जिसकी धमक से कांपता था पूरा चंबल, बंदूक छोड़ी तो 10 रुपये की रह गई औकात…किस्सा डाकू लोकमन की

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जिसकी धमक से कांपता था पूरा चंबल, बंदूक छोड़ी तो 10 रुपये की रह गई औकात…किस्सा डाकू लोकमन की

दतिया: डकैत शब्द सुनते ही घोड़े की लगाम थामे किसी क्रूर इंसान की छवि हमारे दिमाग में बनती है। हम सबने बॉलीवुड की फिल्मों में देखा है कि जो डकैत होता है उसके पास लूट की अकूत दौलत होती है, वह खूब शराब पीता है, डांसरों से डांस करवाता है यानी फुल ऐश ओ आराम की जिंदगी जीता है। वाकई कई डकैत कुछ इसी छवि के होते भी रहे। हम आपको चंबल इलाके के एक ऐसे डकैत की कहानी बता रहे हैं जिसकी धमक मात्र से ना केवल आम जनता बल्कि पुलिस प्रशासन के भी पांव फूल जाते थे। जब उस डकैत को अपने डकैती के कर्म को लेकर पश्चाताप हुई तो उसने खुद से बंदूक छोड़ने का फैसला ले लिया। हैरत की बात यह है कि बंदूक छोड़ने के बाद उसकी हालत दान में 10 रुपये देने की भी नहीं रह गई थी।

जी हां! यह किस्सा है चंबल के खूंखार डकैत पंडित लोकमन उर्फ लुक्का की। पंडित लोकमन विख्यात डकैत मानसिंह दल में सेनापति की तरह काम करते थे। मानसिंह की सेहत बिगड़ने के बाद 1955 में लोकमन ही उस डकैत गैंग के सरदार घोषित कर दिए गए। लोकमन पेशे से डकैत जरूर थे, लेकिन भीतर से वह बेहद भावुक इंसान थे। कई साल तक डकैती के धंधे में रहने के बाद उन्हें इनसब से विरक्ति होने लगी थी। इसी का नतीजा है कि एक शाम उन्होंने अपने गैंग के सदस्यों को अपने पास बुलाया और कहा कि अब वह डाका नहीं डालेंगे। इसपर गैंग के दूसरे सदस्यों ने कहा लोकमन से कहा कि सरदार डाका नहीं डालोगे तो खाओगे कहां से? इसपर डाकू लोकमन ने कहा कि शेर का शिकार कर हम उसकी खाल बेच लेंगे, उससे काम नहीं चलेगा तो फिर किसी के घर में पहुंचेंगे और उससे कहेंगे मुझे खाना खिला दो।
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लोकमन की ओर से गैंग के सदस्यों के साथ हुई इस मीटिंग की बात चंबल के बीहड़ों में आग की तरह फैल गई। तभी इलाके के एक साधु को पता चला कि डाकू लोकमन ने बंदूक त्याग दिया है। इसपर वह डाकू लोकमन से मिलने पहुंचा। मुलाकात के दौरान साधू ने कहा कि डकैत लोकमन जी अब आपने हिंसा का रास्ता छोड़ ही चुके हैं तो एक मंदिर के निर्माण के लिए 20 हजार रुपये चंदा के रूप में दे दीजिए। साधू को लगा कि लोकमन इतने बड़े डकैत हैं तो उनके लिए 20 हजार रुपये क्या बात होगी। डाकू लोकमन ने उस साधू को चंदा में केवल 10 रुपये दे पाए। 10 रुपये देते हुए डाकू लोकमन ने कहा कि साधू बाबा इससे आप अपने लिए लंगोटी खरीद लीजिएगा। इतना ही नहीं डाकू लोकमन ने उस साधू से कहा कि भले ही मंदिर निर्माण की बात है, लेकिन वह दोबारा डकैती कर परमार्थ कमाने का मौका नहीं गंवा दूंगा।
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डाकू लोकमन के मन में क्यों आया साधु बनने का ख्याल
1955 से 1960 तक लोकमन का आतंक चरम पर था। पूरे चंबल में लोग लोकमन के नाम मात्र से थर्र-थर्र कांपते थे। तभी एक दिन डाकू लोकमन उसकी भिड़ंत एक रिक्शे वाले से हो गई। दअरसल, रिक्शेवाले ने डाकू लोकमन को टक्कर मार दी थी। दोनों के बीच बातचीत बढ़ी तो रिक्शे वाले ने डाकू लोकमन को एक लात मारता हुआ आगे बढ़ गया। डाकू लोकमन की मजबूरी थी कि वह रिक्शेवाले को कुछ कह नहीं सकता था, क्योंकि जैसे ही वह अपनी ताकत का प्रदर्शन करता तो लोग उसे पहचान जाते और उसे पुलिस के हवाले कर देतें। रिक्शे वाले से लात खाने की बात लोकमन के मन में घर कर गई। उसे अहसास हुआ कि वह बुरे कर्म करता है इसलिए एक रिक्शा वाला भी उसे लात मारकर चला गया और वह कुछ नहीं कर पाया। इसी घटना के बाद डाकू लोकमन धार्मिक प्रवृति के हो गए।

दुखदायी रही डाकू लोकमन की जिंदगी
ना जानें कितने परिवारों की जिंदगी बर्बाद करने वाले डाकू लोकमन की व्यक्तिगत लाइफ बेहद दुखदायी रही। बड़े बेटे सतीश को कैंसर की दिक्कत होने के चलते उनकी मौत हो गई। छोटा बेटा अशोक की रोड दुर्घटना में मौत हो गई। दोनों बेटों की मौत से डाकू लुका अंदर से टूट चुका था। इसके बाद डाकू लोकमन ने 1960 में आचार्य विनोबा भावे के सामने बंदूक छोड़कर जुर्म की सजा काटने का फैसला लिया और उसे फॉलो भी किया।

डाकू लोकमन ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा था कि आजादी के पहले उनके गैंग ने अंग्रेजों को खूब परेशान किया था। जब 1947 में भारत आजाद हुआ तब लोकमन उर्फ लुक्का समेत तमाम गैंग के डकैतों ने खुशियां मनाई थी। उन्हें उम्मीद थी कि सरकार उन्हें मुख्य धारा में आने का मौका देगी, लेकिन आजादी के बाद भी डकैतों को कुख्यात अपराधी ही समझा जाता रहा। इस वजह से कई डकैत चाहकर भी डकैती की राह से नहीं लौट पा रहे थे। आखिरकार विनोबा भावे के प्रयास से लोकमन समेत चंबल के कई डकैतों ने सरेंडर किया और उम्रकैद की सजा काटकर फैमिली के साथ जीवन बसर करने चले गए।



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