लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन का कॉलम: अब दुनिया की धारणाओं को बदलने का समय आ गया है h3>
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2 घंटे पहले
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लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन कश्मीर कोर के पूर्व कमांडर
पिछले 36 वर्षों में भारत पर अनगिनत सीमापार आतंकी हमलों के बावजूद अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान को वाजिब नसीहत देने का मन नहीं बना पाया है। यह स्पष्ट है कि आतंकवाद का सबसे लंबे समय से शिकार रहने का भारतीय नैरेटिव अब पर्याप्त नहीं है।
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अमेरिका और अन्य देश भारत के साथ सहानुभूति तो जताते हैं, लेकिन पाकिस्तान को दोषी ठहराने के प्रयास उतनी गंभीरता से नहीं करते। उनकी चिंता दो परमाणु शक्ति-सम्पन्न पड़ोसी-देशों के बीच संघर्ष से उत्पन्न होने वाले खतरों के बारे में ही रहती है।
भारत-पाकिस्तान के बीच सैन्य-टकराव तो फिलहाल शांत हो गया है और भारत ने अपने रणनीतिक और सामरिक उद्देश्य हासिल कर लिए हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय वैधता की लड़ाई अभी शुरू ही हुई है। यह ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें भारत बहुत सक्रिय रहा हो, लेकिन अब उसे इसका एहसास हो गया है।
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मौजूदा दौर में धारणाओं के युद्ध का भी बड़ा महत्व है और वास्तविक युद्ध में जीत के साथ ही कूटनीतिक स्पष्टता और नैरेटिव का प्रभुत्व भी जरूरी हो गया है। इसी के चलते सरकार ने फैसला किया कि एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भारत की स्थिति को समझाने के लिए दुनिया की प्रमुख राजधानियों और थिंक टैंकों की यात्रा करेगा। यह न केवल बेहतरीन कूटनीति, बल्कि अच्छी शासन-कला भी है।
यह 1994 की याद दिलाता है, जब तत्कालीन अमेरिकी सहायक विदेश मंत्री रॉबिन राफेल ने भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दबाव में डाल दिया था। तब 22 फरवरी 1994 को भारत की संसद में जम्मू-कश्मीर पर एक सर्वदलीय प्रस्ताव ने सशक्त संदेश दिया था।
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अटल बिहारी वाजपेयी, फारूख अब्दुल्ला और सलमान खुर्शीद को जिनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत का पक्ष रखने के लिए भेजने के निर्णय से भी जम्मू-कश्मीर और मानवाधिकारों पर भारतीय नैरेटिव को काफी मजबूती मिली थी।
संघर्ष के बाद का दौर ही अकसर वह बिंदु होता है, जिसके आधार पर दीर्घकालिक परिणाम आकार लेते हैं। संघर्ष-समाप्ति एक प्रक्रिया है, न कि अंतिम बिंदु। यकीनन, यह महत्वपूर्ण होता है कि सैन्य-विजय किसने प्राप्त की, लेकिन यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि दुनिया को अपने उद्देश्यों के बारे में समझाने में कौन अधिक सफल रहा।
लंबे समय से पाकिस्तान नैरेटिव युद्ध का लाभ उठाता आ रहा है। वह खुद को क्षेत्रीय अस्थिरता का शिकार बताता है और आतंकवाद को पनाह देने की जवाबदेही से बचता है। वैश्विक विमर्श भी कई बार गलत तुलनाओं से ग्रस्त रहता है और ‘दोनों पक्षों से तनाव कम करने’ का आग्रह करता है, जबकि उनमें से एक पक्षयानी हम आतंकवाद के शिकार हैं।
इस संदर्भ में, भारत द्वारा अपने इरादों को स्पष्ट करने का निर्णय सामयिक और आवश्यक है। हमारा नैरेटिव वैश्विक धारणाओं को प्रबंधित करने के बजाय उसका नेतृत्व करने का होना चाहिए और यह प्रबुद्ध, ऊर्जावान प्रतिनिधियों के द्वारा ही किया जा सकता है।
