दिल्ली में मतदान का मिजाज तब और अब, पहले निगम चुनावों से लेकर अब तक क्या बदला, पढ़ें…
कहां होती थी चुनावी सभाएं-रैलियां?
दिल्ली नगर निगम का इस बार का चुनाव इस लिहाज से अलग रहा क्योंकि किसी भी दल ने राजधानी के परंपरागत रूप से मशहूर चुनाव रैली स्थलों जैसे रामलीला मैदान, सुपर बाजार, बारा टूटी, छहटूटी, अजमल खान पार्क, लोदी रोड मेन मार्केट, राजौरी गार्डन मेन बाजार, यमुनापार में सीबीडी ग्राउंड, मिंटो रोड प्रेस के आगे अपनी सभाएं नहीं की। इंदिरा गांधी और अटल बिहरी वाजपेयी सुपर बाजार में कई बार आईं। एक दौर था जब इन सब स्थानों पर सभी दल अपनी सभाएं आयोजित करते थे। उनमें उनके बड़े प्रखर नेता अपने ओजस्वी भाषणों से जनता को अपनी तरफ करने की कोशिश करते थे। मिंटो रोड सीट के लिए एक बार आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े रमेश दत्ता के हक में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और फारूक अब्दुल्ला जैसे नेता आए थे। मानना होगा कि 1991 के लोकसभा चुनावों से बड़ी रैलियों का दौर कुछ हद तक कमजोर पड़ा। इसकी वजह ये समझ आती है कि खबरिया चैनलों पर सुबह-शाम देश नेताओं के बीच बहस के नाम पर नोक-झोंक सुनता है। इसके चलते रैलियों में नेताओं को सुनने की प्यास जनता में पहले की तरह नहीं रही।
वक्त बदला, बदला सियासत का रंग
दिल्ली में 1990 के दशक तक होने वाले नगर निगम से लेकर लोकसभा के चुनावों में सभी दल मतदाताओं को घरों से मतदान केंद्रो पर लाने के लिए प्राइवेट गाड़ियों का खुलकर इस्तेमाल करते थे। फिर चुनाव आयोग की चाबुक इतनी कसकर चलने लगी कि अब तो चुनावों के दौरान उम्मीदवार अपने पोस्टर दीवारों पर भी नहीं लगवा पाते। दिल्ली के उम्र दराज हो रहे नागरिकों को याद होगा, जब यहां खास इमारतों की दीवारें नारों से अट जाय़ा करती थीं। वह तो अब गुजरे दौर की बातें हो गईं। करोल बाग, मिंटो रोड, शाहदरा, गोल मार्केट वगैरह में मतदान से पहले निकलने वाली रैलियों में हाथियों पर नेता और कार्यकर्ता सवार रहा करते थे। हां, अगर चुनावी मुद्दों की बात करें तो पहले भी मोटे तौर पर सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता पर ही तीखी बहस होती थी। कांग्रेस का आरोप रहता था कि जनसंघ समाज को तोड़ती है। जनसंघ कहती थी कि कांग्रेस को गांधी के नाम पर वोट नहीं मांगना चाहिए।