यदि इन चीजों के बारे में पता होता तो डैड मुझे कभी अकेले ट्यूशन भी नहीं भेजते: प्रियंका चोपड़ा

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यदि इन चीजों के बारे में पता होता तो डैड मुझे कभी अकेले ट्यूशन भी नहीं भेजते: प्रियंका चोपड़ा

यदि इन चीजों के बारे में पता होता तो डैड मुझे कभी अकेले ट्यूशन भी नहीं भेजते: प्रियंका चोपड़ा

वर्तुल अवस्थी
रील लाइफ की हीरोइन जब रियल लाइफ में गांव-गांव जाकर महिलाओं, लड़कियों और बच्चों का हाल इत्मिनान से बैठकर जानने लगीं तो लोगों ने उन्हें किसी हीरो से कम नहीं समझा। बीते दिनों भारत आईं प्रियंका चोपड़ा प्राथमिक विद्यालय में बच्चों को पढ़ातीं, आंगनबाड़ी केंद्रों में महिलाओं के स्वास्थ्य और रेस्क्यू सेंटर्स की महिलाओं की आप-बीती सुनकर भावुक होती नजर आईं तो हर कोई उनके सद‌्भावना के पैगाम की तारीफें गढ़ने लगा। उन्होंने लखनऊ और उसके आसपास कई नकारात्मक चीजें देखीं तो कई सकारात्मक भी। इन सबके बावजूद उन्होंने जो ऑब्जर्व किया, उसका हासिल उन्हें प्रगति से परिपूर्ण दिखा। हाल ही में अफ्रीका का दौरा करके आईं प्रियंका ने खुद माना कि डिजिटलाइजेशन में भारत जैसी प्रगति अगर दूसरे देश भी कर पाते तो उनकी बहुत सी समस्याएं खत्म होने लगतीं।

जेंडर को लेकर भेदभाव खत्म करना होगा
मैं लखनऊ करीब 30 साल बाद आई हूं। यहां पर मैं कई माओं और लड़कियों से मिली। बहुत सारी पॉजिटिव और निगेटिव कहानियों को उनके जरिए सुनने का मौका मिला। सब चीजों से वही एक चीज वापस लेकर जा रही हूं कि हम ऐज ए सोसायटी साथ में काम करते हैं तो खुशहाली और संपन्नता ही आती है। हमें इसे आगे बढ़ाना होगा। ये बात गांव से लेकर शहर तक के हर इंसान के मन में घर करनी होगी कि अगर महिलाएं बढ़ेगी, स्वस्थ रहेंगी, जागरूक होंगी, पढ़ी-लिखी होंगी तो जरूर भारत भी तेजी से प्रगति करेगा। महिलाओं और पुरुषों में किसी तरह के भेदभाव की आज के वक्त में जरूरत नहीं है। जो पुरुष कर सकते, वे महिलाएं भी कर सकती हैं। अपनी सोच बदलनी होगी और दूसरों की भी बदलवानी होगी। ये हम सबके सामूहिक प्रयास से ही संभव है।


भारत की डिजिटली प्रगति बहुत तेजी से हुई
मुझे लगता है कि पुरुषों का घर की महिलाओं-लड़कियों के प्रति सकारात्मक होना बहुत जरूरी है। भारत में मैंने जिस गति से प्रगति देखी है, खासकर डिजिटलाइजेशन में, वह काबिल-ए-तारीफ है। अब तो सबके पास सेलफोन है और उस सेलफोन से एजुकेशन भी संभव है। ये आप छोटे-छोटे गांवों में भी देख सकते हैं। मैं खुद इसे देख रही हूं। इस तरह की प्रगति मैंने आजतक किसी और देश में नहीं देखी है।


