शेखर गुप्ता का कॉलम: आरक्षण की सीमा 50% से ऊपर होकर रहेगी h3>
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2 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
जाति जनगणना ऐसा बुरा विचार है, जिसका वक्त आ गया है। इसे हम इसलिए बुरा विचार कह रहे हैं, क्योंकि राहुल गांधी को छोड़ किसी ने नहीं सोचा कि इससे प्राप्त आंकड़े का किस तरह उपयोग किया जा सकता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि जनगणना अंततः पांच साल की देरी से ही सही, पर अब करवाई जाएगी। 1881 के बाद से दशकीय जनगणना न तो कभी देर से करवाई गई थी और न ही रद्द की गई थी, 1941 में भी नहीं जब दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था।
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वैसे अब जो जनगणना करवाने की घोषणा की गई है, वह बिहार में होने वाले चुनाव के मद्देनजर की गई तैयारी का हिस्सा लगती है। जनगणना पूरी होते ही यूपी में भी चुनाव का वक्त आ जाएगा। और इस बात की पूरी संभावना है कि जनगणना से जो आंकड़े उभरेंगे, वे 2029 के आम चुनाव में प्रचार का मुद्दा बन जाएंगे।
सत्ताधारी पार्टी जातीय जनगणना को विभाजनकारी, विध्वंसकारी और खतरनाक बता चुकी है, लेकिन आज यही पार्टी- लड़ाकू विमान के पायलट जिसे ‘9जी टर्न’ कहते हैं- वैसी पलटी खाते हुए इसे जोरदार चाल बता रही है। कांग्रेस ने भी यह कहते हुए इसका स्वागत किया है कि भाजपा ने उसका विचार चुरा लिया है।
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यूपीए सरकार ने भी जातियों के आंकड़े इकट्ठा किए थे, लेकिन उनका कुछ नहीं किया। उन्हें सार्वजनिक रूप से जारी भी नहीं किया। भाजपा के पास भी ये आंकड़े 11 साल से थे और उसने उनके बारे में चुप्पी साधे रखी। उन आंकड़ों का क्या करना है और उन्हें ओबीसी तबके को लाभ पहुंचाने के लिए कैसे इस्तेमाल करना है, यह सिफारिश करने के लिए जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन किया।
उस आयोग की रिपोर्ट को भी किसी गंभीर राष्ट्रीय रहस्य की तरह दफना दिया गया। नई जनगणना के साथ जस्टिस रोहिणी की मेहनत बेकार हो जाएगी। तथ्य यह है कि 2011 की जनगणना के बाद से ही जातीय आंकड़ों को खतरनाक माना जाता रहा था।
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जाति जनगणना का विचार राममनोहर लोहिया से लिया हुआ है। आप पक्का मान लीजिए कि राहुल अब संविधान में संशोधन की दिशा में दौड़ पड़ेंगे ताकि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ऊपर की जा सके। लेकिन आरक्षण का कोटा बढ़ाकर आप क्या करेंगे, जब सरकार के पास देने के लिए कोई नौकरी ही नहीं होगी?
