इकॉनमी की ड्राइविंग सीट पर आई सरकार

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इकॉनमी की ड्राइविंग सीट पर आई सरकार

इकॉनमी की ड्राइविंग सीट पर आई सरकार

आनंद प्रधान
जैसा कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वादा किया था, उनका पांचवां और मोदी सरकार का आखिरी पूर्ण बजट पिछले दो बजटों की निरंतरता को जारी रखता है। देर से ही सही, वित्त मंत्री ने सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था को गति देने में सार्वजनिक पूंजीगत व्यय की निर्णायक भूमिका को माना है। वित्त मंत्री ने वित्त वर्ष 2023-24 के बजट में पूंजीगत व्यय (केपेक्स) में पिछले साल की तरह एक बार फिर 33 फीसदी की बढ़ोतरी की घोषणा करते हुए उसे 10 लाख करोड़ रुपये करने का प्रस्ताव किया है। इस तरह सरकार एक बार फिर अर्थव्यवस्था की ड्राइविंग सीट पर आ गई है।

लेकिन यह फैसला उस नव-उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के उलट है, जो सरकार को अर्थव्यवस्था की ड्राइविंग सीट छोड़ने, उसकी भूमिका सीमित करने (न्यूनतम सरकार) और निजी क्षेत्र को कमान देने की वकालत करती रही है। यह किसी से छुपा नहीं है कि नव-उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पिछले कई दशकों हर रंग की सरकारों की आधिकारिक अर्थनीति रही है। हालांकि, वित्त मंत्री इसे स्वीकार नहीं करेंगीं, लेकिन उन्होंने मजबूरी में ही सही, एक हद तक इसके विपरीत जाने का साहस दिखाया है। पूंजीगत व्यय में भारी वृद्धि इस समय कई संकटों में फंसी वैश्विक अर्थव्यवस्था के असर से लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा सहारा है। इस सचाई को इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण ने भी माना है।

EDIT NIRMALA 1 -

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण

वैसे, वित्त मंत्री कुछ और महत्वाकांक्षी हो सकती थीं। वह चाहतीं तो पूंजीगत व्यय में जितना जोर फिजिकल (भौतिक) इन्फ्रास्ट्रक्चर खासकर सड़क और रेलवे आदि पर दिया गया है, उतना ही सामाजिक क्षेत्र के इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी दे सकती थीं। इसके साथ कृषि में भी पूंजीगत सार्वजनिक व्यय में भारी वृद्धि की जरूरत थी, जो एक बार फिर उपेक्षित रह गया। इसकी वजह यह है कि वह नव-उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों खासकर वैश्विक रेटिंग एजेंसियों, विदेशी संस्थागत निवेशकों, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को नाराज भी नहीं करना चाहतीं, जो सबसे ज्यादा जोर राजकोषीय घाटे को काबू में रखने पर देते रहे हैं।

यही कारण है कि वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे को काबू में रखने की प्राथमिकता को भी छोड़ा नहीं है। उन्होंने न सिर्फ चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को बजट अनुमान जीडीपी के 6.4 फीसदी के अंदर रखने का दावा किया है बल्कि अगले वित्तीय वर्ष में उसमें जीडीपी के 0.5 फीसदी की और कटौती करते हुए उसे 5.9 फीसदी तक लाने का एलान किया है। यह और बात है कि वह चालू वित्त वर्ष (2022-23) में बजट अनुमान की तुलना में संशोधित बजट अनुमान में 2.42 लाख करोड़ रूपये ज्यादा खर्चने के बावजूद राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 6.4 प्रतिशत तक रखने में इसलिए कामयाब हो पाईं क्योंकि नॉमिनल जीडीपी, मुद्रास्फीति में उछाल के कारण उम्मीद से ज्यादा बढ़कर 15.4 फीसदी पहुंच गया।

इसी तरह अगले वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे में और कटौती करने और उसे जीडीपी के 5.9 फीसदी तक सीमित रखने के दबाव में वित्त मंत्री ने कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों और स्कीमों के बजट आवंटन में या तो कटौती कर दी है या बहुत मामूली बढ़ोतरी की है। उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में वर्ष 2021-22 में 98,648 करोड़ रुपये खर्च हुए थे और चालू वित्त वर्ष के संशोधित बजट में इस पर 89,400 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है, लेकिन अगले वित्त वर्ष के बजट में इसके लिए सिर्फ 60,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। यह चालू वित्त वर्ष के संशोधित बजट अनुमान की तुलना में 32.8 फीसदी कम है।

इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला, सरकार को मनरेगा के तहत काम के मांग में कमी आने के संकेत मिल रहे हों। हालांकि, ऐसा होने की उम्मीद कम है क्योंकि एक तो ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमिकों की मजदूरी में वृद्धि नहीं हुई है और दूसरे, रोजगार के अवसर बढ़ने के भी संकेत नहीं हैं। इसके उलट जमीनी रिपोर्ट यह है कि मनरेगा के तहत काम की मांग के बावजूद सरकार न सिर्फ काम के अवसर नहीं मुहैया करा रही है बल्कि किए गए काम की मजदूरी देने में भी काफी देर कर रही है।

