शेखर गुप्ता का कॉलम: पहलगाम हमले के पीछे कौन-सी सोच थी? h3>
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- Shekhar Gupta’s Column What Was The Thinking Behind The Pahalgam Attack?
3 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
पहलगाम में इतना बड़ा कांड क्यों किया गया? और वह भी खासकर 22 अप्रैल को? इस पहेली का पहला सूत्र है पाकिस्तानी सेना के अध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर का 16 अप्रैल का भाषण। उन्होंने दो कौम के सिद्धांत और इस्लाम के इतिहास के बारे में जो दावे किए उन्हें अगर छोड़ दें तो उस भाषण में गौर करने वाली बात कश्मीर का जिक्र किया जाना थी, और यह कहना कि कश्मीर हमारी शाह रग है, हम इसे भूल नहीं सकते।
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कश्मीर को शाह रग (गले की नस) बताना पाकिस्तान में पढ़ाए जाने वाले पाठ का जरूरी विषय है। लेकिन वर्षों से किसी सेनाध्यक्ष ने कश्मीर को लेकर इतनी मुखर प्रतिबद्धता नहीं जाहिर की थी। मुनीर ने कश्मीर को एजेंडा में फिर से शामिल कर दिया। उनके लहजे में चेतावनी भी थी।
चेतावनी क्यों? आप किसी और तारीख के बारे में सोचिए। भारत 19 अप्रैल को दिल्ली-श्रीनगर के बीच चलने वाली वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन का उद्घाटन करने वाला था, और उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री इस समारोह में शामिल होते। यह समारोह टाल दिया गया। मुनीर ने जब वह भाषण दिया था तब उन्हें यह नहीं मालूम था। ‘नए कश्मीर’ का एक हिस्सा मानी गई इस ट्रेन ने हड़बड़ी पैदा कर दी होगी।
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जम्मू-कश्मीर में पिछले तीन साल से हालात स्थिर हो रहे थे। शांतिपूर्ण चुनाव करवाया जा चुका था जिसमें मतदाताओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया। 2024 में वहां गए सैलानियों की संख्या बढ़कर 29.5 लाख तक पहुंच गई थी, और 2025 में यह 32 लाख तक पहुंच जाने की उम्मीद थी।
हम जानते हैं कि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए शांति कितनी जरूरी होती है। यह कश्मीर की अर्थव्यवस्था की भी रीढ़ है। यह पूरी घाटी में और खासकर पहलगाम के इर्द-गिर्द होटलों और रिजॉर्टों के निर्माण में आई तेजी से भी उजागर हो रहा था।
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इसके साथ अगर आप कश्मीरी युवाओं में शिक्षा और रोजगार के लिए देश के तमाम हिस्सों में जाने के प्रति झुकाव को भी जोड़कर देखें तो यही संकेत मिलेगा कि वहां दिलों के जख्म भरने लगे थे। करीब आठ दशकों से पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में भारतीय ‘औपनिवेशिक बसाहट’ या गैर-कश्मीरियों के आने से जनसंख्या के स्वरूप में बदलाव का हौवा खड़ा कर रखा था। लेकिन कश्मीर के लोग अब पूरे भारत में जाकर बसने लगे थे।
घाटी में स्थिति सामान्य होने का कोई भी लक्षण पाकिस्तानी निजाम के लिए बुरे सपने के समान है। लेकिन यह अब लक्षण से आगे बढ़कर दीवारों पर लिखी इबारत बन गई थी। उनकी यह उम्मीद गलत साबित हो चुकी थी कि कश्मीर के लोग 5 अगस्त 2019 के बाद स्थायी रूप से बगावत पर उतर आएंगे। रावलपिंडी के ‘जीएचक्यू में ‘कश्मीर हमारी तकदीर है’ के नारे पर इकट्ठा हुई जमात के लिए यह जरूर कष्टदायी रहा होगा।
