भारत-पाकिस्तान कारगिल वार, आगरा दौरा और फेल शिखर सम्मेलन … अटल- परवेज मुशर्रफ वार्ता की विफलता का क्या कारण

9
भारत-पाकिस्तान कारगिल वार, आगरा दौरा और फेल शिखर सम्मेलन … अटल- परवेज मुशर्रफ वार्ता की विफलता का क्या कारण

भारत-पाकिस्तान कारगिल वार, आगरा दौरा और फेल शिखर सम्मेलन … अटल- परवेज मुशर्रफ वार्ता की विफलता का क्या कारण


लखनऊ: पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का लंबी बीमारी के बाद रविवार को दुबई में निधन हो गया। वह 79 वर्ष के थे। परिवार के लोगों ने जानकारी दी कि वे अमाइलॉइडोसिस नामक बीमारी से पीड़ित थे। उनके अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। परवेज मुशर्रफ 2001 से 2008 तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे। इससे पहले वे पाकिस्तान के आर्मी चीफ थे। उन्होंने नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर पाकिस्तान की गद्दी पर कब्जा जमाया था। भारत के साथ कारगिल में हुए युद्ध में परवेज मुशर्रफ की भूमिका अहम मानी जाती है। वर्ष 1999 में भारत और पाकिस्तान की सेना ने कारगिल में एक दूसरे के सामने थी। युद्ध के महज 2 साल के भीतर भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान आमने-सामने थे। आगरा में शिखर सम्मेलन हुआ। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की वार्ता उस समय वैश्विक मीडिया में चर्चा का विषय बनी थी। हालांकि, यह वार्ता विफल रही। इसे इसी रूप में आज भी याद किया जाता है।

कारगिल युद्ध को दो बातों के लिए आज के समय में भी याद किया जाता है। यह युद्ध भारतीय सेना का आदम्य में शौर्य और दूसरा परवेज मुशर्रफ की कुटिलता के लिए जाना जाता है। परवेज मुशर्रफ ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए कारगिल में युद्ध छेड़ा था। पाकिस्तान के सेना प्रमुख के रूप में उन्होंने यह फैसला लिया। अपनी आत्मकथा ‘इन द लाइन ऑफ फायर’ में परवेज मुशर्रफ लिखते हैं कि पाकिस्तानी सेना कारगिल युद्ध में शामिल थी। इससे पहले पाकिस्तान हमेशा कारगिल युद्ध में अपनी सेना की संलिप्तता से इंकार करता रहा था। हालांकि, अपनी पुस्तक में मुशर्रफ ने हार की शर्मिंदगी से बचने के लिए पूरी जिम्मेदारी उस समय के पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर डाल दी थी। उन्होंने आरोप लगाया कि नवाज शरीफ ने कारगिल युद्ध से पाकिस्तानी सेना का हाथ खींचने का दबाव बनाया था।

युद्ध के बाद बदली स्थिति

कारगिल युद्ध के बाद पाकिस्तान की स्थिति बदली। देश में सैन्य शासन लागू हुआ। परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान की सत्ता पर काबिज हो गए। इसके बाद पाकिस्तान ने भारत के साथ मित्रता बढ़ाने शुरू की। पूरे मामले को लेकर जुलाई 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी और परवेज मुशर्रफ के बीच आगरा में बहुचर्चित मुलाकात हुई। इस शिखर वार्ता में कश्मीर मसले से लेकर आतंकवाद तक पर चर्चा हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने परवेज मुशर्रफ से कश्मीर में सीमा पार आतंकवाद की गतिविधियों पर लगाम लगाने की बात कही। इस दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने भारत के वांछित आतंकी दाऊद इब्राहिम को भारत को सौंपने की भी बात परवेज मुशर्रफ के सामने उठा दी। परवेज मुशर्रफ और और वार्ता पटरी से उतर गई। हालांकि, इस वार्ता के विफल होने का सबसे बड़ा कारण मुशर्रफ का कश्मीर राग माना जाता है।

ऐसे पड़ी थी आगरा शिखर सम्मेलन की नींव

भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध में सुधार की कोशिशें कारगिल युद्ध के बाद शुरू हो गई थी। बाद में दोनों देशों ने पुरानी कड़वाहट को भुलाकर एक मेज पर बैठने का फैसला लिया। कहा जाता है कि मई 2001 में एक दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और जसवंत सिंह लंच कर रहे थे। तीनों नेताओं के बीच पाकिस्तान को लेकर चर्चा छिड़ी। इस दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि अटल जी, आप पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को वार्ता करने के लिए भारत क्यों नहीं आमंत्रित करते हैं? दरअसल, आडवाणी ने यह प्रस्ताव काफी सोच- समझकर बनाया था। दरअसल, उस समय में मुशर्रफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अकेले पड़ गए थे। अपनी छवि बदलने को आतुर दिख रहे थे। जसवंत सिंह के समर्थन के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने आडवाणी के इस प्रस्ताव पर अपनी मंजूरी दे दी। 2001 में परवेज मुशर्रफ की भारत यात्रा की पृष्ठभूमि यहीं से तैयार हुई।

