पंकज त्रिपाठी बोले- अपनी भाषा पर गर्व करिए, अंग्रेजी बोलने वाला भी मूर्ख हो सकता है

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पंकज त्रिपाठी बोले- अपनी भाषा पर गर्व करिए, अंग्रेजी बोलने वाला भी मूर्ख हो सकता है

पंकज त्रिपाठी बोले- अपनी भाषा पर गर्व करिए, अंग्रेजी बोलने वाला भी मूर्ख हो सकता है

पंकज त्रिपाठी अपने दमदार अभिनय और जमीन से जुड़े होने की वजह से सबके बीच खासा लोकप्रिय हैं। गैंग्स ऑफ वासेपुर, न्यूटन, बरेली की बर्फी जैसी फिल्मों में यादगार किरदार निभाने वाले ऐक्टर बॉयकॉट ट्रेंड को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं। इन दिनों वे अपनी वेब सीरीज क्रिमिनल जस्टिस- 3 की वजह से चर्चा में हैं। वह बीते दिनों लखनऊ में ‘मिर्जापुर-3’ की शूटिंग के लिए आए थे। वह कहते हैं कि अगर रंगमंच व्यावसायिक हो जाएगा तो 90 प्रतिशत लोग सिनेमा में नहीं जाएंगे। लखनऊ में ‘बरेली की बर्फी’, ‘गुंजन सक्सेना’ जैसी फिल्मों की शूटिंग कर चुके अभिनेता ने बीते दिनों नवभारत टाइम्स के यश दीक्षित से कई मुद्दों पर दिल खोलकर बातें कीं।

पहले मैं अंडरडॉग ही था
मैं ऐक्टिंग के शुरुआती दिनों में जैसा हुआ करता था, वैसा जुड़ाव एडवोकेट माधव मिश्रा के किरदार से रखता हूं। पहले हम अंडरडॉग ही थे। किसी को भरोसा नहीं होता होगा कि ये ऐक्टिंग कर भी पाएंगे या नहीं। लोग पूछ लेते थे कि ये सीन है, बोल पाएंगे ना। लखनऊ कोर्ट या आसपास के जिलों में चले जाएं तो माधव मिश्रा जैसे तमाम वकील मिल जाएंगे। आज तक कभी मुझे कचहरी के चक्कर नहीं लगाने पड़े। ईश्वर ना करे कि किसी को जाना पड़े। जीवन के मसले खुद ही सुलझा लें।

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आधी लड़ाई ईगो की है और आधी जमीन की
हर जीव का एक अपना स्थान होता है। वह अपना स्थान छोड़ देगा तो परेशानी में पड़ सकता है। मैं जमीन से जुड़ा आदमी हूं। मुझे गुस्सा बहुत कम आता है। साल में एक-दो बार ही आता है, वो भी दो-तीन मिनट के लिए। एक बार मेरी गाड़ी में टक्कर लग गई। मेरा नुकसान हुआ लेकिन फिर भी मैंने उस भाई को बाय किया, थम्सअप दिखाया और आगे चला गया क्योंकि मैं लड़ाई करके अपना और उसका समय नहीं खराब करना चाहता था। अध्यात्म पढ़ता हूं, संसार को जानना चाहता हूं, जब आप इस दिशा में चल पड़ते हैं तो पता चलता है कि संसार बहुत बड़ा है और हम बहुत छोटे हैं। राई के दाने के बराबर भी नहीं हैं। जब ये पता चलता है तो कोई घमंड कैसे कर सकता है। मैं अपमानित नहीं होता हूं क्योंकि आधी लड़ाई ईगो की होती है और आधी जमीन की।

मुंबई में भी गांव जीवित है
नए ऐक्टर्स के लिए भी घूमना बहुत जरूरी है। अब मैं काम की वजह से उस तरह से घूम नहीं पाता हूं। घूमने को मैं बहुत मिस करता हूं। मैं चाहता हूं कि एक यात्री की तरह भारत का कोना-कोना घूमने जाऊं। इधर काफी समय से केरल जाने की इच्छा हो रही है। काफी साल पहले वहां जाना हुआ था। घूमने से आदमी के सोचने का दायरा बढ़ता है। उसकी सोच बेहतर होती है और वो बड़ा बनता है। नया लैंडस्केप, संस्कृति, खाना, अनुभूति यही एफडी है। मैं मुंबई में मडगांव में रहता हूं। अपनी एक अलग दुनिया बनाकर रखी है, जिसमें गांव जीवित है। वहां आपको खटिया भी मिल जाएगी। दो-तीन महीने पर समय निकलकर अपने गांव भी हो आता हूं।

