जनेश्वर मिश्रा पार्क से रमाबाई अम्बेडकर मैदान तक, क्या अखिलेश और मायावती के बीच शुरू हो गया है Cold war

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जनेश्वर मिश्रा पार्क से रमाबाई अम्बेडकर मैदान तक, क्या अखिलेश और मायावती के बीच शुरू हो गया है Cold war

जनेश्वर मिश्रा पार्क से रमाबाई अम्बेडकर मैदान तक, क्या अखिलेश और मायावती के बीच शुरू हो गया है Cold war

लखनऊ: समाजवादी पार्टी का राज्य व राष्ट्रीय सम्मेलन लखनऊ के रमाबाई अम्बेडकर मैदान में चल रहा है। इस सम्मेलन में अखिलेश की तीसरी बार राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी होनी है। लेकिन चर्चा इस बार इस चुनाव को लेकर नहीं आयोजन स्थल को लेकर ज्यादा है। सवाल है कि अखिलेश यादव ने सपा के सम्मेलन के लिए आयोजन स्थल के रूप में रमाबाई अम्बेडकर पार्क को ही क्यों चुना? जबकि जनेश्वर मिश्र पार्क में सपा अपने बड़े सम्मेलन करती रही है। लोहिया पार्क भी है। ये दोनों स्थल समाजवादी पार्टी ने ही अपनी सरकार में विकसित कराए थे। तो रमाबाई अम्बेडकर पार्क क्यों? कहीं ये अखिलेश यादव की रणनीति तो नहीं? इसका जवाब तलाशने के लिए आपको पूरी कहानी सुननी पड़ेगी।

4 अक्टूबर 1992 को मुलायम सिंह यादव की अगुवाई में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का गठन हुआ। गठन के बाद से ही ये पार्टी सुर्खियों में आ गई और थोड़े ही समय में यूपी की सत्ता पर अपनी धमक का एहसास कराने लगी। गोमती में पानी बहता गया और बीतते समय के साथ उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी प्रमुख राजनीतिक शक्ति बने रहे। इस दौरान कई बार वह मुख्यमंत्री भी बने। इस दौरान समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच ‘दुश्मनी’ के भी तमाम घटनाक्रम हुए। एक तरह से यूपी में सपा और बसपा दो ध्रुव बन गए। मुलायम यादव-मुस्लिम समीकरण के साथ चलते रहे तो मायावती दलित-मुस्लिम गठजोड़ की सियासत की अगुआ रहीं। बीच-बीच में भाजपा भी अपनी पहचान का एहसास कराती रही लेकिन मुख्य लड़ाई इन्हीं दोनों पार्टियों में रही।

2007 में बसपा ने कहानी बदली और दलित मुस्लिम के साथ समीकरण में ब्राह्मण भी जुड़ गया। बसपा ने इसे सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला माना। इसके दम पर मायावती ने मुलायम को सत्ता से बाहर कर यूपी में बहुमत की सरकार बनाई। लेकिन पांच साल में ही सपा ने वापसी की और 2012 में मायावती को सत्ता से बाहर कर सरकार बना ली। सपा अभी भी मुस्लिम-यादव समीकरण पर चल रही थी लेकिन यहां से बदलाव की कहानी शुरू हो गई। मुलायम ने रिटायरमेंट की राह पकड़ ली और यूपी की कमान उनके बेटे अखिलेश यादव के हाथ आ गई।

2017 से अखिलेश हुए सर्वेसर्वा
2017 आते-आते समाजवादी खेमे में बगावत के सुर बुलंद होने लगे। मुलायम के पीछे हटे पांच साल गुजर चुके थे और पार्टी पर अधिकार की लड़ाई में चाचा शिवपाल और भतीजे अखिलेश आमने-सामने आ चुके थे। आखिरकार एक जनवरी 2017 को जनेश्वर मिश्र पार्क में हुए अधिवेशन में मुलायम सिंह यादव को सपा संरक्षक बना दिया गया और अखिलेश यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए। शिवपाल की राहें यहीं से जुदा हो गईं। अखिलेश ने पार्टी पर कब्जा कर अपनी ताकत का एहसास करा दिया था। इसके 10 महीने बाद 5 अक्टूबर 2017 को आगरा में पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ और अखिलेश यादव सर्वसम्मति से दोबारा राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए। खास बात ये रही कि इस अधिवेशन में पार्टी के संविधान में भी संशोधन हुआ। अभी तक सपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष तीन साल के लिए चुना जाता था लेकिन अखिलेश की अगुवाई में इसका कार्यकाल अब 5 साल कर दिया गया।