वार्ता के लिए ऐतिहासिक शहर आगरा को चुना गया। 15 और 16 जुलाई 2001 को आगरा के जेपी पैलेस होटल में दोनों देशों के बीच शिखर वार्ता हुई। आगरा पहुंचने के बाद जनरल परवेज मुशर्रफ ने अपनी पत्नी सबा मुशर्रफ के साथ प्रेम की निशानी ताजमहल का दीदार किया। दोनों देशों के बीच आगरा शिखर बैठक का आयोजन हुआ, लेकिन यह बैठक कोई परिणाम देने में कामयाब नहीं रहा। कारगिल युद्ध के 2 साल बाद 14 जुलाई 2001 को मुशर्रफ दिल्ली आए थे। तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से उनकी मुलाकात हुई। मुलाकात के दौरान आडवाणी ने मुशर्रफ के सामने दाऊद इब्राहिम का नाम लिया। इसके बाद ही वार्ता की विफलता की बात कही जाने लगी।

क्या हुई थी आडवाणी-मुशर्रफ की बात

लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री माई लाइफ’ में लिखते हैं कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से मुलाकात के दौरान तुर्की यात्रा का जिक्र किया गया था। तुर्की ने भारत के साथ प्रत्यर्पण संधि की थी। आडवाणी ने मुशर्रफ से कहा क्यों न भारत और पाकिस्तान भी प्रत्यर्पण संधि कर ले। इस प्रत्यर्पण संधि से दोनों देशों को फायदा होगा। दोनों देशों में छिपे अपराधियों को पकड़कर कानून के कटघरे में लाने में कामयाब मिलेगी। शुरुआती क्षणों में मुशर्रफ ने आडवाणी की हां में हां मिलाई। मुशर्रफ ने भी कहा कि हम दोनों को प्रत्यर्पण संधि करनी चाहिए। मुशर्रफ के इतना कहते ही लालकृष्ण आडवाणी ने दाऊद इब्राहिम का जिक्र कर दिया। इसके बाद मुशर्रफ के होश उड़ गए। आडवाणी ने मुशर्रफ के सामने प्रस्ताव रखा कि औपचारिक रूप से इस संधि को लागू करने से पहले पाकिस्तान 1993 के मुंबई बम धमाकों के आरोपी दाऊद इब्राहिम को भारत को सौंप दे। इससे दोनों देशों के बीच शांति प्रक्रिया को मजबूती मिल सकेगी। यहीं से आगरा शिखर सम्मेलन के फेल होने की कवायद शुरू हो गई थी।

… और विफल हो गई शिखर वार्ता

आगरा शिखर सम्मेलन के आखिरी दिन 16 जुलाई को संयुक्त प्रस्ताव आना था। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और परवेज मुशर्रफ बातचीत की मेज पर तो बैठे, लेकिन पाकिस्तान न तो शिमला समझौते का जिक्र करने के लिए तैयार हुआ। न ही लाहौर समझौते की बात की। कश्मीर में सीमा पार से आतंकवादियों को मिल रही मदद का जिक्र करने को भी पाकिस्तान तैयार नहीं हुआ। पाकिस्तान की ओर से लगातार कश्मीर के मुद्दे पर ही बातचीत में जोर दिया जाता रहा। इस वजह से बातचीत पूरी तरह से फेल हुई। मुशर्रफ खाली हाथ पाकिस्तान लौटे। यात्रा के दौरान मुशर्रफ को अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भी जाना था। लेकिन, नहीं गए। मुशर्रफ ने अपनी आत्मकथा में इस वाकये का जिक्र करते हुए लिखा है कि मैंने वाजपेयी से कह दिया था कि लगता है कोई ऐसा शख्स है, जो हम दोनों से भी ऊपर है। जिसके आगे हम दोनों की नहीं चली। हम दोनों शर्मिंदा हो गए। वहीं, लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में इस मुद्दे का जिक्र करते हुए लिखा है कि मुशर्रफ ने मेरा नाम तो नहीं लिया। मगर साफ तौर पर उनका इशारा मेरी ही तरफ था।

जब अटल जी ने पूछा था क्यों नहीं रख रहे मीट

अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के दौरे के दौरान रात्रि भोज का आयोजन किया था। इसके लिए मुंबई से ताज होटल के निदेशक सेफ हेमंत ओबेरॉय को विशेष रूप से बुलाया गया। उनके निर्देशन में सारे व्यंजन तैयार किए गए। वाजपेयी खुद हेमंत ओबेरॉय के पकवानों के मुरीद थे। इस मौके पर हेमंत ओबराय ने सिकंदरी रान, बिरियानी और मलाई कोफ्ता जैसे व्यंजन बनवाए थे। रात्रि भोज शुरू हुआ। मुशर्रफ खाने की टेबल पर आए। लेकिन, उन्होंने शाकाहारी खाना चुना। अटल जी ने इस पर गौर किया। उन्होंने देखा कि वे दोनों एक ही टेबल पर खाना ले रहे हैं। उन्होंने मुशर्रफ से पूछा कि वह शाकाहारी व्यंजन क्यों खा रहे हैं। मुशर्रफ ने इस पर जवाब दिया था कि शायद यह हलाल मांस नहीं है। अटल ने तुरंत हेमंत ओबरॉय को बुलाया। जानकारी ली। हेमंत ओबेरॉय ने उन्हें बताया कि गोश्त हलाल था। इसके बाद मुशर्रफ ने लजीज मांसाहार व्यंजन का खूब स्वाद लिया था। हेमंत ओबरॉय इस संस्मरण को कई जगहों पर सुना चुके हैं।

राजनीति की और खबर देखने के लिए यहाँ क्लिक करे – राजनीति
News