इस खबर पर गौर कीजिए : ‘रेलवे में 36,000 नौकरियों के लिए दी गईं डेढ़ करोड़ अर्जियां’। भारत के युवाओं के लिए समस्या यह नहीं है कि आरक्षण का कोटा कम है, बल्कि यह है कि सरकारी नौकरियां महज गिनती की हैं।
इस सिलसिले में अगला बुरा विचार क्या उभरेगा, इसका अंदाजा लगाने के लिए मेरा इंतजार मत कीजिए। समाजवादी व्यवस्था में इसे काफी लोग प्रस्तुत कर चुके हैं। कांग्रेस इसे जाहिर कर चुकी है। ‘एआईसीसी’ के प्रस्ताव को पढ़ लीजिए। उसमें कहा है कि निजी शिक्षण संस्थाओं में भी आरक्षण लागू हो। इसके बाद निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण की मांग की जाएगी।
यह वो सामाजिक-आर्थिक राजनीति तो नहीं है, जिसके लिए भाजपा को वोट दिया गया था। इसी राजनीति के कारण जातीय जनगणना के सबसे मुखर आलोचक भाजपा के प्रतिबद्ध मतदाताओं में पाए जाते हैं, लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ेगा।
राहुल ने जितने भी लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी का नेतृत्व किया है, उनमें उन्हें हार का ही मुंह देखना पड़ा है। अपनी पार्टी को भी न तो वे पुनर्गठित कर पाए और न उसमें जान फूंक पाए, फिर भी वे भाजपा के लिए सामाजिक-आर्थिक एजेंडा तय कर रहे हैं। मैं आपको तुरंत ऐसे 10 विचार गिना सकता हूं, जिन्हें राहुल ने प्रस्तुत किया और मोदी ने अपना लिया। इनमें से अधिकतर विचार अच्छे नहीं हैं।
हम जाति सर्वे से शुरू करते हुए ‘NYAY’ की बात कर सकते हैं जो ‘पीएम-किसान’ में तब्दील हुआ। फिर हमेशा के लिए मुफ्त अनाज। राहुल की ‘पहली नौकरी पक्की’ का वादा, जिसे 2024 के बजट में शामिल किया गया। ‘सूट-बूट वाली सरकार’ वाले कटाक्ष ने जमीन अधिग्रहण बिल को दफन करने को मजबूर कर दिया।
अमीरों पर टैक्स (लाभांश और कैपिटल गेन पर टैक्स) को शायद ‘अदाणी-अम्बानी की सरकार’ वाले जुमले का जवाब देने के लिए उस स्तर पर पहुंचा दिया गया, जिस स्तर पर यह यूरोपीय देशों में है। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में कृषि कानूनों का भी वही हश्र किया गया।
कांग्रेस ने कर्नाटक में मुफ्त बस यात्रा की जो सुविधा दी, वह मोदी-भाजपा की सामान्य पेशकश बन गई है। कर्नाटक की तरह, महिलाओं को मुफ्त सुविधाएं देने का भी इसी तरह कदम उठाया गया। राहुल ने सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) को लेकर तंज कसा, तो मोदी सरकार ने निजीकरण के विचार को ही रद्द कर दिया और अपने पीएसयू पर गर्व करने लगी। पीएसयू में निवेश के लिए इस साल के बजट में 5 ट्रिलियन रु. का आवंटन किया गया। सिविल सेवाओं में बाहरी लोगों की नियुक्ति के कदम को विपक्ष की आपत्ति के बाद टाल दिया गया।
निरंतर विघ्न डालने वाले की भूमिका करके राहुल को कुछ खोना नहीं है। 2034 में भी वे 64 साल के चुस्त-दुरुस्त शख्स होंगे। लेकिन इस बीच वे भाजपा की सामाजिक-आर्थिक राजनीति में सफाई से कटौती करके उसे नागपुर से लोहिया की तरफ खींचे लिए जा रहे हैं। क्या इसके पीछे यह तथ्य काम कर रहा है कि राहुल ‘मैं ही आम आदमी’ वाली भूमिका अदा कर रहे हैं?
