अखिलेश को झटका देते हुए बसपा से आगे कैसे निकल गई राजा भैया की पार्टी, जानिए जनसत्ता दल का 4 साल का इतिहास
लखनऊ: उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण और उसके आधार पर सत्ता की सीढ़ी चढ़ने वाली राजनीतिक खूब चली है। खासकर मंडल आंदोलन के बाद। मंडल आंदोलन के बाद ओबीसी वर्ग का उभार हुआ। इस वर्ग ने सत्ता के गलियारे में अपनी धमक और चमक बढ़ानी शुरू की। स्थापित समीकरण टूटने लगे। स्थितियां बदलने लगी। हालांकि, इससे करीब चार दशक पहले 1951 में बड़ा फैसला हुआ था। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक अहम फैसला जमींदारी उन्मूलन कानून लागू करने का हुआ था। देश में अंग्रेजों ने जमीनों पर अधिकार जमींदारों को दे दिया था। उनके जरिए वे टैक्स की वसूली कराते थे। जमींदारों के ऊपर में राजा बनाए जाते थे। वहीं, कई रियासतें पहले से ही प्रभावी थीं। जमींदारी प्रथा ने इन जमींदारों की स्थिति सबसे अधिक खराब की। लेकिन, राजाओं ने अपने रसूख के दम पर सत्ता, पार्टियां और सरकार में अपना अलग वजूद कायम रखा। इस घटना के बाद व्यवस्था बदली। स्थिति बदली। परिस्थितियां बदलती चली गई। चार दशक बाद जब मंडल आंदोलन खत्म हुआ तो समाज में अब तक उपेक्षित रखा गया ओबीसी तबका राजनीतिक महत्वाकांक्षा लिए सत्ता की सीढ़ी तक चढ़ने को बेताब था। अब तक यह वर्ग राजा के दिशा-निर्देशों पर अपने वोट की दिशा तय करता था। अब उनके वर्ग से निकले नेताओं ने कमान अपने हाथ में ले ली। ऐसे में शासन की डोर को थामे रखने की कोशिश हुई। यूपी के प्रतापगढ़ में कुंवर रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया यूपी के सियासी मैदान में उतर गए। करीब तीन दशक से वे इस इलाके में अपनी राजनीतिक पकड़ बनाए हुए हैं।
जातीय राजनीति का बड़ा उदाहरण राजा भैया
राजा भैया ने जातीय राजनीति के सहारे अपनी राजनीतिक जमीन को न केवल तैयार किया, बल्कि मजबूत किया। जब यूपी की राजनीति में राजाओं के किले नए राजनीतिक उभारों से ढहते जा रहे थे, राजा भैया जमते और बढ़ते चले गए। अपनी दबंग छवि के जरिए उन्होंने तमाम राजनीतिक दलों को अपने सामने खड़ा होने पर मजबूर किया। राजा भैया ने सबसे अधिक भरोसा अपने समीकरण पर ही किया। एक जाति विशेष के बीच उनकी पकड़ आज के समय में भी काफी मजबूत है। इसी के सहारे और आसरे वे राजनीति के मैदान में लंबी छलांग लगाते दिख रहे हैं। 30 नवंबर 2018 को उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी का गठन किया। नाम दिया जनसत्ता पार्टी लोकतांत्रिक। इस पार्टी ने चार सालों में ही यूपी के तमाम दिग्गज राजनीतिक दलों के समकक्ष अपनी हैसियत बना ली है।
यूपी चुनाव 2022 के नतीजे इसकी तस्दीक करते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा में राजा भैया की जनसत्ता पार्टी के दो विधायक हैं। इस प्रकार वे प्रदेश की चार दशक पुरानी पार्टी बहुजन समाज पार्टी से विधानसभा में सीटों के मामले में दोगुना के स्तर पर हैं। वहीं, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के समकक्ष स्थान रखते हैं। बसपा को यूपी चुनाव में 1 और कांग्रेस को 2 सीटों पर जीत मिली थी।
बढ़ा कद, बदले तेवर
