लोकसभा के साथ बिहार में विधानसभा चुनाव की अटकलें क्यों? नीतीश और जेडीयू को क्या फायदा?

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लोकसभा के साथ बिहार में विधानसभा चुनाव की अटकलें क्यों? नीतीश और जेडीयू को क्या फायदा?

लोकसभा के साथ बिहार में विधानसभा चुनाव की अटकलें क्यों? नीतीश और जेडीयू को क्या फायदा?

बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष नीतीश कुमार लगातार कहते रहे हैं कि लोकसभा के चुनाव कभी भी हो सकते हैं यानी समय से पहले हो सकते हैं। जेडीयू अध्यक्ष का यह कहने का संदर्भ हर बार विपक्षी दलों के गठबंधन में जल्दी समझौता और सीट बंटवारा को लेकर रहा है। अब तो यह चर्चा भी हो रही है कि बिहार में लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव कराया जा सकता है। चुनाव 2025 के अक्टूबर में तय हैं लेकिन लोकसभा के साथ हुए तो नीतीश और जेडीयू को क्या फायदा हो सकता है, इस पर अनुमान लगाए जा रहे हैं। 

सरकार का नेतृत्व कर रहे नीतीश की पार्टी विधायकों के हिसाब से इस विधानसभा में तीसरे नंबर की पार्टी है। सूत्रों का कहना है कि जेडीयू नेताओं का एक वर्ग है जो साथ चुनाव कराने में पार्टी का फायदा देख रहा है। जेडीयू के काफी नेता राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन सरकार चलाने में असहज हो जाते हैं क्योंकि वो लंबे समय तक लालू यादव और आरजेडी के कथित जंगलराज के खिलाफ बीजेपी के साथ कदम से कदम मिलाकर चले हैं।

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2017 में जेडीयू के दोबारा एनडीए में लौटने के बाद बीजेपी के रवैए में बदलाव का असर दिखा और नीतीश दूसरी बार एनडीए से निकलकर महागठबंधन का हिस्सा बने। तब से तेजस्वी यादव की ताजपोशी का सवाल गठबंधन को तनाव देता ही रहता है। ऐसे में अगर विधानसभा चुनाव लोकसभा के साथ हो तो जेडीयू की क्या संभावना बनती है, एक नजर डालते हैं। 

1. विधायकों की संख्या बढ़ने से नीतीश की राजनीतिक ताकत में रिकवरी 

2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू 115 और बीजेपी 110 सीट लड़ी। चिराग पासवान ने जेडीयू की सीटों पर कैंडिडेट उतार दिया और बीजेपी के कई नेता पार्टी से निकलकर लोजपा के उम्मीदवार बन गए। धारणा बनी कि चिराग जेडीयू को नुकसान पहुंचा रहे हैं ताकि बीजेपी बड़ी पार्टी बने। गठबंधन टूटने के बाद ललन सिंह ने कहा कि बीजेपी के नेताओं ने लोजपा का साथ देकर जेडीयू को हराया तब भी 43 जीत गए। ज्यादा सीट लड़ने के बावजूद जेडीयू तीसरे नंबर पर गई। बीजेपी 74 जीतकर दूसरे और आरजेडी 75 सीट के साथ पार्टी नंबर एक बनी।

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जेडीयू कहती रही है कि कम सीट आने के बाद नीतीश ने सीएम बनने से मना कर दिया था लेकिन बीजेपी ने जिद करके उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। लेकिन उसके बाद क्या हुआ उसे ललन सिंह के शब्दों में कहें तो- बीजेपी के टटपुंजिया नेता कहते थे कि हमारी मेहरबानी से सीएम बने हैं। यह भाव कम विधायक के बाद भी सीएम बनाने से उभरा और नीतीश के मन में इस बात की कसक बैठ गई। 2003 में जेडीयू बनने के बाद यह पहली बार हुआ कि बीजेपी के पास नीतीश से ज्यादा विधायक हैं।

लोकसभा के साथ विधानसभा कराने की सूरत में नीतीश आरजेडी के साथ बराबरी की सीट ले सकते हैं और जीत मिली तो जेडीयू के विधायकों की संख्या सम्मानजनक स्तर पर ला सकते हैं। ऐसी संख्या जिसके दम पर नीतीश बड़े फैसले कर सकें। महागठबंधन और इंडिया गठबंधन के लिए नीतीश जरूरी हैं, जेडीयू को पता है। लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद उनकी जरूरत या पूछ में किसी भी तरह के बदलाव से पहले विधानसभा कराना फायदेमंद हो सकता है। विधायकों की ताकत बढ़ने पर चुनाव के बाद कौन क्या बनेगा जैसे सवालों का जवाब जेडीयू नए सिरे से भी तैयार कर सकती है।

2. राज्यसभा में नंबर नीचे गिरने से रोकना

राज्यसभा में जेडीयू के 5 सांसद हैं जिनमें दो का कार्यकाल अप्रैल में खत्म हो रहा है लेकिन नीतीश इस बार एक को ही वापस भेज पाने की स्थिति में हैं। अप्रैल में बिहार के 6 राज्यसभा सांसदों का टर्म पूरा हो रहा है। बिहार के 16 राज्यसभा एमपी में आरजेडी के 6, बीजेपी के 4 और कांग्रेस के 1 एमपी हैं। आरजेडी से मनोज झा और अशफाक करीम, जेडीयू से वशिष्ठ नारायण सिंह और अनिल हेगड़े, बीजेपी से सुशील कुमार मोदी और कांग्रेस से अखिलेश प्रसाद सिंह का कार्यकाल खत्म हो रहा है।

