मेघना पंत का कॉलम: हिंसक हो रही स्त्रियां समाज का कौन-सा सच बताती हैं?

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मेघना पंत का कॉलम:  हिंसक हो रही स्त्रियां समाज का कौन-सा सच बताती हैं?
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मेघना पंत का कॉलम: हिंसक हो रही स्त्रियां समाज का कौन-सा सच बताती हैं?

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  • Meghna Pant’s Column What Truth Do Women Who Are Becoming Violent Reveal About Society?

5 घंटे पहले

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मेघना पंत, पुरस्कृत लेखिका, पत्रकार और वक्ता

एक व्यक्ति अपने बेडरूम में मृत पड़ा है। मारने से पहले उसे किसी भारी वस्तु से निर्ममता से पीटा गया है, या उसका गला घोंटा गया है या उसे जहर दे दिया गया है। कठघरे में उसके घर में चोरी करने घुसा कोई अपराधी या शत्रु नहीं, बल्कि उसकी पत्नी खड़ी है। कभी-कभी, पत्नी का प्रेमी भी उसके बगल में बैठा होता है।

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ये सुर्खियां इतनी भयावह हैं कि उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता : पत्नियां- जो प्रेमी के बहकावे में आकर या उसको बहकाकर अपने पति की साजिश रच देती हैं। इन कहानियों में विश्वासघात, सेक्स और हत्या के तमाम सनसनीखेज ब्योरे शामिल होते हैं। लेकिन क्या ये कहानियां समाज के हाशिए में अलग-थलग घटित होने वाली दुर्घटनाएं हैं, या वे एक गहरे सामाजिक पतन का संकेत दे रही हैं?

क्या हम कुछ एक्स्ट्रीम मामलों को चुन-चुन कर उन्हें महिलाओं को बदनाम करने वाली कहानियों में बदल रहे हैं और उनसे अधिक व्यापक सच्चाइयों को सुविधाजनक रूप से नजरअंदाज कर रहे हैं? या सच में ही हम ऐसी महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी होते देख रहे हैं, जो अपने ही घरों में हिंसक अपराधी बन रही हैं?

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जबकि ये वही महिलाएं हैं, जिन्हें परम्परागत रूप से परिवार का पालन-पोषण करने वाली माना जाता रहा है। और क्या कुछ पुरुषों के पीड़ित होने के बावजूद आज भी महिलाओं के ही विक्टिम होने की सम्भावना अधिक है?

उन्माद से भरी इन कहानियों के नीचे कहीं अधिक जटिल, और परेशान करने वाली वास्तविकताएं छिपी हैं। हमें इस बात को लेकर कोई दु​विधा नहीं होनी चाहिए कि आज भी भारत और दुनिया में घरेलू हिंसा की अधिकांश घटनाएं पुरुषों द्वारा महिलाओं पर की जाती हैं।

महिलाओं को उनके पार्टनर द्वारा पीटे जाने, उनका उत्पीड़न करने, और यहां तक कि उनकी हत्या करने की सम्भावनाएं भी महिलाओं द्वारा अपने पुरुष-पार्टनर के साथ ऐसा करने की तुलना में अधिक हैं। इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। जो बदला है वह वो सांस्कृतिक असुविधा है, जो पुरुष के विक्टिम और महिला के अपराधी होने पर उत्पन्न होती है।

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प्रेमियों के लिए अपने पतियों की हत्या करने वाली महिलाओं के कुछ हाई-प्रोफाइल मामले चौंकाने वाले हैं, क्योंकि वे उस सामाजिक नैरेटिव को चुनौती देते हैं, जिसे हम लंबे समय से स्वीकार करते आ रहे हैं। यह कि महिलाएं- विशेष रूप से पत्नियां- हिंसा की घटनाओं में निष्क्रिय सहभागिता करती हैं, उन्हें खुद बढ़ावा नहीं देतीं। जब यह बात उलट जाती है, तो वे हमें बेचैन करने लगती हैं।

और इसके बावजूद, हमें इन घटनाओं को सभी विवाहों या सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली के रूप में देखने की इच्छा का विरोध करना चाहिए। हां, ऐसी घटनाएं सच में ही घटित हो रही हैं- सभी राज्यों और सामाजिक वर्गों में- जहां महिलाओं ने या तो जुनून या हताशा या लालच के कारण अपने पतियों की हत्या करने के लिए अपने प्रेमियों के साथ मिलकर साजिश रची हैं। ये मनगढ़ंत नहीं हैं। ये भयानक, आपराधिक कृत्य हैं।

लेकिन साथ ही ये घटनाएं अभी अपवादस्वरूप ही हैं, सांख्यिकीय रूप से दुर्लभ हैं। जो बात खतरनाक है, वो है इन घटनाओं को महिलाओं की नैतिकता के व्यापक क्षरण की तरह से पेश किया जाना। यह सीधे तौर पर इस पितृसत्तात्मक डर को बढ़ावा देता है कि अगर महिलाओं को बहुत अधिक स्वतंत्रता दी जाए तो वे अनियंत्रित हो जाएंगी। इस तरह की प्रतिक्रियाएं न तो पुरुषों और न ही महिलाओं के लिए मददगार हैं।

बल्कि इससे वह वास्तविक-विमर्श धुंधला हो जाता है, जिस पर हमें बात करनी चाहिए : वह है जेंडर के परे भारतीय घरों में हिंसा का बढ़ता सामान्यीकरण। विवाह, जिसे कभी दो लोगों की शरणस्थली माना जाता था, वह अब सत्ता-संघर्ष, अविश्वास और कभी-कभी खून-खराबे का भी स्थल बन रहा है।

इन घटनाओं का इस्तेमाल महिलाओं को बदनाम करने या विक्टिमहुड की रस्साकशी करने में करने के बजाय हमें इस सच्चाई को स्वीकारना चाहिए कि हिंसा अब जेंडर-न्यूट्रल होती जा रही है। जब महिलाएं हिंसक होती हैं तो उनके प्रति भी न्याय को निष्पक्ष और त्वरित ही होना चाहिए। लेकिन जेंडर के परे अगर हम समस्या की जड़ को देखना शुरू करेंगे, तभी हमें वे उत्तर मिलेंगे जिनकी हम वास्तव में तलाश कर रहे हैं।

जब महिलाएं हिंसक होती हैं तो उनके प्रति भी न्याय को निष्पक्ष और त्वरित ही होना चाहिए। लेकिन जेंडर के परे अगर हम समस्या की जड़ को देखना शुरू करेंगे, तभी हमें वे उत्तर मिलेंगे जिनकी हम वास्तव में तलाश कर रहे हैं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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