कौन-कौन बना शॉक ऑब्जर्वर? शह-मात में माहिर सुशील मोदी, नीतीश का साथ और दो दशक तक मुट्ठी में BJP

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कौन-कौन बना शॉक ऑब्जर्वर? शह-मात में माहिर सुशील मोदी, नीतीश का साथ और दो दशक तक मुट्ठी में BJP

कौन-कौन बना शॉक ऑब्जर्वर? शह-मात में माहिर सुशील मोदी, नीतीश का साथ और दो दशक तक मुट्ठी में BJP

रमाकांत चंदन, पटना : करीब दो दशक तक भाजपा को जेब में रख अपने मुताबिक राजनीति की बिसात बिठाने वाले सुशील मोदी 2020 के बाद पार्टी की मुख्यधारा में नहीं रहे। लेकिन विरोध की जबरदस्त नीति का कुछ ऐसा तजुर्बा सुशील मोदी को हासिल हो गया है कि महागंठबंधन की सरकार के बनते ही हर जगह मोदी ही मोदी नजर आ रहे हैं। आश्चर्य यह है कि जिस नीतीश कुमार की वैशाखी पर वे भाजपा की जरूरत बनते रहे, उन पर भी हमला करने से नहीं चूक रहे हैं सुशील मोदी। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा है कि सुशील मोदी विरोधियों के साथ-साथ अपने करीबियों की भी कुंडली साथ रखते हैं। आज वही अस्त्र है, जिसके इस्तेमाल से सुशील मोदी, नीतीश कुमार और ललन सिंह को नाक से पानी पिला रहे हैं।

दरअसल, सुशील मोदी ने राजनीति में आने से पहले पत्रकारिता भी किया है। सो, खोजी पत्रकारिता वाले गुण भी हैं। साथ ही सुशील मोदी की पकड़ अधिकारियों के बीच भी है। वे ऐसे पदाधिकारियों और सचिवालय के कर्मचारियों, यहां तक कि कई पत्रकारों से भी संबंध रखकर आसपास के सभी मुख्य राजनीतिज्ञों की कुंडली रखते हैं। वक्त आने पर इस्तेमाल भी करते हैं। ये फॉर्म्यूला विपक्षी दलों के लिए ही नहीं बल्कि अपने साथ चल रहे दल के वरीय साथियों पर भी इस्तेमाल करते हैं।

नीतीश विरोध का ‘मोदी स्टाइल’
महागंठबंधन की सरकार बनते ही हमलावर भाजपा नेताओं में सुशील मोदी काफी बढ़-चढ़ कर सामने आ रहे हैं। उनके तर्क के आगे नीतीश कुमार का जवाब भी नहीं निकल पाया। खास कर जब तब उन्होंने कहा कि ‘नीतीश जी 130 करोड़ की जनता में लाखों पीएम मीटिरियल हैं। मगर पीएम बनने के लिए 272 सांसदों की जरूरत होती है। नीतीश को यहीं नहीं छोड़ा। मोदी ने तिलमिलाने वाले बयान देते हुए कहा कि क्राइम पर जीरो टॉलरेंस की बात करने वाले नीतीश कुमार आज लालू प्रसाद यादव के समर्थन से सरकार चला रहे हैं, वो भ्रष्टाचारियों के द्वारा, भ्रष्टाचारियों के लिए और भ्रष्टाचारियों की शासन व्यवस्था है। हालांकि, विरोध के स्तर पर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ संजय जायसवाल, पूर्व उपमुख्यमंत्री तारकेश्वर प्रसाद और दूसरे नेता हाथ आजमा रहे हैं, मगर वे चुभने वाले और असरदार नहीं होते।

