नीरज चोपड़ा बनकर दुनिया नापना चाहती हैं हरियाणा की ये लड़कियां, सपने ऐसे कि बौनी हुईं चुनौतियां

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नीरज चोपड़ा बनकर दुनिया नापना चाहती हैं हरियाणा की ये लड़कियां, सपने ऐसे कि बौनी हुईं चुनौतियां


नीरज चोपड़ा बनकर दुनिया नापना चाहती हैं हरियाणा की ये लड़कियां, सपने ऐसे कि बौनी हुईं चुनौतियां

सिद्धार्थ सक्सेना/सबी हुसैन नई दिल्ली: जैवलिन थ्रो में भारत के लिए मेडल जीतने का सपना देखने वाली 11 साल मिनाक्षी जब घर के रसोई में रोटी बनाती हैं तो वह गोल कम दुनिया का नक्शा ज्यादा बन जाता है। सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली मीनाक्षी रोटी बनाते समय यही चाहती भी हैं कि रोटियां के रूप में उभरी दुनिया के इस मानचित्र पर अपने सपने को एक दिन आकार करें। जब मीनाक्षी से इस बारे में शरमाती हुई आवाज में कहती है, ‘रोटी बनाते हुए मैप्स ही बनते हैं, गोल तो कभी-कभी।’

मीनाक्षी भारत के लिए ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले नीरज चोपड़ा की तरह बनना चाहती हैं। नीरज की ही तरह मिनाक्षी भाला फेंक में इतनी बड़ी दूरी को तय करना चाहती हैं कि वह भी विश्व पटल पर तिरंगे के सामने खड़े होकर देश के लिए मेडल चमक दिखा सकें। हालांकि मीनाक्षी को जिस उम्र में पढ़ाई-लिखाई करनी चाहिए उस उम्र में वह घर के सभी कामों में अपना हाथ बंटाती हैं और समय निकाल कर पास के ही बनगांव अकादमी में उन्हीं हाथों से प्रैक्टिस करने जाती हैं।

बनगांव अकादमी के उबड़ खाबड़ मैदान पर मीनाक्षी लगभग 30 मीटर दूर भाला फेंकती हैं। मीनाक्षी को वहां के कोच हनुमान सिंह ट्रेनिंग देते हैं और वह मीनाक्षी से काफी प्रभावित हैं। बनगांव में जैवलिन थ्रो की ट्रेनिंग देने वाले हनुमान सिंह नीरज चोपड़ा के सीनियर रह चुके हैं। इस खेल में नीरज ने जो मुकाम हासिल किया वह हनुमान सिंह तो नहीं कर पाए, लेकिन वह नीरज चोपड़ा की तरह सपने देखने वाले युवा एथलीटों की मदद के लिए जुटे हुए हैं।

जैवलिन थ्रो में नीरज ने लाई क्रांति
तोक्यो ओलिंपिक में नीरज चोपड़ा ने ट्रैक एंड फील्ड स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतकर जैवलिन थ्रो खेल में एक क्रांति ला दी। देश के हजारों युवा अब इस खेल में नाम रौशन करना चाहते हैं। यही कारण है कि हरियाणा के स्पोर्ट्स हलकों में एथलेटिक्स स्टेटस सिंबल के साथ ही जरूरत के रूप में भी देखा जाने लगा है। सरकारी आंकड़ों की बात करें तो राज्य में स्पोर्ट्स बजट 260 करोड़ रुपये का है। वहीं हरियाणा में 1100 रजिस्टर्ड स्पोर्ट्स अकैडमी हैं और उनमें 25000 रजिस्टर्ड स्पोर्ट्सपर्सन्स।