ऐक्टिंग 6 महीने में नहीं सिखाई जा सकती है
पंकज त्रिपाठी बताते हैं कि भारतेंदु नाट्य अकादमी के निर्देशक दिनेश खन्ना साहब मेरे भी शिक्षक रहे हैं। जो छात्र अभी पढ़ रहे हैं, उनसे भी यही कहना चाहूंगा कि सीखें, मूल्यांकन करें क्योंकि ऐक्टिंग छह महीने में नहीं सिखाई जा सकती। इसमें कोई बुरी बात नहीं है कि कोई ऐक्टर रंगमंच से होकर सिनेमा की ओर जाए। रंगमंच तभी बढ़ेगा, जब इसमें करियर की संभावना दिखने लगेंगी। जिस दिन ऐसा हो जाएगा, वहां भी भीड़ लगने लगेगी। हमारी न कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि है, न हम महानगरों में पले बढ़े लोग हैं। रंगमंच की ही देन है कि हम मुंबई चले गए और लगे रहे। रंगमंच जिस दिन व्यावसायिक हो जाएगा ना 90 प्रतिशत लोग सिनेमा में नहीं जाएंगे। ड्रामा स्कूल से निकलने के बाद अगर रंगमंच मेरे लिए पचास हजार रुपये का इंतजाम कर देता तो शायद मैं मुंबई नहीं जाता।

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भाषा का ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है
तमिल, मलयालम का ऐक्टर जब भी इंटरव्यू देता है तो अपनी भाषा में बात करता है। हिंदी का अभिनेता जब इंटरव्यू देता है तो अंग्रेजी में बात करता है। लोगों का नजरिया बन गया है कि जीवन में आपको तरक्की चाहिए तो अंग्रेजी आना जरूरी है, नहीं तो आप पिछड़ जाएंगे। मैं इसका उदाहरण हूं, जो बिना अंग्रेजी बोले, जो करना चाहता था कर रहा हूं। आप तमिल, तेलुगू, भोजपुरी चाहे जिस भाषा के हों अपनी भाषा पर गर्व करिए। इससे आपको बहुत कुछ मिलेगा। ये सिर्फ भाषा हैं, इसका ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। अंग्रेजी बोलने वाला भी मूर्ख हो सकता है।

आठ साल तक नहीं देखा था कैमरा

आज से 20 साल पहले ‘न्यूटन’ नहीं संभव थी। ऐसे ही ‘क्रिमिनल जस्टिस’ जैसे शो भी नहीं बन सकते थे। ओटीटी के आने से कहानी कहने के तरीके में बदलाव आया है। मेरे जैसे अभिनेता काम की वजह से व्यस्त हैं। ओटीटी के आने से टैलंट की कद्र बढ़ गई है। नई प्रतिभाओं को मौका मिल रहा है। मैंने इंडस्ट्री में आने के बाद आठ साल तक कैमरा नहीं देखा था। मुझे यही लगता है कि फिल्में ना चलने की वजह कहानियों का कमजोर होना है। कैसे बनाते हैं, क्या बनाते हैं ये बहुत जरूरी है। थिएटर में ऑडियंस को वापस लाने के लिए अच्छी फिल्में बनानी होंगी। कहानियों में मनोरंजन के साथ दर्शकों का जुड़ाव भी होना चाहिए। अभिनेताओं में ऐसा आचरण होना चाहिए, जिससे लोगों को महसूस हो कि हमारे बीच से आया हुआ है।

हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है
फिल्मों की स्क्रीप्ट पढ़ने के लिए समय निकाल लेता हूं। वेब सीरीज की पूरी नहीं पढ़ पाता हूं क्योंकि कई पेज की स्क्रिप्ट होती है लेकिन पूरी सुनता जरूर हूं। साहित्य भी पढ़ता हूं। इन दिनों मैं पारसी कम्युनिटी के बारे में विस्तार से पढ़ रहा हूं। किताबें अब सेट पर नहीं ले जाता हूं। पहले दिन में अपना काम सिर्फ आधे घंटे का होता था, अब 11 घंटे की शिफ्ट में अपना काम साढ़े दस घंटे का होता है तो पढ़ने का समय ही नहीं बचता। लंच ब्रेक मुश्किल से मिलता है। बॉयकॉट को लेकर मैं कुछ नहीं कहना चाहूंगा क्योंकि मैं फिल्म इंडस्ट्री का नेतृत्वकर्ता नहीं हूं। हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है चाहे आप सपोर्ट करें या विरोध।