कास्ट खासतौर पर ब्राह्मणों को भी लुभाने की कोशिश की गई लेकिन ये रणनीति सफल नहीं हो सकी और भाजपा एक बार फिर सत्ता पर काबिज हो गई। अब पांच बड़े चुनावों में तमाम तरह के असफल प्रयोगों के बाद अखिलेश यादव आखिरकार वापस अपने पिता मुलायम सिंह यादव की जातिगत राजनीति की तरफ मुड़ने लगे हैं। हालांकि इसमें उन्होंने दलित वोटबैंक जोड़ने और सॉफ्ट हिंदुत्व की रणनीति को भी समाहित किया है।

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