जाहिर है अक्टूबर, 2022 में अखिलेश का कार्यकाल समाप्त हो रहा था और इसी को देखते हुए लखनऊ के रमाबाई अम्बेडकर पार्क में सपा का राज्य व राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया है। ये तय है कि अखिलेश इस सम्मेलन में एक बार फिर राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए जाएंगे। आज प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर नरेश उत्तम पटेल एक बार फिर चुन लिए गए हैं।

2024 के आम चुनाव पर नजर, मायावती को संदेश
लेकिन इस चुनाव से ज्यादा चर्चा इस बार आयोजन स्थल को लेकर हो रही है। दरअसल समाजवादी पार्टी के ज्यादातर प्रमुख कार्यक्रम जनेश्वर मिश्र पार्क या लोहिया पार्क में होते आए हैं। पहली बार इतने बड़े स्तर पर सपा का सम्मेलन रमाबाई अम्बेडकर मैदान में हो रहा है। लखनऊ के सत्ता के गलियारे में इसे अखिलेश की 2024 के आम चुनावों की रणनीति से जोड़कर भी देखा जा रहा है।

इसे समझने के लिए आपको थोड़ा पीछे समय में जाना होगा। वैसे तो मुलायम की सपा और मायावती की बसपा के बीच की अदावत किसी से छिपी नहीं रही। लेकिन अखिलेश यादव ने बागडोर संभाली तो बड़े बदलाव सामने आने लगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने बड़ा फैसला लेते हुए आगे बढ़कर बसपा के साथ गठबंधन किया। यूपी की राजनीति में ये बड़ा कदम माना गया और सियासी पंडित इसे भाजपा के लिए बड़ी चुनौती की तरह देखने लगे। लेकिन ये गठबंधन ज्यादा समय तक नहीं चला। आम चुनाव में बसपा ने 10 सीटें हासिल कीं और अखिलेश की अगुवाई में सपा सिर्फ 5 सीटें जीत सकी। इसके बाद मायावती ने ये कहकर गठबंधन तोड़ लिया कि बसपा का तो सपा में वोट ट्रांसफर हुआ लेकिन सपा का वोट बसपा प्रत्याशियों को नहीं मिला। लेकिन नतीजों से साफ था कि वोट किसका ट्रांसफर नहीं हुआ।

बहरहाल, अखिलेश यादव ने 2022 के आम चुनाव में उसी रणनीति काे अपनाया, जो उन्होंने 2018 के गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में अपनाया था। उस समय अखिलेश की सपा ने निषाद पार्टी जैसे छोटे दलों से गठबंधन कर बीजेपी की दोनों सीटें अपने नाम कर ली थीं। बीजेपी के लिए ये बड़ा झटका था क्योंकि एक सीट गोरखपुर को जहां योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली की थी, वहीं दूसरी फूलपुर सीट छोड़कर केशव प्रसाद मौर्य डिप्टी सीएम बने थे।

भाजपा के खिलाफ अखिलेश की रणनीति ने बसपा को निपटाया
तो 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने राष्ट्रीय लोकदल और सुभासपा सहित तमाम दलों के साथ गठबंधन किया। अखिलेश को काफी उम्मीदें थीं लेकिन इस बार बीजेपी के आगे ये रणनीति फेल हो गई। सपा सिर्फ 111 सीटें ही जीत सकी। अखिलेश चुनाव हार चुके थे। बीजेपी फिर से सत्ता पर काबिज हो गई। लेकिन एक बड़ा बदलाव उत्तर प्रदेश की सियासत ने इस चुनाव में देखा। मायावती की बहुजन समाज पार्टी जो यूपी में कई बार सत्ता पर काबिज रही और राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा उसके पास है, वह इस चुनाव में सिर्फ एक सीट ही जीत सकी। इसके पीछे अखिलेश यादव की रणनीति को सबसे ज्यादा प्रभावी माना गया।

