संजय कुमार का कॉलम: मतदाताओं को उम्मीदवारों के विरुद्ध वोट देने का भी हक है

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संजय कुमार का कॉलम:  मतदाताओं को उम्मीदवारों के विरुद्ध वोट देने का भी हक है
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संजय कुमार का कॉलम: मतदाताओं को उम्मीदवारों के विरुद्ध वोट देने का भी हक है

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5 घंटे पहले

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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार

हाल ही में विधि सेंटर फॉर लीगल रिसर्च द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई की गई। इसमें उस स्थिति में भी मतदाताओं को नोटा का विकल्प देने के बारे में चर्चा की गई, जब एक ही उम्मीदवार मैदान में हो। इसके जरिए हमें इस पर चर्चा करने का अवसर मिला कि भारतीय चुनावों में नोटा कितना प्रासंगिक है?

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अगर एक ही उम्मीदवार मैदान में हो, क्या तब भी चुनाव कराना वांछनीय है? क्योंकि वैसी स्थिति में चुनाव न कराने का यह मतलब होगा कि मतदाताओं को नोटा के जरिए उस एक उम्मीदवार के खिलाफ अपनी राय व्यक्त करने का मौका नहीं दिया गया और उसे निर्विरोध चुन लिया गया।

यह सच है कि नोटा से वांछित परिणाम नहीं मिलते, फिर भी हमें नहीं भूलना चाहिए कि नोटा हमारी चुनावी प्रणाली को स्वच्छ और उत्तरदायी बनाने के प्रयास में एक आगे का रास्ता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नोटा को भारतीय चुनावों में पहली बार 2013 में पीयूसीएल द्वारा दायर जनहित याचिका के आधार पर पेश किया गया था, जिसमें मतदाता के मतदान न करने के अधिकार को मान्यता देने के लिए एक मैकेनिज्म की मांग की गई थी।

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सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग सभी निर्वाचन क्षेत्रों में नोटा को अनिवार्य बनाने के विचार के खिलाफ नजर आया, उस स्थिति में भी जब मैदान में एक ही उम्मीदवार हो। लेकिन चुनाव आयोग के वकील द्वारा दिए तर्क ठोस नहीं लगते।

आयोग ने खुद ही आंकड़े पेश किए कि 1971 से लेकर आज तक पिछले 54 सालों में हुए सभी लोकसभा चुनावों में अब तक केवल छह बार निर्विरोध चुनाव हुए हैं। एक अन्य डेटा के अनुसार 1952 से अब तक केवल 9 बार ही ऐसे मामले आए हैं, जब उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए।

चुनाव आयोग के वकील ने कहा, निर्विरोध चुनाव होने की संभावना बहुत कम हो गई है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को ऐसी जनहित याचिका पर विचार भी नहीं करना चाहिए। प्रत्यक्ष निर्विरोध चुनावों में नोटा को उम्मीदवार मानना ​कानून के अनुरूप नहीं है और इसके लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और चुनाव संचालन नियम 1961 में संशोधन की जरूरत होगी।

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जब चुनाव आयोग इतनी बड़ी संख्या में निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव करा सकता है, तो ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में भी चुनाव कराना- जहां एक ही उम्मीदवार हो​- उसके लिए ऐसा अतिरिक्त काम है, जिसे वह हैंडल नहीं कर सकता? ऐसा होना तो नहीं चाहिए।

यह सच है कि प्रतिशत के लिहाज से देखें तो नोटा लागू होने के बाद से हुए तीन लोकसभा चुनावों (2014, 2019 और 2024) में सिर्फ 1% से थोड़े ज्यादा मतदाताओं ने ही उपरोक्त में से किसी को वोट नहीं देने का निर्णय लिया है। लेकिन संसदीय क्षेत्रों में मतदाताओं के आकार को देखते हुए- जिनमें से प्रत्येक में औसतन लगभग 25 लाख मतदाता हैं- नोटा को वोट देने वालों की ये संख्या भी कम नहीं है।

बिहार में 2015 के चुनाव के दौरान 2.48% और गुजरात में 2017 के चुनाव के दौरान 1.8% लोगों ने नोटा को वोट दिया था। नोटा लागू होने के बाद हुए पहले चुनावों में उसे चुनने वालों का प्रतिशत अधिक था, लेकिन बाद में इसमें गिरावट आई।

चूंकि नोटा का वर्तमान प्रावधान शक्तिहीन है, और उसकी कोई वैधता नहीं है, इसलिए मतदाता उसके इस्तेमाल से हिचकते हैं। वर्तमान प्रणाली यह है कि अगर किसी उम्मीदवार को केवल एक वोट मिले और शेष सभी नोटा को वोट दें, तब भी वह एक वोट पाने वाला उम्मीदवार जीत जाएगा।

इस प्रणाली में सुधार जरूरी है। ऐसा दो तरह से किया जा सकता है। पहला, निर्वाचन के लिए उम्मीदवार द्वारा प्राप्त वोटों का न्यूनतम प्रतिशत निर्धारित करना, जो निर्वाचन क्षेत्र के आकार पर निर्भर करता हो। दूसरा, नोटा को वैधता प्रदान करना, ताकि किसी विशेष चुनाव में कुछ प्रतिशत मतदाताओं द्वारा नोटा का विकल्प चुनने पर पुनः चुनाव का प्रावधान किया जाए।

एक ही उम्मीदवार मैदान में हो, वैसी स्थिति में चुनाव न कराने का मतलब होगा कि मतदाताओं को नोटा के जरिए उस एक उम्मीदवार के खिलाफ अपनी राय व्यक्त करने का मौका नहीं दिया गया। उसे निर्विरोध चुन लिया गया।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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