कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक… सच में ग़ालिब जादूगर हैं, वह हर क्लास के शायर हैं

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कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक… सच में ग़ालिब जादूगर हैं, वह हर क्लास के शायर हैं

कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक… सच में ग़ालिब जादूगर हैं, वह हर क्लास के शायर हैं

‘ग़ालिब में एक जादू है, रहस्यवाद है, गीतात्मकता जो बड़े से बड़े शायरों में नहीं मिलती।’ मिर्ज़़ा ग़ालिब को बयां करते हुए ‘दीवान-ए-ग़ालिब : सरीर-ए-ख़ामा’ को अंग्रेजी में ट्रांसलेट करने वाले नजीब जंग ने कहा, बाइबल, कुरान, गीता, वेद… सब का अर्क ग़ालिब में मिल सकता है। इंस्टिट्यूट ऑफ इंडो पर्शियन स्टडीज ने बुधवार को ‘पर्शियन पोएटिक ट्रेडिशन और ग़ालिब के हुनर’ पर एक परिचर्चा रखी, जिसमें दिल्ली के पूर्व एलजी नजीब जंग भी शरीक हुए। इस चर्चा में ग़ालिब की जादुई शायरी और गहरी शख्सियत के कई आयाम पेश किए गए और उनकी शायरी, ग़ज़ल, नज़्म से इस महफिल में सुरूर चढ़ा।

‘ग़ालिब को किसी कैनवस में बंद नहीं किया जा सकता’
इस चर्चा में दिल्ली के पूर्व एलजी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के पूर्व वाइस चांसलर नजीब जंग ने कहा, मैं उस्ताद के नाते बात नहीं कर रहा बल्कि ग़ालिब के आशिक के तौर पर बोल रहा हूं। बड़े से बड़े शायर-कलाकर एक कैनवस में काम करते हैं। जैसे आप इक़बाल को देखेंगे, जो इंसान को सुपीरियर पावर के तौर पर देखते हैं, फ़ैज़ को देखें तो क्रांति बार-बार सामने आती है। हुसैन के घोड़े, रज़ा के बिंदु, वैन गो के पीले फूल उनकी खासियत है। मगर ग़ालिब को आप किसी कैनवस में बंद नहीं कर सकते। उनकी शायरी में रहस्य-रोमांस है, धर्म की तारीफ भी है, तो आलोचना भी है। वो अल्लाह से मजाक करने की हिम्मत भी रखते थे, ऊपर वाले से उनका सीधे संवाद था। कोई शायर इतनी जुर्रत नहीं कर सकता। वो कहते हैं :

आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
‘ग़ालिब’ सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है

उनका मजाकिया अंदाज खूब था, वह कहते हैं :

पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या

नजीब कहते हैं, ग़ालिब की शायरी में गहराई बहुत थी। जैसे,

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक

यह फ़रीदा ख़ानम, बेग़म अख़्तर ने गा दिया, हमने खूब सुन लिया मगर इसकी गहराई समझना बहुत जरूरी है। ग़ालिब को समझने के लिए उन्हें एक हजार बार पढ़ना पड़ेगा। उनके हर लफ़्ज़ में कोई ना कोई मायने दफन है।

‘ग़ालिब के दो हिस्से हैं, फ़ारसी और उर्दू’
इंस्टिट्यूट ऑफ इंडो पर्शियन स्टडीज के प्रेजिडेंट प्रो. सैयद अख्तर हुसैन ने कहा, ग़ालिब शायरों के शायर थे। इंसान की जिंदगी में संघर्ष होता है, दर्द होता है, यह ग़ालिब की जिंदगी में था। इस मामले में वो औरों की ही तरह थे,मगर शायर के तौर पर वो बिल्कुल जुदा थे। हुसैन बताते हैं, ग़ालिब के दो हिस्से हैं, एक फारसी और एक उर्दू। उनकी फ़ारसी किताबें उर्दू की किताबों से लगभग दोगुनी हैं। फ़ारसी से लोगों की नावाकफियत है, उर्दू ही सब पहचानते हैं। इन दोनों का हक अदा ना करें, तो ग़ालिब का हक अदा नहीं हो सकता। दरअसल, फ़ारसी का ज्यादा तर्जुमा नहीं हुआ है, जिसकी काफी जरूरत है। और इसके लिए अच्छे मुतर्जिम की भी जरूरत हैं।

