बिजनस बेचा-जमीन भी गिरवी.. अपना सबकुछ गंवाकर हॉकी चैंपियन तैयार कर रहा यह गुमनाम कोच

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बिजनस बेचा-जमीन भी गिरवी.. अपना सबकुछ गंवाकर हॉकी चैंपियन तैयार कर रहा यह गुमनाम कोच


बिजनस बेचा-जमीन भी गिरवी.. अपना सबकुछ गंवाकर हॉकी चैंपियन तैयार कर रहा यह गुमनाम कोच

‘मेरी आखिरी सांस तक, जबतक मेरे भीतर जिंदगी बची है, मैं यही करूंगा, मैं ये काम करते-करते मर जाऊंगा’

ये कहानी है ओड़िशा के डोमिनिक टोप्पो की। 71 साल का वो जूनुनी कोच जिनके चुस्त शरीर से उनकी उम्र का अंदाजा नहीं लगता। हॉकी के लिए ऐसा पैशन, ऐसा पागलपन कि अपना बिजनस तक बेच दिया। पुश्तैनी जमीन गिरवी रख दी। कभी-कभी तो दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती, लेकिन हॉकी प्लेयर्स तैयार करने की भूख बरकरार है। ये डोमिनिक जैसे लोग ही हैं, जिनके बूते देश में हॉकी की आत्मा जिंदा है। वरना क्रिकेट की अमीरियत के नीचे अपना नेशनल गेम कब का दम तोड़ चुका होता।

सूरज के उगने से पहले उठना और ढलने के बाद ही घर पहुंचना, बीते 22 साल से डोमिनिक टोप्पो का रूटीन कुछ ऐसा ही है। डेली 40-50 किलोमीटर साइकल चलाकर मैदान पहुंचते हैं। छोटे बच्चों को स्टिक पकड़ना सिखाते हैं। प्यार से समझाते हैं तो कभी चिल्लाते हैं। इस हॉकी ने टोप्पो से उनका सबकुछ छिन लिया। अच्छी-खासी चलते वाली राशन की दुकान बंद हो गई। पुश्तैनी जमीन बिक गई। मगर ये संघर्ष जाया नहीं गया। उन्होंने 100 से ज्यादा नेशनल प्लेयर्स तैयार किए, जिसमें से 13 भारतीय टीम के लिए खेले या खेल रहे हैं।

ओड़िशा के राउरकेला के रहने वाले डोमिनिक टोप्पो उन कोचेस में से एक हैं, जिन्हें कभी वो पहचान, दौलत-शोहरत नहीं मिलती, जिसके वो हकदार हैं, लेकिन नेम-फेम चाहिए भी किसे था। टोप्पो की हॉकी फैक्ट्री सबसे अलग हैं। सबसे जुदा है। यहां कोई मॉर्डन टेक्निक नहीं है। कोई प्रेजेंटेशन कोई, वीडियो फुटेज नहीं है, सिर्फ जज्बा है और हॉक के लिए पागलपन।

अपने इस सफर के बारे में डोमिनिक टोप्पो बताते हैं, ‘मेरा पिता हॉकी खेला करते थे तो ये खेल मुझे विरासत में मिला। पूरा बचपन हॉकी फील्ड में ही गुजरा। शुरुआत में बांस की लकड़ी से खेला करता। उसी लकड़ी सारे डिफेंडर्स को छकाता और एक गोल पोस्ट से दूसरे गोल पोस्ट तक पहुंच जाता। तब मुझे कोई गाइड करने वाला नहीं था। भारतीय टीम से खेलने का सपना सिर्फ सपना ही रह गया। अब बच्चों को भारतीय टीम के लिए तैयार कर अपना सपना पूरा कर रहा हूं।’

ऐसा नहीं है कि हॉकी छोड़ते ही डोमिनिक टोप्पो कोचिंग करने लगे। पहले उन्होंने एक राशन दुकान खोली, जिससे बढ़िया आमदनी होने लगी, इसी के बूते कोच बनने की ठानी। शुरू में सिर्फ ऐसे बच्चों को ट्रेनिंग देते, जिनके मां-बाप नहीं है। ये आइडिया मदर टेरेसा से आया था। साइकिल में घूम-घूमकर बच्चों की खोज करते। लड़कों से लड़कियां ज्यादा अनुशासित होती है, इसलिए उन्हें ही ट्रेनिंग देते। इंटरनेशनल खिलाड़ियों को खेलते देखते फिर उसी स्टाइल में ट्रेंनिग देते।

इस बीच डोमिनिक टोप्पो की बीवी दुनिया को अलविदा कह देती है, जो उनकी बैकबोन थी। सपोर्ट सिस्टम थी। हॉकी के चलते राशन की दुकान में ध्यान नहीं दे पा रहे थे तो उसे भी बेच दिया। कोचिंग के खर्च ने 12 एकड़ पुश्तैनी जमीन गिरवी रखवा दी। न किसी से मदद मांगी और न कोई मदद करने आगे आया। जमीन गिरवी रखने के बाद 60 हजार रुपये मिले। ब्याज नहीं चुका पाने के चलते आज जमीन भी गंवा बैठे। अब उनकी आय का एकमात्र सोर्स सांगवान के वो पेड़ हैं, जिन्हें बेचकर वो 12-15 हजार रुपये महीने कमाते हैं। इन पैसों से अपनी टीम को देशभर में टूर्नामेंट खिलवाते हैं। कई बार तो इतने भी पैसे नहीं बचते कि खाना खा पाए।

अब आखिरी में कहानी वही खत्म जहां से शुरुआत हुई थी कि ‘मेरी आखिरी सांस तक, जबतक मेरे भीतर जान है, मैं ये जारी रखूंगा, मैं यही काम करते-करते मर जाऊंगा’।

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