यूपी विधानसभा में बढ़े कद और बदले तेवर के साथ राजा भैया दिख जाते हैं। पार्टी के स्थापना दिवस के मौके पर भी वे अपने इसी तेवर के साथ सामने आए। कहा, मैं तो अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया। उन्होंने कहा कि चार सालों में बिना किसी दल से गठबंधन किए बिना हम विधानसभा और विधान परिषद का चुनाव लड़े। आज हमारी पार्टी जनसत्ता दल का विधानमंडल देश के दो बड़े राजनीतिक दलों कांग्रेस और बसपा से बड़ा है। वर्ष 2018 में जब उन्होंने अपनी पार्टी की घोषणा की थी तो भारी भीड़ उमड़ी थी।
26 साल की उम्र में बने थे विधायक
रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया का जन्म प्रतापगढ़ के भदरी रियासत परिवार में 31 अक्टूबर 1967 को हुआ। प्राथमिक शिक्षा नारायणी आश्रम, इलाहाबाद के महाप्रभु बाल विद्यालय से की। 1985 में दसवीं और 1987 में 12वीं कक्षा की पढ़ाई पास की। लखनऊ विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ले चुके राजा भैया घुड़सवारी और निशानेबाजी के शौकीन हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वे साइकिल से हवाई जहाज उड़ाने तक का कार्य करते हैं। वे महज 26 साल की उम्र में वर्ष 1993 में पहली बार विधायक बने थे।
राजा भैया ने 1993 में कुंडा की राजनीति में कदम रखा और उसके बाद से वे हारे नहीं हैं। उनके पहले यह कांग्रेस का गढ़ था। कांग्रेस के नियाज हसन इस सीट पर वर्ष 1962 से 1989 के बीच पांच बार विधायक चुने गए। राजा भैया के 1993 और 1996 के चुनाव में भाजपा का समर्थन मिला। 2002 से 2012 तक सपा समर्थक प्रत्याशी के तौर पर जीत दर्ज की। हालांकि, बिना किसी राजनीतिक दल का चिन्ह लिए निर्दलीय चुनावी मैदान में उतरे और जीते। भाजपा की कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता एवं राजनाथ सिंह और सपा की सरकारों में मंत्री रह चुके हैं।
अखिलेश को दिया झटका
यूपी की राजनीति में राजा भैया को पिछले वर्षों में मुलायम सिंह यादव के करीबी के तौर पर देखा गया। लेकिन, समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव की भूमिका बढ़ने के बाद राजा भैया को किनारे लगाया जाने लगा। उन्होंने भी अखिलेश को झटका देते हुए नई पार्टी का ऐलान कर दिया। यूपी चुनाव से पहले राजा भैया मुलायम सिंह यादव के पिछले जन्मदिन के मौके पर उन्हें बधाई देने लखनऊ स्थित आवास गए थे। इस दौरान सपा और जनसत्ता दल के साथ आने के कयास लगने लगे। फिर अखिलेश यादव ने राजा भैया को पहचानने से ही इनकार कर दिया। उनके साथ लेने के सवाल पर मीडिया से ही पूछा, कौन राजा भैया? इसके बाद कुंडा में सपा ने उम्मीदवार उतारा। चुनावी मुकाबले में गर्मी शांत किए जाने तक की बात कही गई। राजा भैया ही नहीं, उनके एक अन्य उम्मीदवार भी जीते।
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जातीय राजनीति का बड़ा उदाहरण राजा भैया
राजा भैया ने जातीय राजनीति के सहारे अपनी राजनीतिक जमीन को न केवल तैयार किया, बल्कि मजबूत किया। जब यूपी की राजनीति में राजाओं के किले नए राजनीतिक उभारों से ढहते जा रहे थे, राजा भैया जमते और बढ़ते चले गए। अपनी दबंग छवि के जरिए उन्होंने तमाम राजनीतिक दलों को अपने सामने खड़ा होने पर मजबूर किया। राजा भैया ने सबसे अधिक भरोसा अपने समीकरण पर ही किया। एक जाति विशेष के बीच उनकी पकड़ आज के समय में भी काफी मजबूत है। इसी के सहारे और आसरे वे राजनीति के मैदान में लंबी छलांग लगाते दिख रहे हैं। 30 नवंबर 2018 को उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी का गठन किया। नाम दिया जनसत्ता पार्टी लोकतांत्रिक। इस पार्टी ने चार सालों में ही यूपी के तमाम दिग्गज राजनीतिक दलों के समकक्ष अपनी हैसियत बना ली है।