…नहीं तो गरीबी का चक्र वैसे का वैसा ही रहेगा
मैं उन लड़कियों से भी मिली, जिन्हें स्कूल नहीं भेजा जाता है। एक लड़की का 6 साल की उम्र में स्कूल से नाम इसलिए कटवा दिया गया क्योंकि उसका भाई स्कूल जाने की उम्र का हो गया था। मुझे लगता है कि लोगों का ये माइंडसेट जागरूकता से ही बदलेगा। अगर लड़की स्कूल जाएगी तो वो भविष्य में आर्थिक रूप से आपका सहयोग करेगी। नहीं तो गरीबी का जो साइकल है, वो वैसे का वैसा ही बना रहेगा। ये चीजें लोग क्यों नहीं समझते हैं? आज तक यही हम देखते आ रहे हैं, लेकिन अब सारी चीजें सामने हैं। उस साइकल को ब्रेक करने के लिए हमें ही अपने बच्चों को स्कूल भेजना होगा, ताकि भारत जो आज विकासशील देश है, आगे जाकर विकसित देश बन सके। हमारी तरक्की हमारे बच्चों से ही संभव है। और ये तरक्की स्कूलिंग से ही आएगी। इस बारे में समझने की सबसे ज्यादा जरूरत पुरुषों को है, ताकि वे लड़कियों की इज्जत करना जानें। इसकी शुरुआत घर से ही संभव है।

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पराया धन वाली मानसिकता बदलनी पड़ेगी
मैं औरंगाबाद के एक बेसिक स्कूल गई। वहां के स्टूडेंट्स ऑर्गेनिक फार्मिंग सीख रहे थे। एक लड़के ने बताया कि मैंने अपनी मम्मी को ऑर्गेनिक फार्मिंग सिखाई और अब हम बैंगन, भिंडी जैसी कई सब्जियां घर में ही उगाते हैं। हम दुकानों पर भी नहीं जाते और अपनी ऑर्गेनिक फार्मिंग से ही सब्जियों का उपयोग करते हैं। ये सब हमने स्कूल में सिखा। इसी बात से आप समझिए कि स्कूल कितना जरूरी है। हम जितना अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे, जितना पढ़ाएंगे, उतना उनके साथ परिवार और देश का विकास भी करेंगे। ये जो माइंडसेट है कि लड़की को क्यों पढ़ाया जाता है, वो तो पराया धन है? इस मानसिकता को हम शिक्षा के जरिए ही बदल सकते हैं। वैसे स्कूलिंग के लिए उम्र कोई पैमाना नहीं है। स्कूलिंग चाहे 4 साल में शुरू हो या फिर 14 साल में, बस पढ़ना जरूरी है क्योंकि यही उन्नति की ओर ले जा सकती है।

…तो घरवाले मुझे कभी ट्यूशन भी नहीं भेजते
मैं वन स्टॉप सेंटर गई, जहां घरेलू हिंसा, छेड़खानी सहित कई चीजों से पीड़ित औरतें होती हैं। वहां उनकी लीगल, मेडिकल, मेंटल और हेल्थ काउंसिलिंग होती है। उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताया जाता है। मैं एक लड़की से मिली, जो 9 साल की उम्र में ट्रैफिकिंग का शिकार हुई थी। अभी उसे 17 साल की उम्र में रेस्क्यू किया गया। उसे कैसे-कैसे इस्तेमाल किया गया, मैं बता भी नहीं सकती। रेस्क्यू सेंटर ने ही जाकर उसे रेस्क्यू किया था। इसमें औरतें ही जाकर रेस्क्यू करती हैं। ये औरतें जो सर्वाइवर्स हैं, उन्होंने सेंटर को इतना स्ट्रॉन्ग बना दिया कि रात के 2 बजे जाकर लड़कियों को सेफ करती हैं। वे इतनी इंस्पायरिंग हैं कि मुझे तो सुनकर ही रोना आ गया। मैं कभी इतनी स्ट्रॉन्ग नहीं रही क्योंकि मैंने ऐसी परिस्थितियां कभी देखी-सुनी ही नहीं। इतनी सारी लड़कियां हैं, जो इन परिस्थितियों से गुजरती हैं। उनकी बहादुरी देखकर मैं हैरान रह गई। मैं भी यूपी में पली-बढ़ी हूं। लखनऊ में स्कूल गई हूं। उस यूपी और आज के यूपी में बहुत अंतर है। मेरे घरवालों को अगर इन सब चीजों के बारे में मालूम होता तो शायद डैड मुझे कभी अकेले ट्यूशन भी नहीं भेजते।

