खापों के सहारे सियासी जमीन मजबूत करने की कोशिश, कितने सफल होंगे टिकैत ब्रदर्स

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खापों के सहारे सियासी जमीन मजबूत करने की कोशिश, कितने सफल होंगे टिकैत ब्रदर्स

लखनऊ: पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western UP) में राजनीति के लिए सबसे अहम क्या है? इसका सीधा जवाब होगा जाट (Jat Vote Bank) और मुसलमान (Muslim Vote Bank)। कभी जाट और मुसलमान एक धुरी पर होते थे तो अन्य किसी को भी जीत मिलना मुश्किल हो जाता था। लेकिन, मुजफ्फरनगर के 2013 के दंगों (Muzaffarnagar Voilence 2013) ने पूरे हालात को बदल दिया। तब प्रदेश में समाजवादी पार्टी (Samajwadi party) की पूर्ण बहुमत की सरकार थी। मुसलमान और जाट ने मिलकर सपा को समर्थन दिया था। लेकिन, दंगों के बाद स्थिति बदल गई। जाट युवाओं पर जिस प्रकार से केस दर्ज कराए गए, उसने दोनों समुदायों के बीच खाई को बढ़ाया। किसान आंदोलन के समय जाट और मुसलमान एक साथ आते जरूर दिखे, लेकिन विधानसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार की ओर से तीनों विवादित कृषि बिल वापस लिए जाने के बाद स्थिति पलट गई। चुनावी नतीजों में जाट और मुसलमान एक बार फिर दो घाटों पर खड़े दिखे। किसान आंदोलन समाप्त हुआ तो राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति को प्रभावित करने वाले नरेश टिकैत और राकेश टिकैत ने अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखने की कोशिश की। भारतीय किसान यूनियन खुद को राजनीति से दूर बताता रहा, लेकिन टिकैत ब्रदर्स चुनाव में समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय लोक दल के समर्थन में खड़े दिखे। उनकी राजनीतिक महत्व बढ़ाने के प्रयास पर बीकेयू ने ब्रेक लगा दिया है। ऐसे में नरेश टिकैत-राकेश टिकैत अपना संगठन खड़ा करने की तैयारी कर रहे हैं। पश्चिमी यूपी के खापों के माध्यम से खुद को खड़ा करने की कोशिश दोनों भाइयों ने शुरू कर दी है।

पश्चिमी यूपी में है जाट वोट बैंक का महत्व
पश्चिमी यूपी की राजनीति में ‘जिसके जाट, उसी के ठाठ’ कहावत खूब प्रचलित है। यही वजह है कि पश्चिमी यूपी को जाटलैंड के नाम से जाता है। उत्तर प्रदेश में भले ही जाटों की आबादी 3 से 4 फीसदी के बीच है, लेकिन पश्चिमी यूपी में इनकी आबादी करीब 17 फीसदी है। लोकसभा की करीब 12 और विधानसभा की 120 सीटों पर जाट वोट बैंक असरदार है। कुछ सीटों पर जाट समाज का प्रभाव इतना अधिक है कि वे हार और जीत तय करते हैं। पश्चिमी यूपी की 30 सीटों पर जाट वोट बैंक निर्णायक हैं। पश्चिमी यूपी के सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, बिजनौर, गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, मुरादाबाद, संभल, अमरोहा, बुलंदशहर, हाथरस, अलीगढ़, और फिरोजाबाद जिले में जाट वोट बैंक चुनावी नतीजों पर सीधा असर डालता है। ऐसे में भाजपा के तीन जाट सांसदों से उनके प्रभाव को समझा जा सकता है।

चरण सिंह से टिकैत तक जाट राजनीति
पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को जाट समुदाय का मसीहा माना जाता है। कांग्रेस से राजनीति की शुरुआत कर 1967 में क्रांति दल के नाम से पार्टी बनाकर उन्होंने अपनी अलग राजनीति शुरू की। प्रदेश के पहले गैर कांग्रेस मुख्यमंत्र और बाद में देश का प्रधानमंत्री बनकर उन्होंने इतिहास रचा। चौधरी चरण सिंह से लेकर महेंद्र सिंह टिकैत तक ऐसे प्रभावी नेता रहे, जिनके बिना केंद्र में सरकार बनाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। टिकैत ने खुद को किसानों का नेता के रूप में स्थापित किया। दोनों ने मिलकर समस्त किसान को एकजुट किया। इसमें जाट-मुस्लिम समीकरण सबसे प्रभावी रहा। वर्ष 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों ने इस समीकरण को धराशायी कर दिया। जाट और मुस्लिम समाज की दूरियों ने अजीत सिंह और जयंत चौधरी तक को हार का स्वाद चखाया।