भारत को सुनिश्चित करना होगा कि उसकी सुरक्षा चिंताओं को न तो गलत समझा जाए और न ही अनदेखा किया जाए। अंतरराष्ट्रीय समुदाय पहले ही यूक्रेन और गाजा की हिंसा से काफी थक चुका है, ऐसे में मौजूदा संघर्ष और उसमें भारत के रुख की वैधता पर ध्यान केंद्रित करना महत्वपूर्ण है।
रणनीतिक सम्प्रेषण में सर्वदलीय एकता का प्रदर्शन तो और आश्वस्त करने वाला है। यह विदेशी सरकारों और रणनीतिक समुदायों को संकेत देता है कि यह कोई पक्षपातपूर्ण अभियान या राजनीतिक स्टंट नहीं है। बल्कि, यह एक गहन विचार-विमर्श वाला राष्ट्रीय प्रयास है, जिसे समूचे राजनीतिक स्पेक्ट्रम का समर्थन प्राप्त है- सत्ताधारी पार्टी से लेकर विपक्ष तक, और राष्ट्रीय दलों से लेकर प्रमुख क्षेत्रीय ताकतों तक।
इसके अलावा, विभिन्न वैचारिक और क्षेत्रीय पृष्ठभूमियों के स्वरों को सम्मिलित करने से यह सुनिश्चित होता है कि प्रतिनिधिमंडल को भारतीय लोगों के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है, न कि केवल भारतीय राज्यसत्ता के।
वॉशिंगटन, लंदन, ब्रसेल्स, पेरिस, बर्लिन, टोक्यो, अबू धाबी, रियाद, कैनबरा और मॉस्को का चयन भी भारत की सूक्ष्म कूटनीतिक पहुंच को दर्शाता है। ये केवल मित्रवत राजधानियां ही नहीं, ये वैश्विक प्रभाव के केंद्र भी हैं।
ब्रुकिंग्स, चैथम हाउस, कार्नेगी एंडोमेंट और सीएसआईएस जैसे अग्रणी थिंक टैंकों में भारत की उपस्थिति भी दीर्घकालिक विदेश नीति को आकार देगी। भारत को स्पष्ट रूप से कहना चाहिए कि ऑपरेशन सिंदूर विजय के लिए लड़ा गया युद्ध नहीं था, बल्कि गंभीर उकसावे के जवाब में एक सुनियोजित सैन्य कार्रवाई थी।
मौजूदा दौर में धारणाओं के युद्ध का भी बड़ा महत्व है और वास्तविक युद्ध में जीत के साथ ही कूटनीतिक स्पष्टता और नैरेटिव का प्रभुत्व भी जरूरी है। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल एक बेहतरीन कूटनीति और अच्छी शासन-कला है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन कश्मीर कोर के पूर्व कमांडर
पिछले 36 वर्षों में भारत पर अनगिनत सीमापार आतंकी हमलों के बावजूद अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान को वाजिब नसीहत देने का मन नहीं बना पाया है। यह स्पष्ट है कि आतंकवाद का सबसे लंबे समय से शिकार रहने का भारतीय नैरेटिव अब पर्याप्त नहीं है।
अमेरिका और अन्य देश भारत के साथ सहानुभूति तो जताते हैं, लेकिन पाकिस्तान को दोषी ठहराने के प्रयास उतनी गंभीरता से नहीं करते। उनकी चिंता दो परमाणु शक्ति-सम्पन्न पड़ोसी-देशों के बीच संघर्ष से उत्पन्न होने वाले खतरों के बारे में ही रहती है।
भारत-पाकिस्तान के बीच सैन्य-टकराव तो फिलहाल शांत हो गया है और भारत ने अपने रणनीतिक और सामरिक उद्देश्य हासिल कर लिए हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय वैधता की लड़ाई अभी शुरू ही हुई है। यह ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें भारत बहुत सक्रिय रहा हो, लेकिन अब उसे इसका एहसास हो गया है।
मौजूदा दौर में धारणाओं के युद्ध का भी बड़ा महत्व है और वास्तविक युद्ध में जीत के साथ ही कूटनीतिक स्पष्टता और नैरेटिव का प्रभुत्व भी जरूरी हो गया है। इसी के चलते सरकार ने फैसला किया कि एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भारत की स्थिति को समझाने के लिए दुनिया की प्रमुख राजधानियों और थिंक टैंकों की यात्रा करेगा। यह न केवल बेहतरीन कूटनीति, बल्कि अच्छी शासन-कला भी है।
