न पींगे मारतीं महिलाएं झूला झूलती, न ही अब घर-घर मेहंदी रचाई जाती, आधुनिकता ने छीन लिया मन भावन सावन

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न पींगे मारतीं महिलाएं झूला झूलती, न ही अब घर-घर मेहंदी रचाई जाती, आधुनिकता ने छीन लिया मन भावन सावन

न पींगे मारतीं महिलाएं झूला झूलती, न ही अब घर-घर मेहंदी रचाई जाती, आधुनिकता ने छीन लिया मन भावन सावन

हमीरपुर: उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में सावन मास का आगाज होने के बाद भी ग्रामीण इलाकों में सावन के झूले झूलने की परम्पराएं अब विलुप्त होने लगी है। गांव की चौपालों में भी सावन के गीत अब नहीं सुनाई देते है। गांव की चौपालों में सन्नाटा खिंचा है तो गलियां भी सूनी हैं।

बुंदेलखंड क्षेत्र ही नहीं हर भारत के ग्रामीण इलाकों में किसी जमाने में सावन मास शुरू होते ही चारों ओर उल्लास और उमंग का माहौल रहता था। बड़े लोग शिव की उपासना, कीर्तन और भजन के जरिए भक्ति रस में लीन रहते थे। वहीं, बालिकाएं घर के बाहर गलियों में गुट्टा खेलती थीं। मेहंदी भी घर-घर रचाएं जाने की परम्परा थी, लेकिन अब गांवों की चौपालों में यह परम्पराएं विलुप्त होने लगी हैं। पंडित दिनेश दुबे ने बताया कि कुछ दशक पहले सावन महीने में हर दिन हमीरपुर शहर से लेकर कस्बे और गांवों में पेड़ों पर झूले पड़ते थे। पूरे महीने बच्चे और महिलाएं झूला झूलकर मस्ती करती थीं, लेकिन अब सावन की ज्यादातर परम्पराएं शहर और कस्बों से गायब हो गई है। कुछ गांवों में ही सावन मास से जुड़ी परम्पराएं आज भी कायम हैं।

सावन मास शुरू होते ही पेड़ों पर पड़ जाते थे झूले
सावन का महीना शुरू होते ही गांवों के गर गली, कूचों में पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे। झूला झूलने के लिए बालक और बालिकाओं का मेला भी लगता था, लेकिन अब गांव की गलियां और पेड़ सूने दिख रहे हैं। साहित्यकार डॉ. भवानीदीन प्रजापति ने बताया कि तीन दशक पहले सावन मास की धूम हर गांव में मचती थी। बच्चों के साथ महिलाएं भी सावन के झूले झूलती थीं, लेकिन अब यह परम्पराएं बदलते दौर में खत्म होती जा रही हैं।

आल्हा गायन की भी अब कम सजती हैं महफिलें
कवि नाथूराम पथिक ने बताया कि कुछ दशक पहले सावन मास का आगाज होते ही गांवों की चौपालों में आल्हा गायन के लिए महफिलें सजती थीं, लेकिन अब चौपालों में सन्नाटा पसरा रहता है। बताया कि रिमझिम फुहारों के बीच आल्हा-ऊदल की वीर गाथा गाने वाले गायकों की घटती संख्या में अब आल्हा गायन भी कम सुनने को मिल पाता है। सावन मास से जुड़ी तमाम परम्पराएं भी अब समय के साथ विलुप्त होती जा रही हैं।

गांवों में अब नहीं दिखते सावन से जुड़े खेल और तमाशे
कलौलीजार गांव के पूर्व सरपंच और बुजुर्ग बाबूराम प्रकाश त्रिपाठी ने बताया कि सावन मास में बच्चे भौंरा नचाते थे। हर गांव में बालिकाएं गुट्टा खेलती थीं। साथ ही दौड़, कबड्डी, सर्रा, सिलोर सहित अन्य खेल भी परम्परा का हिस्सा थी, लेकिन अब यह खेल पूरी तरह से विलुप्त हो चले हैं। नवयुवतियां भी सावन में ससुराल से मायके आकर आमोद प्रमोद के प्रतीक झूला झूलती थीं, लेकिन अब गांवों में सावन की धूम नहीं दिखती।
इनपुट- पंकज मिश्रा

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