चौधरी चरण सिंह और अजीत सिंह की विरासत को जयंत चौधरी आगे बढ़ा रहे हैं। वहीं, महेंद्र सिंह टिकैत की विरासत नरेश टिकैत और राकेश टिकैत के कंधों पर है। यूपी चुनाव में 2022 में जयंत चौधरी ने नरेश टिकैत से मिलकर चौधरी चरण सिंह और महेंद्र टिकैत के फॉर्मूले को फिर से बनाने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे। इसका बड़ा कारण आम जाट वोट बैंक का एक पार्टी विशेष के प्रति गुस्सा रहा। सपा-आरएलडी गठबंधन को जाट वोट बैंक ने खारिज किया, जबकि राकेश टिकैत लगातार पश्चिमी उत्तर प्रदेश को प्रयोगशाला न बनने देने की बात करते रहे।

अभी बहस क्यों गरमाई?
जाट वोट बैंक और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति का मसला अभी क्यों गरमाया हुआ है? यह सवाल उठ रहा है। इसका कारण है, भारतीय किसान यूनियन से नरेश टिकैत और राकेश टिकैत को बाहर का रास्ता दिखाया जाना। टिकैत ब्रदर्स इसे सरकार की साजिश करार दे रहे हैं। वे अपने लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि किसानों के मसले पर बात करने के कारण सरकार के इशारे पर उन्हें बाहर किया गया है। इसके जरिए वे आम जाट समाज में अपने प्रति सहानुभूति का भाव विकसित करना चाहते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे किसान आंदोलन के बीच में टीवी चैनलों पर आंसू के साथ आकर उन्होंने पश्चिमी यूपी के किसानों को एकजुट कर दिया था।

टिकैत ब्रदर्स जानते हैं कि भारतीय किसान यूनियन में रहते हुए उन्हें अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा या पॉलिटिकल पॉवरहाउस बनने में मुश्किल होगी। यूनियन के भीतर से विरोध शुरू होगा। इसलिए, वे अपना संगठन खड़ा कर उसकी बागडोर अपने हाथ में रखना चाहते हैं। इससे उनके निर्णय पर कोई सवाल ही नहीं खड़ा किया जा सकेगा। सारी कवायद 2024 के लोकसभा चुनाव में खुद को एक शक्ति के रूप में पेश करने है। ऐसे में खाप महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

जाटों के बीच पकड़ बनाती भाजपा
चौधरी चरण सिंह हमेशा खुद को जाट समाज के बीच का आदमी के तौर पर पेश करते थे। अजीत सिंह दिल्ली वाले नेता के रूप में जाने गए। जयंत चौधरी को इसी कारण उस प्रकार की स्वीकार्यता नहीं मिल पा रही, जैसी कभी चौधरी चरण सिंह को मिलती थी। अमरपाल सिंह और हरेंद्र सिंह जैसे बड़े नेता का दूसरे दलों में जाना भी आरएलडी को कमजोर कर गया। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों ने जाट वोट बैंक के सामने भाजपा का विकल्प दिया। वोट बैंक खिसका, तो चौधरी परिवार की सियासत ही सवालों के घेरे में आ गई। भाजपा ने 2013 के बाद से इस क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत की है। संजीव बालियान केंद्र में मंत्री हैं। भूपेंद्र सिंह को योगी ने पहले कार्यकाल में मंत्री बनाया। पश्चिमी यूपी के सभी जिलों में भाजपा ने जिला जाट पंचायत बनाकर पार्टी के निर्णय लेने का अधिकार उनके हाथ में दिया तो लोगों का भरोसा भी बढ़ा।

चुनावी मौसम में बढ़ती है पंचायतों की अहमियत
जाट समाज पर नेताओं से ज्यादा जातीय खाप पंचायतों का सियासी असर है। समाज के तमाम फैसले खाप पंचायतों में होते हैं। चुनाव में वोट करने का फैसला भी पंचायत स्तर पर लिया जाता है। जाट समाज के अलग-अलग कई खाप पंचायत हैं, जिनमें सबसे बड़ी खाप बालियान खाप है, जिसके अध्यक्ष नरेश टिकैत हैं। देशवाल खाप, गठवाला खाप, लाटि‍यान खाप, चौगाला खाप, अहलावत खाप, बत्तीस खाप, कालखांडे खाप हैं। बालियान और गठवाला खाप प्रमुख है, जिसका पश्चिमी यूपी के जाट समुदाय के बीच मजबूत पकड़ है। हालांकि, देशखाप और वालियान खाप के बीच की कड़वाहट किसी से छिपी नहीं है। लेकिन, किसान आंदोलन के समय में करीब 32 सालों के बाद दोनों खाप के साथ सर्वखाप एक मंच पर आया था।