यह 1994 की याद दिलाता है, जब तत्कालीन अमेरिकी सहायक विदेश मंत्री रॉबिन राफेल ने भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दबाव में डाल दिया था। तब 22 फरवरी 1994 को भारत की संसद में जम्मू-कश्मीर पर एक सर्वदलीय प्रस्ताव ने सशक्त संदेश दिया था।
अटल बिहारी वाजपेयी, फारूख अब्दुल्ला और सलमान खुर्शीद को जिनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत का पक्ष रखने के लिए भेजने के निर्णय से भी जम्मू-कश्मीर और मानवाधिकारों पर भारतीय नैरेटिव को काफी मजबूती मिली थी।
संघर्ष के बाद का दौर ही अकसर वह बिंदु होता है, जिसके आधार पर दीर्घकालिक परिणाम आकार लेते हैं। संघर्ष-समाप्ति एक प्रक्रिया है, न कि अंतिम बिंदु। यकीनन, यह महत्वपूर्ण होता है कि सैन्य-विजय किसने प्राप्त की, लेकिन यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि दुनिया को अपने उद्देश्यों के बारे में समझाने में कौन अधिक सफल रहा।
लंबे समय से पाकिस्तान नैरेटिव युद्ध का लाभ उठाता आ रहा है। वह खुद को क्षेत्रीय अस्थिरता का शिकार बताता है और आतंकवाद को पनाह देने की जवाबदेही से बचता है। वैश्विक विमर्श भी कई बार गलत तुलनाओं से ग्रस्त रहता है और ‘दोनों पक्षों से तनाव कम करने’ का आग्रह करता है, जबकि उनमें से एक पक्षयानी हम आतंकवाद के शिकार हैं।
इस संदर्भ में, भारत द्वारा अपने इरादों को स्पष्ट करने का निर्णय सामयिक और आवश्यक है। हमारा नैरेटिव वैश्विक धारणाओं को प्रबंधित करने के बजाय उसका नेतृत्व करने का होना चाहिए और यह प्रबुद्ध, ऊर्जावान प्रतिनिधियों के द्वारा ही किया जा सकता है।
भारत को सुनिश्चित करना होगा कि उसकी सुरक्षा चिंताओं को न तो गलत समझा जाए और न ही अनदेखा किया जाए। अंतरराष्ट्रीय समुदाय पहले ही यूक्रेन और गाजा की हिंसा से काफी थक चुका है, ऐसे में मौजूदा संघर्ष और उसमें भारत के रुख की वैधता पर ध्यान केंद्रित करना महत्वपूर्ण है।
रणनीतिक सम्प्रेषण में सर्वदलीय एकता का प्रदर्शन तो और आश्वस्त करने वाला है। यह विदेशी सरकारों और रणनीतिक समुदायों को संकेत देता है कि यह कोई पक्षपातपूर्ण अभियान या राजनीतिक स्टंट नहीं है। बल्कि, यह एक गहन विचार-विमर्श वाला राष्ट्रीय प्रयास है, जिसे समूचे राजनीतिक स्पेक्ट्रम का समर्थन प्राप्त है- सत्ताधारी पार्टी से लेकर विपक्ष तक, और राष्ट्रीय दलों से लेकर प्रमुख क्षेत्रीय ताकतों तक।
इसके अलावा, विभिन्न वैचारिक और क्षेत्रीय पृष्ठभूमियों के स्वरों को सम्मिलित करने से यह सुनिश्चित होता है कि प्रतिनिधिमंडल को भारतीय लोगों के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है, न कि केवल भारतीय राज्यसत्ता के।
वॉशिंगटन, लंदन, ब्रसेल्स, पेरिस, बर्लिन, टोक्यो, अबू धाबी, रियाद, कैनबरा और मॉस्को का चयन भी भारत की सूक्ष्म कूटनीतिक पहुंच को दर्शाता है। ये केवल मित्रवत राजधानियां ही नहीं, ये वैश्विक प्रभाव के केंद्र भी हैं।
ब्रुकिंग्स, चैथम हाउस, कार्नेगी एंडोमेंट और सीएसआईएस जैसे अग्रणी थिंक टैंकों में भारत की उपस्थिति भी दीर्घकालिक विदेश नीति को आकार देगी। भारत को स्पष्ट रूप से कहना चाहिए कि ऑपरेशन सिंदूर विजय के लिए लड़ा गया युद्ध नहीं था, बल्कि गंभीर उकसावे के जवाब में एक सुनियोजित सैन्य कार्रवाई थी।
मौजूदा दौर में धारणाओं के युद्ध का भी बड़ा महत्व है और वास्तविक युद्ध में जीत के साथ ही कूटनीतिक स्पष्टता और नैरेटिव का प्रभुत्व भी जरूरी है। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल एक बेहतरीन कूटनीति और अच्छी शासन-कला है।
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