बाला साहेब के निधन के बाद उद्धव ने लिए तीन बड़े फैसले, अब पिता की शिवसेना को बचा पाने की चुनौती

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बाला साहेब के निधन के बाद उद्धव ने लिए तीन बड़े फैसले, अब पिता की शिवसेना को बचा पाने की चुनौती

मुंबई:शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने बुधवार रात को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद और राज्य विधान परिषद से इस्तीफे की घोषणा के बाद खुद कार चलाते हुए राजभवन पहुंचे। राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंपने के बाद निकले तो भी ड्राइविंग सीट पर वही बैठे थे। उद्धव राजभवन से सीधे पास के एक मंदिर में गए और कुछ देर रुककर चले गए। चूंकि राजनीति में संकेतों के बहुत मायने होते हैं, इसलिए कहा जा रहा है कि उद्धव का कार की ड्राइविंग खुद करने के पीछे भी बड़ा संकेत है। दरअसल, उद्धव ने ड्राइविंग सीट पर बैठकर बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह दिया। मसलन ये कि शिवसेना की ड्राइविंग सीट पर आज भी वही हैं और ये कि उन्होंने पार्टी संगठन को मजबूत करने के लिए वीआईपी रुतबे की जगह जमीनी नेता की अपनी छवि मजबूत करने की ठान ली है।

सीएम नहीं रहे उद्धव, अब पार्टी बचाने की चुनौती

उद्धव ने बहुमत परीक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिलने के बाद रात 9.30 बजे फेसबुक लाइव में इस्तीफे की घोषणा की। उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ने का ऐलान करते वक्त कहा कि उन्हें सीएम बनना ही नहीं था, अब वो वहीं करेंगे जो करना चाहिए। मतलब साफ है कि उद्धव ठाकरे अब सिर्फ और सिर्फ संगठन की देखभाल करेंगे और पूरा फोकस विद्रोह के कारण खोखली हो गई पार्टी में फिर से जान लाने पर रखेंगे। उधर, पार्टी के दो तिहाई से ज्यादा विधायकों को उड़ा ले जाने वाले बागी गुट के नेता एकनाथ शिंदे का दावा है कि शिवसेना उनकी है। ऐसे में उद्धव ठाकरे के लिए शिवसेना को अपने पास बनाए रख पाने की भी बड़ी चुनौती है।

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पिता की परंपरा तोड़ सीएम बने थे उद्धव

वर्ष 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव हुआ तो शायद ही किसी ने सोचा होगा कि उद्धव ठाकरे अपने पिता बाला साहेब ठाकरे की तय परंपरा को ही तोड़ देंगे। बाला साहेब ने 1966 में शिवसेना की स्थापना की थी और 2012 तक, 46 वर्ष के अपने राजनीतिक जीवन में कभी सरकार में शामिल नहीं हुए। उन्होंने सरकारें बनवाईं, पार्टी नेताओं को मंत्री बनवाया, लेकिन खुद सरकार से दूरी बनाकर ही रहे। उद्धव ठाकरे ने भी 2014 में बीजेपी के साथ सरकार बनाई लेकिन खुद सरकार में शामिल नहीं हुए। बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बने और बीजेपी-शिवसेना गठबंधन ने पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया। फिर 2019 के विधानसभा चुनाव में भी इस गठबंधन को बहुमत हासिल हो गया, लेकिन इस बार उद्धव पलट गए। उन्होंने शर्त रख दी कि शिवसेना और बीजेपी ढाई-ढाई वर्ष के लिए मुख्यमंत्री बनाएगी और पहले शिवसेना का मुख्यमंत्री बनेगा।

परिस्थितियों ने मुख्यमंत्री बनाया या मुख्यमंत्री पद के लिए परिस्थितियां बनाई गईं?
शिवसेना ने ढाई-ढाई साल के सीएम का फॉर्मुला चुनाव से पहले ही फाइनल होने का दावा किया जिसे बीजेपी झूठ बताती रही। आखिर तक न शिवसेना झुकी और न बीजेपी ने शर्त स्वीकार की। 106 सीटों वाली बीजेपी ने 56 सीटों वाली शिवसेना को महाराष्ट्र सरकार की ड्राइविंग सीट पर बैठाने से इनकार कर दिया। फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) और कांग्रेस पार्टी के साथ कुछ निर्दलीय विधायकों के समर्थन से महाअघाड़ी गठबंधन (MVA) की सरकार बनी और उसके मुखिया बने उद्धव ठाकरे। अब जब उनकी सरकार गिर चुकी है तब कहा जा रहा है कि अगर बीजेपी ने 2019 में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनने दिया होता तो वह पद उद्धव ठाकरे नहीं बल्कि एकनाथ शिंदे को दिया जाता। शिवसेना का कहना है कि चूंकि एनसीपी और कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद के लिए उद्धव ठाकरे के नाम पर ही सहमति दी तो उन्हें अपने पिता की कायम परंपरा तोड़नी पड़ी।

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बाला साहेब ने पुत्र मोह पर तब कहा था…

बाला साहेब ने वर्ष 2004 में अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को शिवसेना की कमान सौंप दी थी। हालांकि, उनके छोटे भाई श्रीकांत के बेटे राज ठाकरे को इसका नैसर्गिक उत्तराधिकारी माना जा रहा था। लेकिन पुत्रमोह से पार पाना तो कठिन होता है ना। बाला साहेब ने एक टीवी कार्यक्रम में पुत्रमोह पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि अगर कोई अपने बेटे को बढ़ा रहा है तो इसका मतलब है कि उसके बेटे में दम नहीं है। इस पर जब उनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता है, उद्धव में दम है? तो बाला साहेब ने छूटते ही कहा कि दम होगा तो दिख जाएगा। लेकिन वर्ष 2004 में जब उन्होंने भतीजे राज पर बेटे उद्धव को तवज्जो दी तब उनका पुत्रमोह झलक ही गया। उद्धव से कहीं ज्यादा दमदार राज माने जा रहे थे, लेकिन बाला साहेब को बेटे में ही दम दिखा।

