शहर की इमारतें न्यूक्लियर अटैक के लिए तैयार नहीं, केवल हैरिटेज भवन ही मोटी दीवार वाले – Ajmer News h3>
भारत-पाकिस्तान के बीच सीज फायर होने के बाद हालात सामान्य होने में हालांकि वक्त लगेगा। लेकिन युद्ध के हालात के मद्देनजर अजमेर में भी इमरजेंसी के लिहाज से तमाम सुरक्षा व्यवस्थाओं को परखा गया था। मॉक ड्रिल और प्रशिक्षण कार्यक्रम भी हुए। इन तैयारियों में
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यहां हमलों से बचाव के लिए कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। इस बात का जिक्र प्रशासन की एक बैठक में जिम्मेदार अधिकारी भी कर चुके हैं। नई शैली के मकानों की दीवारें इतनी पतली हैं कि ऐसे न्यूक्लियर अटैक से बचाव मुश्किल है। ऐसे हमलों के समय बंकर, बेसमेंट या मोटी दीवारों वाली इमारतें ही बचाव में कारगर साबित होती हैं। लेकिन अजमेर में बंकर बनाने की कभी जरूरत ही महसूस हुई नहीं।
कोरोना से मॉक ड्रिल तक जोश ने तोड़े नियम | आपदा कोरोना के समय भी थी, लोगों ने प्रशासन की गाइड लाइन को फॉलो नहीं किया। लॉकडाउन को सख्ती से लागू किया गया था, लेकिन लोगों का अतिउत्साह था कि लोगों ने लॉकडाउन तोड़ा। यही स्थिति मॉक ड्रिल के तहत ब्लैकआउट के दौरान भी देखी गई।
एमडीएस यूनिवर्सिटी
एमडीएस यूनिवर्सिटी के चाणक्य भवन में बेसमेंट बना है जहां कबाड़ रखा गया है। हर बारिश में यहां इतना पानी भर जाता है कि कार्मिक भी जाने से डरते हैं। यहां कई बार पानी में सांप भी तैरते नजर आ चुके हैं। परीक्षा भवन में भी बेसमेंट हैं जहां उत्तरपुस्तिकाओं सहित अन्य दस्तावेज रखे जाते हैं। यहां भी बारिश में पानी भरता है। पिछली बारिश में कई कॉपियां गीली हो चुकी हैं। बेसमेंट की दीवारों से भी पानी रिस कर अंदर आ जाता है। राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में भी परीक्षा सामग्री रखने के लिए बेसमेंट बनाया हुआ है, लेकिन यहां भी बारिश का पानी भरता है। आरपीएससी के भी भी कमोपेश यही हाल हैं। हालांकि शहर में कई हैरिटेज बिल्डिंग मौजूद हैं जिनमें कलेक्ट्रेट, नगर निगम, अकबरी किला, ढाई दिन का झोपड़ा जैसी हैरिटेज बिल्डिंग की दीवारें ही इतनी मोटी हैं कि रासायनिक, जैविक हमले के दौरान रेडिएशन को रोक सकती हैं। इनके अलावा शहर में कोई जगह ऐसी नहीं है।
पंचशील अपार्टमेंट।
शहर के लगभग आधे निजी भवनों में भी बेसमेंट बने हुए हैं। इन बेसमेंट की मजबूती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हर बारिश में ज्यादातर बेसमेंट में पानी भर जाता है। इससे दीवारों में सीलन की समस्या से भी लोग दो-चार हैं। अपार्टमेंट्स के भी यही हाल हैं। ज्यादातर अपार्टमेंट में न फायर फाइटिंग सिस्टम हैं न आग बुझाने के दूसरे साधन पुख्ता। बेसमेंट भी पुख्ता नहीं हैं। दीवारें भी दो से तीन फीट ही मोटी हैं।
रेस्क्यू के लिए एनडीआरएफ और एसडीआरएफ ही राहत | स्टेट डिजास्टर रिस्पॉन्स फोर्स (एसडीआरएफ) और नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फोर्स (एनडीआरएफ) इस आपातकाल में अहम भूमिका निभाने के लिए भी तैयार है। एनडीआरएफ के असिस्टेंट कमांडेंट योगेश मीणा कहते हैं कि मोटी दीवारों के घर होने चाहिए। पहले 12-13 फीट ऊंचे मकान बनाए जाते थे। अब 8-10 फीट की ऊंचाई ही एक मंजिल की होती है। यहां सप्लाई और डिमांड का अनुपात गड़बड़ है।
सामान्य मापदंड
} मजबूत निर्माण: मकान की दीवारें मजबूत और टिकाऊ होनी चाहिए ताकि हमले के प्रभाव को सहन कर सकें।
} नियमित जांच और रखरखाव: मकान की दीवारों की नियमित जांच और रखरखाव किया जाना चाहिए।
केमिकल अटैक से बचाव के लिए
}सीलबंद और वातानुकूलित: मकान की दीवारें सीलबंद और वातानुकूलित होनी चाहिए।
}वेंटिलेशन सिस्टम: वेंटिलेशन सिस्टम में फिल्टर होने चाहिए जो केमिकल गैसों को फिल्टर कर सकें।
न्यूक्लियर हमले से बचाव के लिए
} दीवारों की मोटाई और घनत्व: दीवारें मोटी और घने पदार्थों से बनी होनी चाहिए, जैसे कि कंक्रीट या ईंटें, जो विकिरण को अवशोषित कर सकें।
} सीलबंद और वातानुकूलित: मकान की दीवारें सीलबंद और वातानुकूलित होनी चाहिए ताकि विकिरण और रेडियोधर्मी कण अंदर न आ सकें।
} विकिरण अवशोषक पदार्थ: दीवारों में विकिरण अवशोषक पदार्थों का उपयोग किया जा सकता है, जैसे कि लेड या बोरॉन।
निजी भवन; दीवारें 2-3 फीट ही मोटी, कई जगह फायर सिस्टम भी नहीं लगे
एमडीएसयू; चाणक्य भवन में बेसमेंट, यहां पानी भरता है, लोग जाने से डरते