मायावती की अजब पॉलिटिक्स की गजब पहेली: विधानसभा चुनाव में निष्क्रिय, निकाय चुनाव में हाइपर एक्टिव | Amazing puzzle of Mayawati’s politics: Inactive in assembly election | Patrika News

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मायावती की अजब पॉलिटिक्स की गजब पहेली: विधानसभा चुनाव में निष्क्रिय, निकाय चुनाव में हाइपर एक्टिव | Amazing puzzle of Mayawati’s politics: Inactive in assembly election | Patrika News

मायावती की अजब पॉलिटिक्स की गजब पहेली: विधानसभा चुनाव में निष्क्रिय, निकाय चुनाव में हाइपर एक्टिव | Amazing puzzle of Mayawati’s politics: Inactive in assembly election | News 4 Social


यूपी उपचुनाव में मुस्लिम बाहुल्य सीट रामपुर हारने पर बसपा सुप्रीमो मायावती ने सपा पर जोरदार हमला बोला है। रामपुर आजम खान का गढ़ था। आजम खान यहां से 10 बार विधायक रहे। 2002 से लगातार इस सीट पर लगातार सपा का कब्जा था।

इस उपचुनाव में बीजेपी के वापसी के बाद दोनों तरफ से आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है। मायावती ने बीजेपी पर भी निशाना साधा है। सभी पार्टियों की नजर 2024 में होने वाले लोकसभा इलेक्शन पर टिकी है।

लेकिन, उससे पहले यूपी में निकाय चुनाव को सेमीफाइनल मैच की तरह है। मायावती का हाइपर एक्टिव होना इसी स्ट्रेटेजी से जोड़ कर देखा जा रहा है। आइए पूरी कहानी में उतरते हैं…

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विरोधियों पर तीखे हमले करके मायावती यह दिखाने की पूरी कोशिश करती हैं की वो अपने पुराने फॉर्म में लौट चुकी हैं। पॉलिटिक्स के मैदान में वो भले ही एक्टिव न हों, लेकिन बयानबाजी के मैदान में वो उतर कर बढ़त बना लेती हैं।

उनका मकसद अपने कोर वोटरों को यह बताना भी होता है कि बसपा अपने लोगों के हित के लिए खड़ी है। वो कहीं न कहीं इसमें कामयाब भी दिखतीं हैं। उनके रैलियों में उमड़ती भीड़ इस बात की गवाही देती है।

मार्च में हुए यूपी विधानसभा में मायावती एक्टिव नहीं दिखीं, फिर भी उनको 12% वोट मिला। यह फिगर इस फैक्ट प्रूव करता है कि अपने कोर वोटरों पर उनकी पकड़ आज भी मजबूत है।

विधानसभा चुनाव के बाद से उनके एक्टिव नहीं होने के कारण दलित वोटर किसी और दलित चेहरे को अपने नेता के रूप में ढूंढ रहा था।

बीजेपी ने इस वोट बैंक की जातिगत राजनीती को साधते हुए इसमें सेंध लगाने का काम किया है। फ्री राशन स्कीम, मनरेगा जैसी स्कीम्स का एग्जाम्पल देकर बीजेपी यह प्रूव करने की पूरी कोशिश करती है कि दलितों का सच में कोई हितैषी है तो वो बीजेपी ही है।

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दलित वोटरों के डायवर्जन की शुरुआत पश्चिमी यूपी से होती है

दलित वोटरों को मायावती के बाद अगर किसी नेता ने ज्यादा पॉलिटिकली अट्रैक्ट किया है तो वो हैं भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद, चंद्रशेखर दलित वोट बैंक में सेंधमारी करने की भरपूर कोशिश करते दिख रहे हैं।

आजाद के सभी कोशिशों के बीच मायावती पुराने वोट समीकरण को अपने पक्ष में करने की कोशिश करती दिख रही हैं। यूपी की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा दलित और मुस्लिम गठजोड़ के जरिए सत्ता की सीढ़ी चढ़ती रही है।

2007 में जब उनकी सरकार बनी थी तब ब्राम्हणों ने बसपा का खुलकर समर्थन किया था। बसपा में सतीश चंद्र मिश्र ब्राम्हण चेहरे के अगुआ थे।

माया के ताजा जुबानी हमले यह दर्शाते हैं कि वह 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की नैया पार लगाने में कोई चूक नहीं करना चाहतीं। हालांकि, यह नगर निकाय चुनाव 2022 बसपा के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है।

इस प्रयोग में बसपा अगर सफल रही तो उसकी बल्ले-बल्ले है नहीं तो वो अभी जिस पोजीशन पर हैं उसको होल्ड करना भी मुश्किल हो जाएगा। निकाय चुनाव में बसपा के अच्छे प्रदर्शन का मतलब है कि सपा और भाजपा को करारा जवाब मिलना। लेकिन, अगर ऐसा नहीं होता तो बसपा के कोर वोटरों का सपा-भाजपा के पाले में जाने का डर रहेगा।

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सपा-भाजपा पर तीखा हमला, आजम के लिए मीठे बोल, क्या है वजह?