ऐसी ही एक माई जंप एंड थ्रो अकादमी बनगांव में 2010 में शुरू हुई थी। इस अकादमी में सुविधाओं की जो भी कमी हो, जोश और मनोबल भरपूर है। इसके दम पर ही इस अकादमी ने कम समय में ही अपने नाम को स्थापित कर लिया है। पिछले साल दिल्ली में अंडर 16 कैटेगरी में फुल पोडियम प्रदर्शन से बनगांव की लड़कियों ने इस अकादमी का परचम लहराया था।

पूर्व खिलाड़ी दे रहे हैं युवाओं को सही दिशा
बनगांव के महावीर सिंह राज्य स्तर के जैवलिन थ्रोअर रह चुके हैं। उनकी छवि एक बाहुबली रही है लेकिन खेल ने उन्हें सही रास्ते पर ला दिया और अब गांव की लड़कियों को जैवलिन थ्रो में करियर बनाने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे हैं। महावीर सिंह का कहना है कि जैवलिन थ्रो के कारण उनके जीवन में बहुत सुधार हुआ, नहीं तो वह गलत रास्ते पर चल चुके थे और आज वह जेल में होते।

हालांकि अब वह यहां के लड़कियों को जैवलिन थ्रो सिखा रहे हैं। उन्होंने शुरुआत लड़कों और लड़कियों दोनों के साथ की थी। लेकिन दोनों पर ध्यान बनाए रखना मुश्किल हो रहा था। इसलिए जल्दी ही उन्होंने लड़कों की जिम्मेदारी बगल के शहर में अपने एक दोस्त को सौंप दी और अपना फोकस पूरी तरह से यहां की लड़कियों पर रखने का फैसला किया।

बनगांव के इस अकादमी में 10 लड़कियां यहीं की होती जबकि दो बाहरी, इसमें एक दलित या आदिवासी समुदाय से होती है। महावीर का कहना है कि कम उम्र में ही अगर इन्हें अच्छी ट्रेनिंग और अच्छे से गाइड किया जाय तो नेशनल कैंप में पहुंचने के बाद उन्हें सफल होने से कोई नहीं रोक सकता है।

बिना आर्थिक मदद के कैसा चलता है अकादमी
मौजूदा समय में कोई भी खेल कॉरपोरेट की चकाचौंध से नहीं बचा है। बिना आर्थिक मदद के कोई भी खेल आगे नहीं बढ़ सकता। हर खेल में फंड की जरूरत होती है लेकिन हरियाणा के बनगांव में स्थित यह अकादमी सरकारी मदद के अलावा अच्छे प्रदर्शन से मिले कैश रिवॉर्ड पर ही निर्भर है। खिलाड़ियों को स्पर्धा में जो भी कैश इनाम में मिलता है वह अकादमी के कोष में जमा हो जाता है।

इस पर कोच हनुमान सिंह का कहना है कि कैश प्राइज पर खिलाड़ी और उनके परिवार का कोई विरोध नहीं हैं। कैश प्राइज ही अकादमी के फंड का मुख्य स्रोत है और यह बात खिलाड़ी के साथ उनके परिवार वाले भी समझते हैं कि हम उन पैसों से क्या हासिल करना चाहते हैं।

यही कारण है गरीब परिवार आने वाली मीनाक्षी जैसी लड़कियां जिनके घर की आमदनी महीने के दस हजार से भी कम हैं वह भी देश के लिए मेडल जीतने का सपना देख पाती है। मीनाक्षी की मां 300 रुपए की दिहाड़ी करती है। वहीं मीनाक्षी घर के बाकी काम को संभालती है।बनगांव की ही रहने वाली राजबाला कहती हैं कि जैवलिन कैसे फेंका जाता है मुझे यह नहीं पता है लेकिन यह आपको कितना कुछ दे सकता है। यह मैं जानती हूं। राजबाला की 16 साल की बेटी दीपिका पंचकूला में खेलो इंडिया यूथ गेम्स में गोल्ड जीत चुकी है और अपनी बेटी को आगे बढ़ने के लिए हर तरह से उसके साथ हैं।

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