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सुशील मोदी को गोविंदचार्य का वरदहस्त
सुशील मोदी विधायक तो पहले बन गए थे लेकिन 1995 के बाद गोविंदाचार्य के संपर्क में आए तो उनका कद एक आम विधायक से ऊपर उठ गया। सुशील मोदी को केंद्रीय संघटन में गोविंदाचार्य ले गए और राष्ट्रीय सचिव बनाया। हालांकि नेता प्रतिपक्ष बनने की कोशिश भी हुई, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। तब वे लालू विरोध की पटरी पर कदम बढ़ा रहे थे। पटना से विधायक होने के कारण इनकी पैठ पार्टी कार्यालय में भी बढ़ रही थी। लेकिन उनका आकार पहली बार 1996 में तब बढ़ा, जब वे जगबंधु अधिकारी के बाद नेता प्रतिपक्ष बन गए। यहां से मोदी का कद बढ़ना शुरू हो गया। फिर वो वक्त आया, जब विधायकों के कोटे से एमएलसी के चुनाव में यशोदानंद सिंह चुनाव में उतरे। ऐसी चर्चा है कि तब सुशील मोदी के पसंद यशोदानंद नहीं थे। उन्होंने उनके विरुद्ध प्रवीण सिंह को निर्दलीय खड़ा कर चुनाव को पेंचीदा बना डाला। हालांकि एन-केन वोटों की व्यवस्था कर यशोदानंद जीत गए। लेकिन तब पार्टी विरोधी गतिविधि को लेकर कार्रवाई की बात भी उठी। लेकिन तब तक गोविंदाचार्य का वरदहस्त सुशील मोदी को हासिल हो चुका था और दल के विरोधी बगले झांकने लगे।

1998 के बाद सुशील मोदी का विशाल कद

वर्ष 1998 आते-आते सुशील मोदी का कद काफी बढ़ चुका था। तब वो क्षण भी आया, जब एक साथ सुशील मोदी के प्रभाव में यशोदानंद सिंह, जनार्दन यादव, कामेश्वर पासवान और तराकांत झा को पार्टी से निष्कासन का फरमान जारी किया गया। बात बहुत ऊपर तक गई लेकिन तब तक बड़े कद्दावर भाजपाइयों में लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, अनंत कुमार से संबंध मधुर बन गए थे। एनडीए की सरकार बनने और सीएम कैंडिडेट होने तक के सफर में नीतीश जी भाजपा के उन लिड्रान से संपर्क में आ चुके थे, जो पार्टी पर अपना शय रखते थे। इस काम में सुशील मोदी सेतु बने। जाहिर है सरकार बनी तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पसंद बतोर डेप्युटी सीएम सुशील मोदी बने। मोदी के विरुद्ध यहां से भाजपा नेताओं की गोलबंदी शुरू हो गई। मतभेद की वजह थी कि भाजपा के भीतर कौन मंत्री बनेगा और कौन डेप्युटी सीएम, ये नीतीश कुमार क्यों तय करेंगे।

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2008 और सुशील मोदी के विरुद्ध मिशन
वर्ष 2008 भाजपा के इतिहास में नीतीश कुमार और सुशील मोदी के डॉमिनेंस का काल कहा जाएगा। ये वो वक्त है, जब नीतीश कुमार की भाजपा के भीतर दखलंदाजी बढ़ी और सुशील मोदी इस पर केंद्रीय भाजपा नेतृत्व की मुहर लगाते दिखे। तब हुआ यह कि, 2008 में मंत्रिमंडल विस्तार हुआ, उसमें कई मंत्री को हटाया गया, कइयों का विभाग बदला और कई नए भी आए। बात दिल्ली तक पहुंची। लेकिन राजनीतिक गलियारे में चर्चा ये रही कि तब नीतीश कुमार ने अरुण जेटली के सहारे सुशील मोदी की स्थिति यानी डेप्युटी सीएम के पद को बरकरार रखने में सफल रहे। तब तक सुशील मोदी के विरुद्ध भाजपा नेताओं का एक बड़ा जमावड़ा हो गया था। जिसमें पुराने नेताओं में अश्वनी चौबे, अमरेंद्र प्रताप सिंह, जनार्दन सिग्रीवाल, चंद्रमोहन राय, गिरिराज सिंह के साथ और भी नए नाम मसलन भाजपा नेता मसलन भूपेंद्र यादव, नित्यानंद राय, संजय जायसवाल जैसे कई भाजपाई शामिल हो गए।