मायावती का सपा पर हमला पार्टी को बहुत दर्द देता है। दर्द हो भी क्यों नहीं, मायावती अपने रैलियों में सबसे ज्यादा जुबानी हमले सपा पर ही करती हैं। उनके भाषण का अधिकतर पार्ट सपा के आलोचना पर ही केंद्रित होता है।

आजम की हार के बाद मुस्लिम वोटरों को अपने पक्ष में भुनाने के लिए मायावती ने बीजेपी को भी मिलीभगत का साथी कहा है। सपा के दिग्गज नेता, मुस्लिमों के बड़े चेहरे आजम खान पर उनका रुख नर्म है। रामपुर सहित 3 सीटों पर हुए उपचुनाव में बसपा ने किसी भी सीट पर अपने कैंडिडेट खड़े नहीं किए थे।

इसी साल मार्च में हुए विधानसभा चुनाव के बाद 9 महीनों में कुल 6 उपचुनाव हो चुके हैं। जिसमें से केवल आजमगढ़ से बसपा ने कैंडिडेट को टिकट दिया था।

चुनाव के ठीक बाद आजमगढ़ से अखिलेश यादव और रामपुर से आजम खान ने इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद यहां उपचुनाव हुए। गोला गोकर्णनाथ सीट पर बीजेपी विधायक अरविंद गिरी के निधन के बाद उपचुनाव हुए।

इन तीनों सीटों पर बीजेपी ने अपने जीत के झंडे गाड़ दिए थे। विधानसभा चुनाव में आजमगढ़ जिले में सभी 10 सीटों जीतने के बावजूद सपा उपचुनाव में हार गई।

रामपुर विधानसभा सीट पर सपा विधायक आजम खान की सदस्यता और खतौली विधानसभा सीट पर विक्रम सिंह सैनी की सदस्यता जाने के बाद उपचुनाव हुआ। वहीं, मैनपुरी लोकसभा सीट पर सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद उप चुनाव हुआ।

इन सभी में केवल आजमगढ़ उपचुनाव के मैदान में ही बहुजन समाज पार्टी पूरे दमखम के साथ लड़ती नजर आई। बसपा ने आजमगढ़ से गुड्डू जमाली को लड़ाया था। गुड्डू 2 लाख 60 हजार वोट पाने में कामयाब भी हुए थे। बसपा को 2.6 लाख वोट मिलने से सपा के अधिकतर वोटर छिटक गए थे नतीजन सपा के गढ़ में भाजपा ने सेंधमारी कर दी।

बीजेपी के कैंडिडेट दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ ने सपा के धर्मेंद्र यादव को 8 हजार से अधिक वोटों से हरा दिया। मायावती अब अटैकिंग मोड में हैं। निशाने पर सपा और भाजपा है। उन्होंने इन दोनों पर आपस में चुनावी सेटिंग करने का आरोप लगाया है।

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मुस्लिमों को पक्ष में करके दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने पर जोर

मायावती की नजर एकमुश्त 20% मुस्लिम वोट बैंक पर है। यूपी इलेक्शन 2022 के बाद से ही वह इस वोट बैंक को साधने की कोशिश में लगी हुई हैं। आजम को जेल में रहने का मैटर हो या मुस्लिमों पर कार्रवाई का मायावती ने हर मुद्दे पर खुलकर मुस्लिमों का समर्थन किया है।

इस विधानसभा चुनाव में बसपा का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन था। पार्टी केवल बलिया जिले की रसड़ा सीट ही जीतने में कामयाब रही, जहां से उमाशंकर सिंह विधायक बने।

उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को जीत के ट्रैक पर वापस लाने की है, लोगों को भरोसे में लेने की है। मुस्लिमों के लिए सॉफ्ट कार्नर इसी प्लान का हिस्सा है।

मायावती पिछले 30 सालों से 20 से 25% वोट बैंक की पॉलिटिक्स करती आ रही हैं। दलित में जाटव वोट बैंक उनका बेस है, अन्य दलितों के बीच भी वे स्वीकार्य रही हैं।

ओबीसी वोट बैंक का एक बड़ा तबका यानी गैर यादव और मुस्लिम वोट बैंक 2014 से पहले मायावती के साथ जुड़ा था। लेकिन, यूपी में पीएम नरेंद्र मोदी के बढ़ते ग्राफ के बाद से ओबीसी वोट बैंक बसपा से लगातार दूर जाता रहा।

2022 के विधानसभा चुनाव में गैर जाटव जातियों में सेंधमारी हुई। सत्ता से बाहर बसपा वोट बैंक को साधने की कोशिश में लगी तो रही है, लेकिन उसमें कामयाब नहीं हुई। इस स्थिति से निपटने के लिए मायावती एक अलग समीकरण बिठाने में लगीं हैं। जिसको DM फैक्टर कहा जा रहा है। यानी दलित-मुस्लिम का गठजोड़।