आखिरी बार 1988 में देशखाप के मुखिया चौधरी सुखबीर सिंह ने बालियान खाप के समर्थन में बड़ौत में पंचायत की थी। उस समय बालियान खाप के मुखिया महेंद्र सिंह टिकैत मेरठ कमिश्नरी पर आंदोलन चला रहे थे। 32 साल बाद जनवरी 2021 में बड़ौत की पंचायत में सारे गिले शिकवे मिटाकर देशखाप, बालियान खाप के साथ आई। हालांकि, अब टिकैत ब्रदर्स सर्वखाप को अपने पक्ष में कर पाएंगे, इस पर चर्चा का बाजार गरमाने लगा है।

खाप का अर्थ है कुछ अलग
इतिहास की प्रो. भारती एस कुमार कहती हैं कि खाप एक पवित्र न्याय करने वाली संस्था के रूप में माना जाता है। वर्ष 643 में राजा हर्षवर्द्धन ने कन्नौज में खाप पंचायत बुलाई थी। यह पंचायत क्षत्रियों को एकजुट करने के लिए थी। खाप दो अक्षर ख और आप से बनी है। इसमें ख का अर्थ होता है आकाश और आप का मतलब जल। दोनों को मिलाकर देखें तो आकाश की तरह अनंत और जल की तरह सबके लिए उपलब्ध होने वाला संगठन। इतिहासकारों की इस व्याख्या के अनुसार, खाप एक जाति या गोत्र का समूह होता है। 84 गांवों का खाप माना जाता रहा है। हालांकि, अब 12 और 24 गांवों के भी खाप हैं। जाटों के करीब 3500 खाप इस समय मौजूद हैं। इसमें से सर्वखाप को जाट जाति की सर्वोच्च पंचायत व्यवस्था के रूप में माना जाता है। इसका मुख्यालय अभी मुजफ्फरनगर के सोरम गांव में है। 1924 में सोरम में सर्वखाप की पंचायत में स्थानीय ग्रामीण कबूल सिंह को सर्वखाप का मंत्री बनाया गया था। अभी सर्वखाप के मंत्री सुभाष बालियान हैं।

आजादी की लड़ाई में भी थी बड़ी भूमिका
आजादी की लड़ाई में भी खाप पंचायतों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। इतिहासकारों की मानें तो 23 अप्रैल 1857 को मेरठ छावनी में सैनिक विद्रोह हुआ। 10 मई 1857 को सर्वखाप पंचायत के वीरों ने अंग्रेजों को गोली से उड़ा दिया। 11 मई 1857 को बागपत के बिजरौल गांव के चौरासी खाप तोमर के चौधरी शाहमल के नेतृत्व में पंचायती सेना के 5 हजार मल्ल योद्धाओं ने दिल्ली पर आक्रमण किया। शामली के मोहर सिंह ने आस-पास के क्षेत्रों पर काबिज अंग्रेजों को मार गिराया। सर्वखाप पंचायत ने चौधरी शाहमल और मोहर सिंह की सहायता के लिए जनता से अपील की। इस जन समर्थन से मोहर सिंह ने शामली, थाना भवन, पड़ासौली को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। जंगलों में पंचायती सेना और हथियारबंद अंग्रेजी सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इसमें मोहर सिंह शहीद हुए, लेकिन अंग्रेज सैनिकों को मार गिराने के बाद।

मोदी तक कर चुके हैं खाप की चर्चा
खाप पंचायतों का राजनीतिक रसूख कभी कम नहीं रहा। याद कीजिए, पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने हरियाणा के जिंद में चुनावी रैली की थी। 2014 की इस चुनावी रैली में मंच से उन्होंने खाप पंचायतों को याद करते हुए कहा था कि मुझे आशीर्वाद देने के लिए आए पंचायत के सरदारों को शत-शत नमन करता हूं। हरियाणा विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी के भाषणों का असर साफ दिखा था। बालियान खाप के प्रमुख होने के नाते इस बार के विधानसभा चुनाव में नरेश टिकैत के दर पर जयंत चौधरी कई बार पहुंचे। वहीं, भाजपा और सपा के नेताओं का भी आना-जाना लगा रहा। अजीत सिंह के निधन के बाद जयंत चौधरी की रश्म पगड़ी में भी कई खाप पंचायत जुटे थे। लेकिन, खाप सीधी राजनीति में दखलअंदाजी से अब तक बचते रहे हैं। नरेश टिकैत और राकेश टिकैत की अगली रणनीति पर पश्चिमी यूपी के अन्य खापों की भी नजर रहने वाली है।

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