मुनीर के पूर्ववर्ती जनरल कमर जावेद बाजवा ने इस सबको कबूल कर लिया था। वे पाकिस्तानी फौज के ऐसे नेताओं में पहले नहीं थे। उनमें से कई ने हकीकत को कबूल करने का इसी तरह का नजरिया अपनाया था।
उनका मानना था कि हकीकत का इकरार और भारत के साथ बेहतर रिश्ता ही उनके हित में है। इसलिए वे ‘बैक चैनल’ से भारत के साथ मिलकर इस कोशिश में लगे थे कि एलओसी पर मजबूत युद्धबंदी कायम हो जाए।
1989 में मैं जब रिपोर्टिंग के लिए पाकिस्तान गया था, तब 1974-78 के बीच पाकिस्तानी वायुसेना के अध्यक्ष रहे एअर चीफ मार्शल जुल्फिकार अली खान ने कहा था कि मेरे मुल्क को जितनी जल्दी यह एहसास हो जाए कि वह फौजी, कूटनीतिक या सियासी तरीकों से कश्मीर को जीत नहीं सकता उतना बेहतर होगा।
वे एक पेशेवर सैनिक थे, जिन्होंने जिया-उल-हक द्वारा जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्ता पलटे जाने के विरोध में इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद से हमने देखा कि कई आला फौजी कमांडरों ने भी इस तरह टिप्पणी की थी। हम कह सकते हैं कि मुनीर इन ‘आत्म-समर्पणों’ पर, जिसे ‘पहले ही लिखी जा चुकी तकदीर’ वाली भावना के विपरीत माना जाता है, जरूर झल्लाए होंगे। जिया के उत्कर्ष के दौर में 1986 में सेना में शामिल किए गए मुनीर उस प्रक्रिया की जीती-जागती मिसाल माने जाते हैं, जिसे पाकिस्तान में होने वाले विमर्शों में ‘जिया भर्ती’ के नाम से जाना जाता है। यह मान लिया गया है कि ‘भर्ती’ वाले इन अफसरों में से अधिकतर इस्लाम-परस्त हैं और पवित्र ग्रंथों में दर्ज भविष्य में विश्वास करते हैं।
मुनीर ने खास परिस्थितियों में कमान संभाली थी। उन्हें बाजवा का कार्यकाल पूरा होने के महज दो दिन पहले रिटायर होना था। इसने उन्हें चीफ के पद की उम्मीदवारी से बाहर कर दिया था। लेकिन स्थितियों के अविश्वसनीय और रहस्यमय मोड़ के फलस्वरूप उन्हें रिटायरमेंट के चंद दिनों पहले ही चीफ बना दिया गया, शायद इसलिए कि उन्होंने इमरान खान को ठिकाने लगाने का वादा किया था। इसने पाकिस्तान को दो दिनों के लिए दो सेवारत सेनाध्यक्ष देने का ‘गौरव’ प्रदान कर दिया।
मुनीर पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी नहीं, ऑफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल (ओटीएस) के ग्रेजुएट हैं। इस उपमहादेश की सेनाओं में ओटीएस से शॉर्ट सर्विस कमीशंड अफसर निकलते हैं, जो कभी चीफ के ओहदे तक नहीं पहुंच पाते। लेकिन मुनीर इस ओहदे पर पहुंचने वाले ऐसे पहले अफसर हैं।
कुछ और अप्रत्याशित घटनाओं ने भी उन्हें इस आला ओहदे के लिए तैयार कर दिया। जब पुलवामा हमला हुआ था तब वे आईएसआई के चीफ थे। इस ओहदे पर उनके आठ महीने बीते थे कि बाजवा ने उन्हें वहां से हटाने का फैसला किया और उन्हें गुजरांवाला में कोर कमांडर के पद पर तैनात कर दिया गया।
यह उनके करियर में नई शुरुआत थी। पाकिस्तान में सेना अध्यक्ष बनने के लिए आपको कोर कमांडर के रूप में काम करना जरूरी है। मुनीर ने सोचा होगा कि जब तकदीर ने सारे नियम बदलकर मुझे इस कुर्सी पर बैठा दिया है तो वह मुझसे जरूर कोई “बड़ा काम’ करवाना चाहती है!