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आजम के सहारे मुस्लिमों की सहानुभूति मिलने की उम्मीद

आजम खान का मसला उठाकर माया मुस्लिमों के बीच पहुंचने की कोशिश में हैं। उन्हीं के सहारे मुस्लिमों की सहानुभूति मिलने की उम्मीद जता रही हैं। अपने इस समीकरण से वो समाजवादी पार्टी के मुस्लिम और यादव फैक्टर को डैमेज कर सकती हैं।

चुनाव के बाद से ही अखिलेश पर मुस्लिमों को इग्नोर करने का आरोप लगता रहा है। लेकिन पिछले दिनों अखिलेश ने आजम का मुद्दा बहुत ही गर्मजोशी से उठाकर इस सिचुएशन से निपटने की भरपूर कोशिश की है।

लेकिन, रामपुर लोकसभा सीट के बाद विधानसभा सीट पर भी सपा के हार बाद अखिलेश के रामपुर की रणनीति पर प्रश्न खड़े हुए हैं। माया इसी का फायदा उठाने में लगी हैं।

दलित पॉलिटिक्स का वैकल्पिक चेहरा बने चंद्रशेखर, क्या हासिल कर पाएंगे माया जैसा कद?

RLD के कैंडीडेट मदन भइया के खतौली के जीत के बाद से यह दावा किया जा रहा है कि दलित वोट बैंक पर चंद्रशेखर आजाद की पकड़ मजबूत हुई है। चंद्रशेखर आजाद ने राष्ट्रीय लोक दल उम्मीदवार के सपोर्ट में भी वोट मांगा था।

इस उपचुनाव से बसपा ने दूरी बनाई थी। ऐसे में दलितों के लिए चंद्रशेखर से बड़ा कोई दलित नेता नहीं दिखा। कुछ परसेंटेज दलितों ने बीजेपी के पक्ष में वोट किया, तो अधिकतर ने जयंत के पार्टी के पक्ष में।

सैयद शहबाज अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में रिसर्च स्कॉलर हैं। वह बहुजन राजनीति को काफी करीब से समझते हैं। वो कहते हैं कि इस उपचुनाव में समीकरण भले ही जयंत और चंद्रशेखर के पक्ष में गया हो, लेकिन, मायावती जैसे ही अपने कैंडिडेट को लड़ाएंगी सिचुएशन सेम नहीं रहने वाली।

आज भी दलितों के लिए माया सबसे लोकप्रिय और विश्वसनीय नेता हैं। 2022 में दलितों का 12% एकमुश्त वोट पाकर उन्होंने इस बात को साबित भी किया था।

फिलहाल में चंद्रेशखर का कद इतना बड़ा नहीं हो गया है कि वो मायावती के लिए बड़ी चुनौती बन सकें। चंद्रशेखर का पश्चिमी यूपी में अच्छी पकड़ है जबकि मायावती पूरे यूपी में दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं।

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निकाय चुनाव से ही बसपा को ग्रास रूट लेवल से जोड़ने की है प्लानिंग

फिलहाल में माया के निशाने पर निकाय चुनाव है। नगर निकाय चुनाव के जरिए वह बसपा को ग्रास रूट लेवल की पार्टी में एस्टाब्लिश करने के प्रयास में लगी हैं। इसको पूरा करने के लिए उनको मुस्लिम प्लस दलित वोट बैंक के समीकरण की जरुरत होगी।

2017 के नगर निकाय चुनाव में कुल 16 सीटों में 2 नगर निगम पर बसपा ने जीत दर्ज की थी। जबकि, भाजपा को 14 पर एकतरफा जीत मिली थी। नंबर को इकाई से दहाई तक पहुंचाने में मायावती लगी हुई हैं।

वो अगर सफल हो जाती हैं तो वह अपने वोट बैंक को बड़ा मैसेज देने में कामयाब होंगी कि आज भी उनका पॉलिटिकल ग्राफ आगे बढ़ रहा है। सपा और बीजेपी से नाराज वोटरों के लिए वो बसपा को अल्टरनेटिव पार्टी के रूप में फिर से एस्टाब्लिश कर पाएंगी।

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बीजेपी की बी टीम होने का सपा लगाती रही है आरोप

समाजवादी पार्टी अक्सर मायावती पर बीजेपी की बी-टीम होने का आरोप लगाती रही है। यह आरोप और तेज हो जाते हैं। जब मायावती किसी सभा में सपा को गुंडों की पार्टी कहकर संबोधित कर देती हैं।

उन्होंने कई पॉलिटिकल रैली में कहा है कि अगर गुंडागर्दी से बच कर रहना है तो सपा को छोड़कर किसी को भी वोट दे देना।

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