30 साल पहले जब मैं ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में संपादक के रूप में पहली बार गया था, तब मुझे विज्ञापन की दुनिया के जादूगर पदमसी के कमरे में ले जाया गया। चंद दिनों पहले ही उन्हें ब्रांड सलाहकार नियुक्त किया गया था।
पदमसी ने मुझे बैठने का इशारा किया और अपनी असिस्टेंट को यह ‘स्ट्रेटेजी नोट’ लिखवाने लगे : ‘मैं अपने ब्रांड को कभी री-पोजिशन नहीं करता। हमेशा अपने प्रतिद्वंद्वी को अपने ब्रांड को री-पोजिशन करने के लिए मजबूर करता हूं।’ यह कॉलम लिखते हुए मेरे दिमाग में यह बात कौंध गई।
सवाल यह कि कौन किसकी राजनीति को बदल रहा है… भाजपा के प्रभुत्व को “मंडल’ पर 1989 के ‘कमंडल’ की निर्णायक जीत माना गया था। लेकिन अब भाजपा को ही मंडल को अपनाने पर मजबूर कर दिया गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि कौन किसकी राजनीति को बदल रहा है? विचारधारा की लड़ाई कौन जीत रहा है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
जाति जनगणना ऐसा बुरा विचार है, जिसका वक्त आ गया है। इसे हम इसलिए बुरा विचार कह रहे हैं, क्योंकि राहुल गांधी को छोड़ किसी ने नहीं सोचा कि इससे प्राप्त आंकड़े का किस तरह उपयोग किया जा सकता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि जनगणना अंततः पांच साल की देरी से ही सही, पर अब करवाई जाएगी। 1881 के बाद से दशकीय जनगणना न तो कभी देर से करवाई गई थी और न ही रद्द की गई थी, 1941 में भी नहीं जब दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था।
वैसे अब जो जनगणना करवाने की घोषणा की गई है, वह बिहार में होने वाले चुनाव के मद्देनजर की गई तैयारी का हिस्सा लगती है। जनगणना पूरी होते ही यूपी में भी चुनाव का वक्त आ जाएगा। और इस बात की पूरी संभावना है कि जनगणना से जो आंकड़े उभरेंगे, वे 2029 के आम चुनाव में प्रचार का मुद्दा बन जाएंगे।
सत्ताधारी पार्टी जातीय जनगणना को विभाजनकारी, विध्वंसकारी और खतरनाक बता चुकी है, लेकिन आज यही पार्टी- लड़ाकू विमान के पायलट जिसे ‘9जी टर्न’ कहते हैं- वैसी पलटी खाते हुए इसे जोरदार चाल बता रही है। कांग्रेस ने भी यह कहते हुए इसका स्वागत किया है कि भाजपा ने उसका विचार चुरा लिया है।
यूपीए सरकार ने भी जातियों के आंकड़े इकट्ठा किए थे, लेकिन उनका कुछ नहीं किया। उन्हें सार्वजनिक रूप से जारी भी नहीं किया। भाजपा के पास भी ये आंकड़े 11 साल से थे और उसने उनके बारे में चुप्पी साधे रखी। उन आंकड़ों का क्या करना है और उन्हें ओबीसी तबके को लाभ पहुंचाने के लिए कैसे इस्तेमाल करना है, यह सिफारिश करने के लिए जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन किया।
उस आयोग की रिपोर्ट को भी किसी गंभीर राष्ट्रीय रहस्य की तरह दफना दिया गया। नई जनगणना के साथ जस्टिस रोहिणी की मेहनत बेकार हो जाएगी। तथ्य यह है कि 2011 की जनगणना के बाद से ही जातीय आंकड़ों को खतरनाक माना जाता रहा था।
जाति जनगणना का विचार राममनोहर लोहिया से लिया हुआ है। आप पक्का मान लीजिए कि राहुल अब संविधान में संशोधन की दिशा में दौड़ पड़ेंगे ताकि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ऊपर की जा सके। लेकिन आरक्षण का कोटा बढ़ाकर आप क्या करेंगे, जब सरकार के पास देने के लिए कोई नौकरी ही नहीं होगी?