साल 2009, 2010 और फिर 2015 का चुनाव
ये वही समय था जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश के तमाम हिस्सों से आए भाजपा नेताओं के दिए जाने वाले भोज को कैंसिल कर दिया था। तब भी राजनीतिक गलियारों में ये चर्चा होने लगी कि ये सुशील मोदी की जानकारी और सहमति के बिना नहीं हो सकता। तब पहली बार नरेंद्र मोदी और अमित शाह की निगाहों पर सुशील मोदी चढ़ गए। वर्ष 2013 में तो एनडीए के साथ गंठबंधन ही टूट गया। 2015 का विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बड़ा सेटबैक वाला साबित हुआ। प्रचार-प्रसार के बेहतर आयाम के साथ इस चुनाव में अमित शाह और भूपेंद्र यादव को काफी उम्मीद बिहार से हो गई थी। पीएम नरेंद्र मोदी का भी दौरा काफी हुआ। मगर भाजपा को मात्र 53 सीटें मिली। भाजपा का फीडबैक इस चुनाव परिणाम को लेकर बहुत बुरा आया। कहते हैं कि तब हार का ठिकरा सुशील मोदी पर ही टूटा। भाजपा के भीतरखाने में ये चर्चा थी कि सुशील मोदी के कमजोर उम्मीदवार देने की वजह से हार हुई।

2017-2020 के बीच तय हुई सुशील मोदी की किस्मत
वर्ष 2015-2020 आने के बीच एक महत्वपूर्ण 2017 का वो क्षण है, जब एक बार फिर नीतीश कुमार के साथ भाजपा की सरकार बनी। मगर तब तक भाजपा का प्रयोग बिहार को लेकर शुरू हो गए थे, जहां सुशील मोदी के विकल्प की खोज होने लगी। प्रेम कुमार, नित्यानंद राय, डॉ संजय जायसवाल आजमाए जा चुके थे। तब तक 2020 का चुनाव सिर पर था। ये चुनाव गंठबंधन के साथ लड़ा गया। वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को जीत मिली और भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। विधायक दल के नेता के चयन को लेकर काफी बवाल हुआ। कहा जाता है कि नीतीश कुमार चाहते थे कि सुशील मोदी ही विधायक दल के नेता बने। लेकिन इस बार ऐसा होने नहीं दिया गया। भाजपा के भीतरखाने का सच ये है कि पार्टी कार्यालय में नेता चुनने को लेकर बात चली। इस बार केंद्रीय नेतृत्व सुशील मोदी को उपमुख्यमंत्री नहीं बनाने के फैसले पर अडिग थी। नीतीश ने भरपूर कोशिश की लेकिन नित्यानंद राय और संजय जायसवाल को उपमुख्यमंत्री केंद्र बनाना चाहता था। सुशील मोदी भी इन नामों पर अड़ गए। ये पहली बार हुआ कि नेता का चुनाव पार्टी ऑफिस में न होकर नीतीश के आवास पर एनडीए विधायकों की बैठक में तय हुआ? अंततः मोदी राजी तो हुए पर रेणु देवी और तारकिशोर प्रसाद के नाम पर। यहां से सुशील मोदी की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी थी।

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10 अगस्त 2022 के बाद फिर सुशील मोदी ऐक्टिव
फिर एक समय ऐसा आया जब एनडीए से नीतीश कुमार ने नाता तोड़ डाला और 10 अगस्त 2022 को राज्य में महागठबंधन की सरकार बनी। और फिर यहां से सुशील मोदी की नई भूमिका शुरू हो गई। बहरहाल, सुशील मोदी बेरोकटोक महागंठबंधन की सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोल कर सत्ता की राजनीति को कठघरे में खड़ा तो कर ही रहें। अब इस भूमिका को भाजपा किस नजर से देखती है, ये तो आने वाला समय ही बताएगा।

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