उत्तर प्रदेश की प्रोग्रेस देखकर बहुत अच्छा लगा

मैंने आंगनबाड़ी केंद्रों में जाकर देखा कि भारत सरकार के पोषण ट्रैकर के इनिशिएटिव का कितना बेहतर उपयोग हो रहा है। मैं अभी-अभी अफ्रीका से होकर आई हूं। अगर वहां पर ऐक ऐसा ही पोषण ट्रैकर ऐप होता तो वहां के बच्चों की बहुत मदद हो जाती। इससे आंगनबाड़ी केंद्रों पर काम करने वाली महिलाओं को भी बहुत सहूलियत मिली। पहले उन्हें सब मैनुअली रजिस्टर में चीजें नोट करनी पड़ती थीं लेकिन अब सब डिजिटल हो गया है। एक मंत्रा ट्रैकर ऐप देखा, जो गर्भवती माओं और उनके बच्चों के लिए बनाया गया है। इसके जरिए डॉक्टर कुपोषित माओं और बच्चों पर नजर रखते हैं। वैसे भी यूपी में इतनी जनसंख्या है, ऐसे में डिजिटलाइजेशन ने सबका काम आसान कर दिया है। यहां मैनुअली चीजों को हैंडल करना नामुमकिन है। मैंने यहां नवजात बच्चों की देखभाल वाले यूनिट्स देखे, जो अब तक सिर्फ प्राइवेट अस्पतालों में होते थे। मुझे ये सब प्रोग्रेस देखकर बहुत अच्छा लगा।

सखी जैसी योजना मैंने किसी देश में नहीं देखी

यूनिसेफ की गुडविल ऐम्बैस्डर प्रियंका चोपड़ा बताती हैं कि मुझे यहां पर बैकिंग कॉरेस्पोंडेंस एटीएम बहुत सही लगे। दरअसल, ये महिलाएं होती हैं, जिन्हें सखी कहा जाता है। इनके पास एटीएम मशीन होती है। वैसे भी आज के वक्त में सबका बैंक अकाउंट होना जरूरी है, लेकिन एटीएम हर जगह नहीं हैं। ये सखियां मशीन लेकर चलती हैं। हर ट्रांजैक्शन में उनको भी पैसे मिलते हैं। वो अपने घरों में कॉन्ट्रीब्यूट करती हैं। ये वे महिलाएं हैं, जो कभी कुछ कमाती नहीं थीं, वो आर्थिक रूप से घर में अपना योगदान नहीं दे पाती थीं, वो आज सिर उठाकर चल रही हैं। वो अपने घरों में कॉन्ट्रिब्यूट करती हैं। ये चीज जो मैंने भारत में देखी है, वो किसी देश में नहीं देखी है।

आंगबाड़ी केंद्र पर काम करने वाली महिलाएं बहुत मेहनती हैं

आंगनबाड़ी केंद्र की महिलाओं को देखकर मैं दंग रह गई। वे सच में बहुत मेहनत करती हैं। वे घर-घर जाती हैं। महिलाओं और बच्चों के साथ पूरे परिवार को चार्ट के जरिए पोषण के बारे में समझाती हैं। महंगी दालों और भोजन का विकल्प बताती हैं। जैसे एक महिला ने दालों के महंगे होने के बारे में बताया तो उन्होंने लोबिया खाने का विकल्प बताया। वे उनको तरह-तरह की चीजों के बारे में बताती हैं, जो वे एफोर्ड कर सकती हैं। इससे उनको महंगी दालों के बराबर ही पोषण मिलता रहेगा।