मुलताई गोली कांड: किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन पर कहर बनकर टूट पड़ी थी पुलिस, 24 मौतों के लिए दिग्विजय ने 24 साल बाद मांगी माफी
12 जनवरी यानी गुरुवार को बैतूल के मुलताई में किसानों पर हुए पुलिसिया अत्याचार के 25 साल पूरे हो रहे हैं। 12 जनवरी, 1998 को किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन पर पुलिस की अंधाधुंध फायरिंग में 24 मौतें हुई थीं। फसल के मुआवजे के लिए आंदोलन कर रहे किसानों पर पुलिस की यह बर्बरता एमपी के इतिहास के काले अध्यायों में शामिल है।
हाइलाइट्स
- 12 जनवरी, 1998 को मुलताई में किसान आंदोलन पर हुई थी फायरिंग
- पुलिस की अंधाधुंध फायरिंग में 24 किसानों की हुई थी मौत
- एमपी के इतिहास में काले दिन के रूप में दर्ज है यह तारीख
दिसंबर, 1997 से शुरू हुआ था किसानों का आंदोलन
साल 1997 में प्रदेश के किसान बेहद परेशान थे। बीते चार वर्षों से उनकी सोयाबीन और गेहूं की फसलें लगातार खराब हो रही थीं। ये बात 1997 की है। सोयाबीन और गेहूं की फसल लगातार 4 वर्षों से खराब हो रही थी। लगातार कर्ज के जाल में फंसते जा रहे किसानों ने सरकार से मदद मांगी। दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया। इसके बाद किसानों ने आंदोलन का रास्ता अख्तियार करने का फैसला किया। 25 दिसंबर 1997 को किसानों ने संघर्ष समिति बनाई और सरकार से 5 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर मुआवजे की मांग की। संघर्ष समिति ने सरकार से कहा कि उन्हें कर्जमाफी दी जाए, बिजली बिल माफ किया जाए और मवेशियों के लिए चारा उपलब्ध कराया जाए।
पहले रैली, फिर बंद और फिर…
संघर्ष समिति के बैनर तले लामबंद होकर किसान जमा हुए और नौ जनवरी, 1998 को विशाल रैली निकाली। बैतूल तक 50 किलोमीटर लंबी रैली में 75 हजार किसान शामिल हुए। ऐतिहासिक रैली के बाद भी सरकार पर असर नहीं पड़ा तो उन्होंने 11 जनवरी को बंद आयोजित किया। बंद को भी ऐतिहासिक सफलता मिली। तब जाकर सरकार को लगा कि आंदोलन को दबाने के लिए अब कुछ करना होगा। अगले दिन यानी 12 जनवरी को सरकार पूरी तरह ऐक्शन में आ गई। आंदोलन के नेताओं में शामिल रहे डॉ सुनीलम सोनेगांव से मुलताई की ओर बढ़े तो हजारों किसान उनके साथ हो लिए। किसान मुलताई के गुड़ बाजार के पास पहुंचे तो वहां भागमभाग का माहौल था। महिलाएं और पुरुष यहां-वहां भाग रहे थे। उनमें से कई खून से लथपथ थे। उन्हीं लोगों ने सुनीलम को बताया कि तहसील पर पुलिस की फायरिंग शुरू हो गई है।
अचानक शुरू हुई पुलिस की फायरिंग
उसी दिन तत्कालीन बसपा सुप्रीमो काशीराम भी मुलताई आए थे, लेकिन वे अपनी सभा जल्दी खत्म कर लौट गए थे। पुलिस को आंदोलन के बारे में सारी जानकारी पहले से दे दी गई थी। यह तय था कि काशीराम की सभा के बाद किसान तहसील कार्यालय में तालाबंदी करेंगे। लेकिन पुलिस का ऐक्शन इससे पहले ही शुरू हो गया।
अस्पताल में भी गोलियां बरसा रहे थे पुलिसकर्मी
तहसील पर पुलिसवाले अंधाधुंध फायरिंग कर रहे थे। इतना ही नहीं, वे किसानों पर पत्थर भी फेंक रहे थे। माहौल देखकर लग रहा था कि पुलिस-प्रशासन ने पूरी तैयारी के साथ आंदोलन पर हमला बोला था। सुनीलम और आंदोलन के दूसरे नेता पुलिस से फायरिंग रोकने की गुहार लगा रहे थे, लेकिन इसका कोई असर नहीं हो रहा था। किसान लगातार घायल होकर अस्पताल पहुंच रहे थे। अस्पताल के सभी वॉर्ड में घायल किसानों की कराहें सुनाई पड़ रही थीं। हालत यह थी कि पुलिसवाले अस्पताल पर भी गोलियां बरसा रहे थे।
थमा नहीं पुलिसिया अत्याचार
इसके बाद शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया, लेकिन पुलिस के अत्याचार यहीं नहीं रुके। पुलिस और प्रशासन आंदोलन के नेताओं की तलाश में जुट गए। सुनीलम किसानों के साथ अस्पताल में थे। रात होने पर कलेक्टर और एसपी अस्पताल आए और सुनीलम को मुलताई की जेल लेकर गए। वहां उनकी बेरहमी से पिटाई की गई। अगले दिन उन्हें बेहोशी की हालत में पारेगांव रोड पर बंदूक के साथ झाड़ियों में फेंक दिया गया। उनका एनकाउंटर करने की योजना थी, लेकिन पुलिसवाले के आपसी झगड़े में उनकी जान बच गई।
24 किसानों की हो गई मौत
इस पूरे वाकये में 24 किसानों की मौत हो गई। बताया जाता है कि पुलिस ने 150 राउंड से ज्यादा फायरिंग की थी। इस घटना को कई बार एमपी के जालियांवाला कांड के रूप में याद किया जाता है। कई घर उजड़ गए। पुलिस ने सैकड़ों किसानों पर केस दर्ज किया गया। सुनीलम के खिलाफ सरकार ने 60 से ज्यादा मुकदमे दर्ज किए। उन्हें हथकड़ी से बांधकर कोर्ट में पेश किया गया। जज ने सबसे पहले उनकी हथकड़ियां खुलवाईं। चार महीने जेल में रहने के बाद उन्हें जमानत मिली थी।
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