हुसैन कहते हैं, तर्जुमा लफ़्ज़ दर लफ़्ज़ नहीं, बल्कि इसमें रूह की अदायगी होनी चाहिए। फ़ारसी अदब अंग्रेजी में बेहतर रूपायित हुआ है। हालांकि, कुछ खो गया है मगर उससे ज्यादा चीजें अंग्रेजी में जोड़ी भी गई हैं। मसलन, खय्याम जो बातें कहना चाहते थे, उसे अंग्रेजी में शायर ने कह दिया। यही फन है तर्जुमा (अनुवाद) का। इसके लिए ना सिर्फ भाषा का उस्ताद होना काफी है बल्कि एक शायर होना और शायर को समझना बहुत जरूरी है। ग़ालिब को भी दूसरी भाषा में उतारने के लिए बेहतरीन मुतर्जिम (अनुवादक) होना जरूरी है।

‘ग़ालिब ने फ़ारसी विरासत हिंदुस्तानी अंदाज में बढ़ाया’
लखनऊ यूनिवर्सिटी के डॉ. मो. अरशदुल कादरी ने कहा, ग़ालिब ने ही पर्शियन ट्रेडिशन को आगे बढ़ाया, हिंदुस्तान की ज़बानों के साथ। ईरान में जब शायरी ढलान पर आ रही थी, तब उन्होंने पर्शियन ट्रेडिशन को इंडियन स्टाइल के साथ पेश किया। कहा जाता है कि मुगलों ने हिंदुस्तान को तीन नायाब चीज दीं– ताजमहल, उर्दू और मिर्जा ग़ालिब। एक आम बात उनके बारे में कही जाती है कि उन्होंने शायरी के लिए अपनी अलग राह निकाली। उन्होंने अपना बगीचा खुद बनाया। ग़ालिब का अंदाज सुनिए :

ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता

वह कहते हैं, उनका छोटा सा दीवान है, जिसे जिंदगी का इन्साइक्लोपीडिया कह सकते हैं। ग़ालिब से हर क्लास के लोग खुद को जोड़ सकते हैं। आज की पीढ़ी के लिए भी उनके पास बहुत कुछ है। जैसे,

इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के

या

ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

दूसरी तरफ, वो दर्द को दर्शन के साथ समझाते हैं। वह कहते हैं,

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

‘ग़ालिब एक फ़लसफ़ी शायर थे’
इस कार्यक्रम में पहुंचीं ग़ज़ल और सूफी गायिका अनीता सिंघवी ने कहा, ग़ालिब पिछली पांच-दस सदियों के नायक हैं। वह तिलिस्मी जादूगर हैं। उन्होंने जो शायरी, ख़तूत, गद्य लिखा है, वो नायाब हैं। उनको जिंदगी में कभी शोहरत नहीं मिली और दुनिया से उनके जाने के 50 साल बाद लोगों ने उन्हें समझना शुरू किया। जिंदगीभर उन्होंने दर्द का दस्तरखान खोला हुआ था। वो दर्द के सबसे बड़े शायर, इश्क के सबसे बड़े शायर थे। लोग कहते थे कि वो फ़लसफ़ी नहीं थे, मगर मेरा मानना है कि वो सबसे बड़े फ़लसफ़ी थे।

इस कार्यक्रम का जिक्र करते हुए अनीता ने कहा, यह चर्चा ग़ालिब के छिपे हुए चेहरे को बयां करती है। उनकी छोटी सी किताब जो दुनिया में मशहूर है, उसमें उनके चंद शेर हैं मगर फ़ारसी में उनके 11 दीवान हैं, जिनके एक-एक कलाम इतने गहरे और लोचदार हैं कि पूरी जिंदगी उनमें बीत सकती है। आज के दौर में बौद्धिकता का बहुत ह्रास हुआ हुआ है।असल बुद्धिजीवी बहुत कम रह गए हैं। उनको वो शोहरत भी नहीं मिलती क्योंकि वो सिर्फ अपनी ही रचनात्मकता में रहते है। ऐसे लोगों को इन चर्चाओं, साक्षात्कार सम्मेलन के जरिए आगे लाने की जरूरत है ताकि जो शायर बेहतरीन काम कर गए हैं, जिन पर हार्वर्ड जैसी यूनिवर्सिटी में रिसर्च हो रही है, उस हिसाब से उनकी कद्र हिंदुस्तान में भी हो सके। इस दिलचस्प चर्चा में शामिल हुए जेएनयू के प्रोफेसर संजय कुमार पांडे ने कहा, ग़ालिब सिर्फ अदबी लोगों के ही नहीं, बेतालीम और बेअदबों के लिए भी हैं।

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