दरअसल 2017 चुनाव से कहीं पहले अखिलेश यादव ने बसपा को तगड़ा नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया था। मायावती के कई करीबी नेता सपा के पाले में गए। यही नहीं बहुजन आंदोलन से जुड़े रहे पुराने दिग्गजों को समाजवादी पार्टी में जगह मिली। एक और नुकसान की ओर खुद मायावती ने इशारा किया। उन्होंने कहा कि मुस्लिम वोटर एकमुश्त समाजवादी पार्टी में चला गया, जिसके कारण बसपा को नुकसान हुआ। इस चुनाव परिणाम के बाद से ही मायावती ने अपनी सर्व समाज को जोड़ने के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को छोड़ दिया और दलितों और मुस्लिमों को जोड़ने की कोशिशें तेज कर दीं।

मायावती की इस बदली रणनीति का असर आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में देखने को भी मिला। अखिलेश यादव ने ये सीट छोड़कर विधानसभा में पार्टी को मजबूत करने का ऐलान किया था। इस उपचुनाव में बसपा ने पूरी ताकत झोंकी और नतीजा ये हुआ कि आजमगढ़ जो सपा का गढ़ माना जाता था, वहां मुस्लिम वोट बैंक बंट गया और भारतीय जनता पार्टी से दिनेश लाल यादव निरहुआ जीत गए।

अपने एक्शन से मायावती को जवाब दे रहे अखिलेश
समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव ने इस हार के लिए सीधे-सीधे बसपा को दोषी माना। वैसे तो अखिलेश बसपा सुप्रीमो मायावती के खिलाफ ज्यादा मुखर नहीं दिखते लेकिन वह लगातार बसपा को कमजोर जरूर करने की कोशिश कर रहे हैं। इसी दौर में हाल ही में लखनऊ की सड़कों पर एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई। अखिलेश यादव विधानसभा से पार्टी दफ्तर तक पैदल मार्च कर रहे थे और उनके हाथ में हाथ मिलाकर लालजी वर्मा कदमताल कर रहे थे। ये वही लालजी वर्मा थे, जिन्हें कभी मायावती का सबसे करीबी नेता माना जाता था। अम्बेडकर नगर में सपा की जीत के पीछे भी इनका हाथ माना जाता है। इस तस्वीर को मायावती के उस ट्वीट का जवाब माना गया जो जिसमें उन्होंने अखिलेश यादव को निशाने पर लिया था। मायावती ने कहा था कि विपक्ष को कभी इतना लाचार नहीं देखा।

विधानसभा के मॉनसून सत्र के पांच दिनों में दूसरी बार सड़क पर उतर कर अखिलेश यादव ने मायावती को संदेश दे दिया कि मुख्य विपक्षी दल के रूप में समाजवादी पार्टी लाचार नहीं है। वह मुद्दों को गंभीरता से उठा रही है। सरकार को निशाने पर भी ले रही है और अपने वोट बैंक को भी साध रही है। अब रमाबाई अम्बेडकर मैदान में सपा का सम्मेलन भी इस राजनीतिक संदेश की कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है।

बता दें ये वही मैदान है, जिसे 2007 में सत्ता में आने के बाद मायावती ने बनवाया था। मायावती ने लखनऊ से लेकर नोएडा तक जो अम्बेडकर पार्क, सामाजिक प्रेरणा स्थल आदि का निर्माण कराया, रमाबाई अम्बेडकर मैदान उन्हीं कार्यों का हिस्सा था। बसपा ने इन निर्माण कार्यों को दलित स्वाभिमान से जोड़कर पेश किया। मायावती ने कई रैलियां इस मैदान में कीं। बाद में दूसरी पार्टियों ने भी यहां का रुख किया लेकिन समाजवादी पार्टी की तरफ से अभी तक कोई बड़ा आयोजन यहां नहीं हुआ था। साफ दिखा रहा है कि अखिलेश लगातार गैर यादव ओबीसी वोट बैंक के साथ ही दलितों को भी जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। ये मुलायम की एमवाई (यादव-मुस्लिम) समीकरण से आगे की गणित है। अब देखना होगा अखिलेश इसमें कितना सफल रह पाते हैं?

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