जंग का जोखिम उठाकर भी एक बड़ा कदम उठाया गया… साजिश को अंजाम देने के लिए सही दिन का इंतजार हो रहा था। दिल्ली से कश्मीर के लिए पहली सीधी ट्रेन का उद्घाटन घाटी के मिजाज और भारत से उसके एकीकरण में बड़ा बदलाव ला सकता है, जिसे किसी भी कीमत पर रोकना था, चाहे जंग का जोखिम क्यों न उठाना पड़े। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
पहलगाम में इतना बड़ा कांड क्यों किया गया? और वह भी खासकर 22 अप्रैल को? इस पहेली का पहला सूत्र है पाकिस्तानी सेना के अध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर का 16 अप्रैल का भाषण। उन्होंने दो कौम के सिद्धांत और इस्लाम के इतिहास के बारे में जो दावे किए उन्हें अगर छोड़ दें तो उस भाषण में गौर करने वाली बात कश्मीर का जिक्र किया जाना थी, और यह कहना कि कश्मीर हमारी शाह रग है, हम इसे भूल नहीं सकते।
कश्मीर को शाह रग (गले की नस) बताना पाकिस्तान में पढ़ाए जाने वाले पाठ का जरूरी विषय है। लेकिन वर्षों से किसी सेनाध्यक्ष ने कश्मीर को लेकर इतनी मुखर प्रतिबद्धता नहीं जाहिर की थी। मुनीर ने कश्मीर को एजेंडा में फिर से शामिल कर दिया। उनके लहजे में चेतावनी भी थी।
चेतावनी क्यों? आप किसी और तारीख के बारे में सोचिए। भारत 19 अप्रैल को दिल्ली-श्रीनगर के बीच चलने वाली वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन का उद्घाटन करने वाला था, और उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री इस समारोह में शामिल होते। यह समारोह टाल दिया गया। मुनीर ने जब वह भाषण दिया था तब उन्हें यह नहीं मालूम था। ‘नए कश्मीर’ का एक हिस्सा मानी गई इस ट्रेन ने हड़बड़ी पैदा कर दी होगी।
जम्मू-कश्मीर में पिछले तीन साल से हालात स्थिर हो रहे थे। शांतिपूर्ण चुनाव करवाया जा चुका था जिसमें मतदाताओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया। 2024 में वहां गए सैलानियों की संख्या बढ़कर 29.5 लाख तक पहुंच गई थी, और 2025 में यह 32 लाख तक पहुंच जाने की उम्मीद थी।
हम जानते हैं कि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए शांति कितनी जरूरी होती है। यह कश्मीर की अर्थव्यवस्था की भी रीढ़ है। यह पूरी घाटी में और खासकर पहलगाम के इर्द-गिर्द होटलों और रिजॉर्टों के निर्माण में आई तेजी से भी उजागर हो रहा था।
इसके साथ अगर आप कश्मीरी युवाओं में शिक्षा और रोजगार के लिए देश के तमाम हिस्सों में जाने के प्रति झुकाव को भी जोड़कर देखें तो यही संकेत मिलेगा कि वहां दिलों के जख्म भरने लगे थे। करीब आठ दशकों से पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में भारतीय ‘औपनिवेशिक बसाहट’ या गैर-कश्मीरियों के आने से जनसंख्या के स्वरूप में बदलाव का हौवा खड़ा कर रखा था। लेकिन कश्मीर के लोग अब पूरे भारत में जाकर बसने लगे थे।
घाटी में स्थिति सामान्य होने का कोई भी लक्षण पाकिस्तानी निजाम के लिए बुरे सपने के समान है। लेकिन यह अब लक्षण से आगे बढ़कर दीवारों पर लिखी इबारत बन गई थी। उनकी यह उम्मीद गलत साबित हो चुकी थी कि कश्मीर के लोग 5 अगस्त 2019 के बाद स्थायी रूप से बगावत पर उतर आएंगे। रावलपिंडी के ‘जीएचक्यू में ‘कश्मीर हमारी तकदीर है’ के नारे पर इकट्ठा हुई जमात के लिए यह जरूर कष्टदायी रहा होगा।
मुनीर के पूर्ववर्ती जनरल कमर जावेद बाजवा ने इस सबको कबूल कर लिया था। वे पाकिस्तानी फौज के ऐसे नेताओं में पहले नहीं थे। उनमें से कई ने हकीकत को कबूल करने का इसी तरह का नजरिया अपनाया था।