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जेडीयू के पास 45 विधायक हैं। एक सांसद जिताने के लिए इस बार 36 विधायकों की पहली वरीयता के वोट चाहिए। नीतीश कम से कम दो सांसद जिता पाएं इसके लिए पार्टी के विधायकों की संख्या 70-75 के पार ले जाना जरूरी है। इस अप्रैल में तो नहीं लेकिन आगे जब 2026 में पांच सांसद रिटायर होंगे तब ये नंबर काम आएंगे। लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने पर अगर विधायक बढ़ जाएं तो ये भी फायदा साबित हो सकता है।

अप्रैल में आरजेडी और बीजेपी के दो-दो जबकि जेडीयू के एक सांसद आसानी से जीत जाएंगे। पेच फंसेगा छठे सांसद पर जिसके लिए जेडीयू और कांग्रेस में खींचतान होगी। कांग्रेस नीतीश को पास देगी या नीतीश अखिलेश प्रसाद सिंह या दूसरे कांग्रेसी को फिर से राज्यसभा जाने देंगे, ये लोकसभा के सीट बंटवारे के साथ भी साफ हो सकता है और बाद में भी। 

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दो सांसद जिताने के बाद आरजेडी के पास 7 वोट बचे होंगे। जेडीयू के पास एक सांसद जिताने के बाद 9 वोट एक्स्ट्रा होंगे। कांग्रेस के 19, सीपीआई-माले के 12, सीपीआई और सीपीएम के 2-2 विधायकों के वोट भी हैं। महागठबंधन के पास 3 सांसद जिताने के बाद 51 वोट बचे होंगे। लेकिन जीत कोई एक ही सकता है। नीतीश ना भी चाहें तब भी आरजेडी और लेफ्ट कांग्रेस का साथ दे तो वो छठे सांसद के लिए अपना कैंडिडेट जिता सकती है।

3. लालू यादव की प्रेशर पॉलिटिक्स का इंतजाम करना

विधानसभा में नंबर एक पार्टी के समर्थन से सरकार चलाने की वजह से जितने तरह के तनाव और दबाव हो सकते हैं, वो सब इस समय नीतीश झेल रहे हैं। नीतीश अगर लोकसभा के साथ विधानसभा करा लेते हैं और उसके जरिए खोई ताकत फिर हासिल कर लेते हैं तो आरजेडी अध्यक्ष लालू यादव की प्रेशर पॉलिटिक्स का एक इंतजाम हो जाएगा। फिर अगली सरकार जो चलाए, नीतीश पहले से ज्यादा दबावमुक्त महसूस करेंगे।

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नीतीश दबाव में असहज होते हैं इसलिए वो बिदक ना जाएं, इस बात का ख्याल लालू रखते हैं। यही वजह है कि आरजेडी कोटे के दो मंत्रियों का पद साल भर से खाली है लेकिन वो नहीं भरवा सके। कांग्रेस भी दो मंत्री मांग रही है लेकिन नीतीश टाल रहे हैं। अटकलें लगती रहती हैं कि कभी जेडीयू का आरजेडी में विलय करने या कभी तेजस्वी को सीएम बनाने का दबाव लालू डालते रहते हैं।

4. भविष्य की राजनीति के लिए पार्टी को तैयार करना

दो दशक से गठबंधन सरकारें चला रहे नीतीश विधानसभा में नंबर वन या नंबर दो नहीं रहने पर राजनीति में आने वाली दिक्कतों से वाकिफ हैं। सीमित विकल्प में बहुत शर्त रखे नहीं जा सकते। एक बार विधानसभा में नंबर ठीक हो जाए तो जेडीयू खुले मन से भविष्य की राजनीति की दिशा तय कर सकती है। महागठबंधन और एनडीए दोनों जगह जेडीयू दो-दो बार रह चुकी है। विधानसभा और लोकसभा साथ हो जाएं और चुनाव के बाद इधर-उधर करने की संभावना तो ज्यादा विधायकों के दम पर जेडीयू का हाथ ऊपर रह सकता है।

5. लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव ना होने से जेडीयू को क्या फायदा 

अगर लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव नहीं हों तो लोकसभा नतीजों में इंडिया गठबंधन और जेडीयू के प्रदर्शन के आधार पर नीतीश के सामने 2025 में गठबंधन चुनने का विकल्प खुल सकता है। एक साथ चुनाव कराने पर पार्टी को लोकसभा और विधानसभा दोनों में एक साथ जीत और हार का बराबर खतरा हो सकता है जो भविष्य की राजनीति के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।

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लेकिन घूम-फिरकर वही बात। ये सब अटकलें है कि चुनाव साथ हो सकते हैं या समय पर। हर अटकल की उम्र तब तक है जब तक वो उसके पूरा होने या खारिज होने का वक्त ना गुजर जाए।

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