शंकराचार्य मठ इंदौर में प्रवचन: अनेक रोगों का कारण बनती है मानसिक कुंठा- डॉ. गिरीशानंदजी महाराज – Indore News

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शंकराचार्य मठ इंदौर में प्रवचन:  अनेक रोगों का कारण बनती है मानसिक कुंठा- डॉ. गिरीशानंदजी महाराज – Indore News

शंकराचार्य मठ इंदौर में प्रवचन: अनेक रोगों का कारण बनती है मानसिक कुंठा- डॉ. गिरीशानंदजी महाराज – Indore News

हताशा व्यक्ति को मानसिक रूप से कुंठित कर देती है और यह मानसिक कुंठा ही अनेक रोगों का कारण बनती है। जीवन में हर प्रकार के उतार-चढ़ाव आते हैं। कभी सुख के संवाद तो कभी दुख के। न दु:ख स्थिर रहता है न सुख, क्योंकि जब जगत ही मिथ्या है तो जगत में उत्पन्न होन

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एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर नैनोद स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में रविवार को यह बात कही।

न तो सुख में प्रसन्न होना चाहिए न ही दु:ख में दु:खी

महाराजश्री ने कहा कि माया के चक्कर से छूटने के लिए ही वेद, पुराण, शास्त्र, साधुओं का सत्संग करने की सलाह दी जाती है, पर भौतिक चकाचौंध में डूबा व्यक्ति इन सब बातों को निरर्थक समझता है। व्यक्ति क्षणिक आनंद देने वाले विषयों की तरफ दौड़ता रहता है। विषयों से प्राप्त आनंद स्थिर नहीं होता। त्रेत्रीय उपनिषद में आनंद के अनेक रूप बताए गए हैं, पर मुख्य आनंद दो ही होते हैं। एक साधनजन्य आनंद जिसे विषयानंद कहते हैं और दूसरा स्वयंसिद्ध आनंद। विषय से प्राप्त आनंद में विषय का नाश होते ही आनंद का नाश हो जाता है, क्योंकि यह मिथ्या है। उसी तरह जैसे आप लड्‌डू खाओगे, तो जब तक मुंह में लड्‌डू रहेगा तब तक आनंद रहेगा। लड्‌डू का नाश होते ही आनंद का भी नाश हो जाएगा। यह स्थिति प्रत्येक सांसारिक विषयों से उत्पन्न होने वाले आनंद की है। स्वयंसिद्ध आनंद साधुओं को होता है, जो स्थिर रहता है। उसमें किसी विषय की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है, क्योंकि यह आनंद अपने अंदर होता है। इसका अनुभव जप, तप, ध्यान, भजन आदि से प्राप्त होता है। जिस तरह हिरण की नाभि में कस्तूरी रहती है, पर वह पूरे जंगल में ढूंढता रहता है, ठीक इसी तरह प्रत्येक व्यक्ति के अंदर आनंद रहता है, पर वह उसे बाहरी जगत में ढूंढता रहता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण, भगवान राम ने मानव लीला करके व्यक्ति को जीवन जीने की कला सिखाई है। न तो सुख में प्रसन्न होना चाहिए न ही दु:ख में दुखी होना चाहिए, क्योंकि ये दोनों अधिक समय तक नहीं टिक पाते। हर कठिन से कठिन परिस्थिति में समान रहना चाहिए। जैसे भगवान राम को वनवास हुआ तो वे दु:खी नहीं हुए और राजतिलक हुआ तो प्रसन्न नहीं हुए। माया उसे ही सताती है, जिसके पास भक्ति नहीं होती। भक्ति होने से ही मुक्ति मिलती है।

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