उनका मानना था कि हकीकत का इकरार और भारत के साथ बेहतर रिश्ता ही उनके हित में है। इसलिए वे ‘बैक चैनल’ से भारत के साथ मिलकर इस कोशिश में लगे थे कि एलओसी पर मजबूत युद्धबंदी कायम हो जाए।
1989 में मैं जब रिपोर्टिंग के लिए पाकिस्तान गया था, तब 1974-78 के बीच पाकिस्तानी वायुसेना के अध्यक्ष रहे एअर चीफ मार्शल जुल्फिकार अली खान ने कहा था कि मेरे मुल्क को जितनी जल्दी यह एहसास हो जाए कि वह फौजी, कूटनीतिक या सियासी तरीकों से कश्मीर को जीत नहीं सकता उतना बेहतर होगा।
वे एक पेशेवर सैनिक थे, जिन्होंने जिया-उल-हक द्वारा जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्ता पलटे जाने के विरोध में इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद से हमने देखा कि कई आला फौजी कमांडरों ने भी इस तरह टिप्पणी की थी। हम कह सकते हैं कि मुनीर इन ‘आत्म-समर्पणों’ पर, जिसे ‘पहले ही लिखी जा चुकी तकदीर’ वाली भावना के विपरीत माना जाता है, जरूर झल्लाए होंगे। जिया के उत्कर्ष के दौर में 1986 में सेना में शामिल किए गए मुनीर उस प्रक्रिया की जीती-जागती मिसाल माने जाते हैं, जिसे पाकिस्तान में होने वाले विमर्शों में ‘जिया भर्ती’ के नाम से जाना जाता है। यह मान लिया गया है कि ‘भर्ती’ वाले इन अफसरों में से अधिकतर इस्लाम-परस्त हैं और पवित्र ग्रंथों में दर्ज भविष्य में विश्वास करते हैं।
मुनीर ने खास परिस्थितियों में कमान संभाली थी। उन्हें बाजवा का कार्यकाल पूरा होने के महज दो दिन पहले रिटायर होना था। इसने उन्हें चीफ के पद की उम्मीदवारी से बाहर कर दिया था। लेकिन स्थितियों के अविश्वसनीय और रहस्यमय मोड़ के फलस्वरूप उन्हें रिटायरमेंट के चंद दिनों पहले ही चीफ बना दिया गया, शायद इसलिए कि उन्होंने इमरान खान को ठिकाने लगाने का वादा किया था। इसने पाकिस्तान को दो दिनों के लिए दो सेवारत सेनाध्यक्ष देने का ‘गौरव’ प्रदान कर दिया।
मुनीर पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी नहीं, ऑफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल (ओटीएस) के ग्रेजुएट हैं। इस उपमहादेश की सेनाओं में ओटीएस से शॉर्ट सर्विस कमीशंड अफसर निकलते हैं, जो कभी चीफ के ओहदे तक नहीं पहुंच पाते। लेकिन मुनीर इस ओहदे पर पहुंचने वाले ऐसे पहले अफसर हैं।
कुछ और अप्रत्याशित घटनाओं ने भी उन्हें इस आला ओहदे के लिए तैयार कर दिया। जब पुलवामा हमला हुआ था तब वे आईएसआई के चीफ थे। इस ओहदे पर उनके आठ महीने बीते थे कि बाजवा ने उन्हें वहां से हटाने का फैसला किया और उन्हें गुजरांवाला में कोर कमांडर के पद पर तैनात कर दिया गया।
यह उनके करियर में नई शुरुआत थी। पाकिस्तान में सेना अध्यक्ष बनने के लिए आपको कोर कमांडर के रूप में काम करना जरूरी है। मुनीर ने सोचा होगा कि जब तकदीर ने सारे नियम बदलकर मुझे इस कुर्सी पर बैठा दिया है तो वह मुझसे जरूर कोई “बड़ा काम’ करवाना चाहती है!
जंग का जोखिम उठाकर भी एक बड़ा कदम उठाया गया… साजिश को अंजाम देने के लिए सही दिन का इंतजार हो रहा था। दिल्ली से कश्मीर के लिए पहली सीधी ट्रेन का उद्घाटन घाटी के मिजाज और भारत से उसके एकीकरण में बड़ा बदलाव ला सकता है, जिसे किसी भी कीमत पर रोकना था, चाहे जंग का जोखिम क्यों न उठाना पड़े। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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