पिता के निधन के बाद उद्धव के तीन बड़े फैसले

बाला साहेब ठाकरे के निधन के 10 वर्ष हो चुके हैं। इस बीच उद्धव ठाकरे ने तीन बड़े फैसले किए। शिवसेना अध्यक्ष के रूप में पहला बड़ा फैसला 2014 के विधानसभा में लिया जब बीजेपी से गठबंधन तोड़कर शिवसेना अकेले चुनाव मैदान में उतरी। बाला साहेब का निधन हुए तब सिर्फ दो वर्ष हुए थे। दूसरा बड़ा फैसला उन्होंने 2019 के अगले विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद लिया। उद्धव ने ढाई-ढाई साल के फॉर्मुले के तहत पहले शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाए जाने की शर्त पर बीजेपी से नाता तोड़ लिया जबकि दोनों पार्टियों के गठबंधन को सरकार बनाने का स्पष्ट जनादेश मिला हुआ था। बीजेपी से अलग होने के ये दोनों फैसलों से भी बड़ा फैसला उद्धव ने तब लिया जब उन पार्टियों से गठबंध कर लिया जिनके प्रति बाला साहेब ने जीवन भर राजनीतिक अछूत जैसा व्यवहार किया। कांग्रेस पार्टी और उनकी अध्यक्षा सोनिया गांधी को लेकर उनके एक-दो नहीं, कई बेहद कड़वे बयान आज भी वायरल होते रहते हैं। वहीं, एनसीपी चीफ शरद पवार के प्रति भी उनका नजरिया ठीक तो नहीं ही था। उद्धव ठाकरे ने पिता की सोच और उनकी राजनीतिक समझ को ठिकाने लगाकर कांग्रेस-एनसीपी के साथ एमवीए बनाया। यह उनका तीसरा बड़ा फैसला था।

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1989 से ताउम्र बीजेपी के साथ रहे बाला साहेब

आप भी सोचते होंगे कि बाला साहेब ने 1989 में बीजेपी से हाथ मिलाया और ताउम्र साथ रहे। फिर उनके निधन के दो वर्ष बाद ही उद्धव ने बीजेपी से नाता क्यों तोड़ लिया था? शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत के बारे में कहा जाता है कि वो 1989 में भी शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के खिलाफ थे और बीजेपी के प्रति उनके मन में अलगाव का भाव कभी खत्म नहीं हुआ। लेकिन जब तक बाला साहेब जिंदा रहे तब तक राउत ने अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा दबाए रखी, लेकिन उनके निधन के बाद महत्वाकांक्षाएं हिलारों मारने लगीं। उन्होंने एनसीपी चीफ शरद पवार के साथ करीबी बढ़ा ली ताकि एक घर से निकलें तो दूसरे मकान में प्रवेश कर जाएं। संभवतः 2014 में शिवसेना के बीजेपी से अलग होकर चुनाव लड़ने के पीछे संजय राउत का ही हाथ था।

संजय राउत किसके आदमी हैं?

वही संजय राउत आज शिवसेना के बागी गुट के निशाने पर हैं। उनका कहना है कि संजय राउत ने उद्धव ठाकरे के पीठ में छुरा घोंपा है क्योंकि वो शरद पवार के निर्देशन में काम करते हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल जाने के बाद ढाई-ढाई वर्ष के चीफ मिनिस्टर के फॉर्मुले के बहाने अलग होने के पीछे भी संजय राउत का हाथ माना जाता है। बीजेपी प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी बुधवार को भी एक टीवी डिबेट के दौरान शिवसेना प्रवक्ता को चुनौती दे रहे थे कि वो 2019 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान किसी एक भी रैली में ‘शिवसेना का मुख्यमंत्री होगा’, ऐसा वादा करते हुए सबूत दे दें। अब एकनाथ शिंदा का बागी गुट भी खुलकर बोल रहा है कि एक तो बीजेपी से नाता तोड़ना गलत था, दूसरा शिवसेना का एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिलाना नीम पर करेला चढ़ने जैसा हो गया। वो कहते हैं कि उद्धव और कुछ नहीं बल्कि संजय राउत का मोहरा बनते गए और शिवसेना अपने संस्थापक की खींची लकीर को ही मिटाने पर उतारू हो गई।

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शिवसेना पर शिंदे गुट का दावा

बहरहाल, नौ दिनों बाद सूरत, गुवाहाटी होकर गोवा से मुंबई पहुंचे एकनाथ शिंदे गुट का दावा है कि असली शिवसेना वही है। उनकी दलील है कि चूंकि पार्टी के दो तिहाई से ज्यादा विधायक उनके खेमे में हैं, इसलिए शिवसेना पर वास्तविक हक उनका है। उधर, उद्धव ठाकरे ने बुधवार को इस्तीफे की घोषणा करते वक्त भी कहा कि मुख्यमंत्री पद जा रहा है, लेकिन शिवसेना तो उनका है। उसे वो मजबूत करेंगे और शिंदे गुट को जमीन पर पटखनी देंगे। ‘तेरा नहीं मेरा’ के दो विरोधी दावों के बीच शिवसेना का भविष्य की पैमानों पर तय होगा। इनमें पार्टी का अपना संविधान और चुनाव आयोग के नियम भी शामिल हैं। लेकिन इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि उद्धव ठाकरे के लिए शिवसेना को अपने पास कायम रख पाने की लड़ाई आसान तो नहीं होने वाली।

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