दूसरा कारण यह हो सकता है कि वित्त मंत्री मनरेगा के बजट में लगभग 30 हजार करोड़ रुपये और ऐसी ही दूसरी स्कीमों के बजट में कटौती करके राजकोषीय घाटे को कम दिखाकर तात्कालिक रूप से नव-उदारवादी आर्थिकी के पैरोकारों की वाहवाही हासिल करना चाहती हों। ऐसी आर्थिक नीतियों के समर्थकों की मनरेगा और ऐसी ही दूसरी स्कीमों के प्रति चिढ़ किसी से छुपी नहीं है। कारण चाहे जो हों, लेकिन इससे उन ग्रामीण गरीब मजदूरों की मुश्किल बढ़ेगी, जिनके लिए रोजगार के बेहतर अवसरों की कमी और ग्रामीण मजदूरी में बढ़ोतरी न होने के बीच मनरेगा बड़ा सहारा बना रहा है।

ऐसे ही पीएम किसान सम्मान निधि के लिए बजट प्रावधान में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। यह हैरानी की बात है कि इस योजना के तहत सरकार ने वर्ष 2021-22 के बजट में कुल 66,825 करोड़ रुपये खर्च किए, जिसके आधार पर वित्त मंत्री ने चालू वित्त वर्ष के बजट अनुमान में 68,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया। हालांकि, संशोधित बजट अनुमान के मुताबिक, खर्च सिर्फ 60,000 करोड़ रुपये किए। उम्मीद थी कि आसमान छूती महंगाई को देखते हुए वित्त मंत्री इस बजट में पीएम किसान सम्मान निधि में बढ़ोतरी की घोषणा करेंगी। लेकिन उन्होंने एक बार फिर सिर्फ 60,000 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है।

यही हाल प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना का भी है, जिसके लिए चालू वित्त वर्ष में 10,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था, लेकिन संशोधित बजट अनुमान के मुताबिक, उसमें सिर्फ 8,270 करोड़ रुपये खर्च हुए और अगले वित्त वर्ष के बजट अनुमान में उसमें 59 फीसदी की कटौती करके सिर्फ 3,365 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इसी तरह स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के लिए अगले वित्त वर्ष में 86,175 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जो चालू वित्त वर्ष के बजट अनुमान 83 हजार करोड़ रुपये की तुलना में सिर्फ 3.8 फीसदी और संशोधित बजट अनुमान की तुलना में 7.9 फीसदी की वृद्धि है।

दूसरी ओर, शिक्षा मंत्रालय (स्कूली और उच्च शिक्षा सहित) के लिए अगले वित्त वर्ष में कुल 1,12,898 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जो चालू वित्त वर्ष के बजट अनुमान की तुलना में सिर्फ 8.26 फीसदी अधिक है। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार अगर देश को सचमुच, ‘नॉलेज इकॉनमी’ बनाने के प्रति प्रतिबद्ध है और देश डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यकीय लाभांश) का लाभ उठाना चाहता है तो उसे स्कूली और उच्च शिक्षा के विस्तार और उससे भी अधिक उसकी गुणवत्ता बढ़ाने के लिए जीडीपी का कम से कम 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च करना होगा। लेकिन शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकारों का कुल खर्च आज भी जीडीपी के 3 फीसदी से कुछ ही ज्यादा है।

यहां कृषि क्षेत्र की बात करना भी जरूरी है क्योंकि महामारी और उसके बाद रूस-यूक्रेन युद्ध और वैश्विक महंगाई के मुश्किल वक्त में भारतीय अर्थव्यवस्था को एक हद तक कृषि क्षेत्र के अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन ने सहारा दिया है। लेकिन ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि का संकट बना हुआ है। कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने और उसे लाभकारी बनाने के लिए उसमें सार्वजनिक पूंजीगत व्यय को बड़े पैमाने पर बढ़ाने की जरूरत है। कुछ उसी तरह से जैसे इस सरकार ने सड़क और रेलवे में पूंजीगत व्यय में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की है।

लेकिन अफसोस यह कि वित्त मंत्री ने कृषि और किसान कल्याण विभाग के लिए अगले वित्त वर्ष में 1,15,531 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है, जो चालू वित्त वर्ष के बजट अनुमान 1,24,000 करोड़ रुपये की तुलना में 6.8 फीसदी की कटौती और संशोधित बजट अनुमान की तुलना में सिर्फ 4.7 फीसदी की बढ़ोतरी है।

यह सही है कि कोई भी बजट सभी वर्गों और क्षेत्रों की मांगों और अपेक्षाओं खासकर परस्पर विरोधी मांगों को पूरा नहीं कर सकता। लेकिन बजट से सरकार की प्राथमिकताएं जरूर पता चलती हैं। इस बजट की प्राथमिकताएं भी स्पष्ट हैं। वित्त मंत्री निश्चित रूप से और महत्वाकांक्षी हो सकती थीं, लेकिन उन्होंने वह जोखिम लेने की कोशिश नहीं की। नतीजा यह कि अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों और वर्गों को बजट से निराशा ही हाथ लगी है।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

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