इस खबर पर गौर कीजिए : ‘रेलवे में 36,000 नौकरियों के लिए दी गईं डेढ़ करोड़ अर्जियां’। भारत के युवाओं के लिए समस्या यह नहीं है कि आरक्षण का कोटा कम है, बल्कि यह है कि सरकारी नौकरियां महज गिनती की हैं।
इस सिलसिले में अगला बुरा विचार क्या उभरेगा, इसका अंदाजा लगाने के लिए मेरा इंतजार मत कीजिए। समाजवादी व्यवस्था में इसे काफी लोग प्रस्तुत कर चुके हैं। कांग्रेस इसे जाहिर कर चुकी है। ‘एआईसीसी’ के प्रस्ताव को पढ़ लीजिए। उसमें कहा है कि निजी शिक्षण संस्थाओं में भी आरक्षण लागू हो। इसके बाद निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण की मांग की जाएगी।
यह वो सामाजिक-आर्थिक राजनीति तो नहीं है, जिसके लिए भाजपा को वोट दिया गया था। इसी राजनीति के कारण जातीय जनगणना के सबसे मुखर आलोचक भाजपा के प्रतिबद्ध मतदाताओं में पाए जाते हैं, लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ेगा।
राहुल ने जितने भी लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी का नेतृत्व किया है, उनमें उन्हें हार का ही मुंह देखना पड़ा है। अपनी पार्टी को भी न तो वे पुनर्गठित कर पाए और न उसमें जान फूंक पाए, फिर भी वे भाजपा के लिए सामाजिक-आर्थिक एजेंडा तय कर रहे हैं। मैं आपको तुरंत ऐसे 10 विचार गिना सकता हूं, जिन्हें राहुल ने प्रस्तुत किया और मोदी ने अपना लिया। इनमें से अधिकतर विचार अच्छे नहीं हैं।
हम जाति सर्वे से शुरू करते हुए ‘NYAY’ की बात कर सकते हैं जो ‘पीएम-किसान’ में तब्दील हुआ। फिर हमेशा के लिए मुफ्त अनाज। राहुल की ‘पहली नौकरी पक्की’ का वादा, जिसे 2024 के बजट में शामिल किया गया। ‘सूट-बूट वाली सरकार’ वाले कटाक्ष ने जमीन अधिग्रहण बिल को दफन करने को मजबूर कर दिया।
अमीरों पर टैक्स (लाभांश और कैपिटल गेन पर टैक्स) को शायद ‘अदाणी-अम्बानी की सरकार’ वाले जुमले का जवाब देने के लिए उस स्तर पर पहुंचा दिया गया, जिस स्तर पर यह यूरोपीय देशों में है। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में कृषि कानूनों का भी वही हश्र किया गया।
कांग्रेस ने कर्नाटक में मुफ्त बस यात्रा की जो सुविधा दी, वह मोदी-भाजपा की सामान्य पेशकश बन गई है। कर्नाटक की तरह, महिलाओं को मुफ्त सुविधाएं देने का भी इसी तरह कदम उठाया गया। राहुल ने सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) को लेकर तंज कसा, तो मोदी सरकार ने निजीकरण के विचार को ही रद्द कर दिया और अपने पीएसयू पर गर्व करने लगी। पीएसयू में निवेश के लिए इस साल के बजट में 5 ट्रिलियन रु. का आवंटन किया गया। सिविल सेवाओं में बाहरी लोगों की नियुक्ति के कदम को विपक्ष की आपत्ति के बाद टाल दिया गया।
निरंतर विघ्न डालने वाले की भूमिका करके राहुल को कुछ खोना नहीं है। 2034 में भी वे 64 साल के चुस्त-दुरुस्त शख्स होंगे। लेकिन इस बीच वे भाजपा की सामाजिक-आर्थिक राजनीति में सफाई से कटौती करके उसे नागपुर से लोहिया की तरफ खींचे लिए जा रहे हैं। क्या इसके पीछे यह तथ्य काम कर रहा है कि राहुल ‘मैं ही आम आदमी’ वाली भूमिका अदा कर रहे हैं?
30 साल पहले जब मैं ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में संपादक के रूप में पहली बार गया था, तब मुझे विज्ञापन की दुनिया के जादूगर पदमसी के कमरे में ले जाया गया। चंद दिनों पहले ही उन्हें ब्रांड सलाहकार नियुक्त किया गया था।
पदमसी ने मुझे बैठने का इशारा किया और अपनी असिस्टेंट को यह ‘स्ट्रेटेजी नोट’ लिखवाने लगे : ‘मैं अपने ब्रांड को कभी री-पोजिशन नहीं करता। हमेशा अपने प्रतिद्वंद्वी को अपने ब्रांड को री-पोजिशन करने के लिए मजबूर करता हूं।’ यह कॉलम लिखते हुए मेरे दिमाग में यह बात कौंध गई।
सवाल यह कि कौन किसकी राजनीति को बदल रहा है… भाजपा के प्रभुत्व को “मंडल’ पर 1989 के ‘कमंडल’ की निर्णायक जीत माना गया था। लेकिन अब भाजपा को ही मंडल को अपनाने पर मजबूर कर दिया गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि कौन किसकी राजनीति को बदल रहा है? विचारधारा की लड़ाई कौन जीत रहा है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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