यूपी चुनाव 2022 के नतीजे इसकी तस्दीक करते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा में राजा भैया की जनसत्ता पार्टी के दो विधायक हैं। इस प्रकार वे प्रदेश की चार दशक पुरानी पार्टी बहुजन समाज पार्टी से विधानसभा में सीटों के मामले में दोगुना के स्तर पर हैं। वहीं, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के समकक्ष स्थान रखते हैं। बसपा को यूपी चुनाव में 1 और कांग्रेस को 2 सीटों पर जीत मिली थी।
बढ़ा कद, बदले तेवर
यूपी विधानसभा में बढ़े कद और बदले तेवर के साथ राजा भैया दिख जाते हैं। पार्टी के स्थापना दिवस के मौके पर भी वे अपने इसी तेवर के साथ सामने आए। कहा, मैं तो अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया। उन्होंने कहा कि चार सालों में बिना किसी दल से गठबंधन किए बिना हम विधानसभा और विधान परिषद का चुनाव लड़े। आज हमारी पार्टी जनसत्ता दल का विधानमंडल देश के दो बड़े राजनीतिक दलों कांग्रेस और बसपा से बड़ा है। वर्ष 2018 में जब उन्होंने अपनी पार्टी की घोषणा की थी तो भारी भीड़ उमड़ी थी।
26 साल की उम्र में बने थे विधायक
रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया का जन्म प्रतापगढ़ के भदरी रियासत परिवार में 31 अक्टूबर 1967 को हुआ। प्राथमिक शिक्षा नारायणी आश्रम, इलाहाबाद के महाप्रभु बाल विद्यालय से की। 1985 में दसवीं और 1987 में 12वीं कक्षा की पढ़ाई पास की। लखनऊ विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ले चुके राजा भैया घुड़सवारी और निशानेबाजी के शौकीन हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वे साइकिल से हवाई जहाज उड़ाने तक का कार्य करते हैं। वे महज 26 साल की उम्र में वर्ष 1993 में पहली बार विधायक बने थे।
राजा भैया ने 1993 में कुंडा की राजनीति में कदम रखा और उसके बाद से वे हारे नहीं हैं। उनके पहले यह कांग्रेस का गढ़ था। कांग्रेस के नियाज हसन इस सीट पर वर्ष 1962 से 1989 के बीच पांच बार विधायक चुने गए। राजा भैया के 1993 और 1996 के चुनाव में भाजपा का समर्थन मिला। 2002 से 2012 तक सपा समर्थक प्रत्याशी के तौर पर जीत दर्ज की। हालांकि, बिना किसी राजनीतिक दल का चिन्ह लिए निर्दलीय चुनावी मैदान में उतरे और जीते। भाजपा की कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता एवं राजनाथ सिंह और सपा की सरकारों में मंत्री रह चुके हैं।
अखिलेश को दिया झटका
यूपी की राजनीति में राजा भैया को पिछले वर्षों में मुलायम सिंह यादव के करीबी के तौर पर देखा गया। लेकिन, समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव की भूमिका बढ़ने के बाद राजा भैया को किनारे लगाया जाने लगा। उन्होंने भी अखिलेश को झटका देते हुए नई पार्टी का ऐलान कर दिया। यूपी चुनाव से पहले राजा भैया मुलायम सिंह यादव के पिछले जन्मदिन के मौके पर उन्हें बधाई देने लखनऊ स्थित आवास गए थे। इस दौरान सपा और जनसत्ता दल के साथ आने के कयास लगने लगे। फिर अखिलेश यादव ने राजा भैया को पहचानने से ही इनकार कर दिया। उनके साथ लेने के सवाल पर मीडिया से ही पूछा, कौन राजा भैया? इसके बाद कुंडा में सपा ने उम्मीदवार उतारा। चुनावी मुकाबले में गर्मी शांत किए जाने तक की बात कही गई। राजा भैया ही नहीं, उनके एक अन्य उम्मीदवार भी जीते।
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