मेघना पंत का कॉलम: इंफ्लुएंसर-संस्कृति अपने क्रिएटर्स को निगलती जा रही है h3>
10 घंटे पहले
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मेघना पंत, पुरस्कृत लेखिका, पत्रकार-वक्ता
हम स्क्रॉल करते हैं, लाइक करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन कभी-कभी एल्गोरिदम हमें कुछ ऐसा दिखा देता है, जो हमें रोक देता है- जैसे कि मीशा अग्रवाल की आत्महत्या की खबर, या बाबिल खान का इंस्टाग्राम पर लाइव आकर विलाप करना। और बस, इंफ्लुएंसर-जीवन का चमकदार आवरण उतर जाता है, पता चल जाता है कि यह क्या है : एक सुनहरा पिंजरा।
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मीशा अग्रवाल वो सब थीं, जिसका इंफ्लुएंसर- इकोनॉमी जश्न मनाती है- युवा, स्टाइलिश, बड़ी फॉलोइंग और उनके नाम से जुड़ा एक फैशन-लेबल। उनका कंटेंट अच्छा था, उनकी पोस्ट के कैप्शंस क्यूरेटेड होते थे और उनका पहनावा उनकी आकांक्षाओं को प्रदर्शित करता था। और इस सबके बावजूद, उसके पीछे एक महिला एक ऐसे अंधेरे से जूझ रही थी, जिसे हम देखने में नाकाम रहे थे- या जिसे हमने देखना नहीं चाहा। भला कौन डिप्रेशन पर डबल-टैप करना चाहेगा?
फिर आए बाबिल खान, जो इरफान के बेटे हैं, एक सेलेब्रिटी-विरासत के अनिच्छुक उत्तराधिकारी हैं। वे लाइवस्ट्रीम पर रो पड़े। जरूरत से ज्यादा निगरानी के दबाव से टूट गए। हर समय ‘ऑन’ रहने का दबाव, एक क्लिकेबल-हेडलाइन तक सीमित हो जाने की मायूसी।
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उन्होंने कहा, “मुझे अब बिलकुल नहीं पता कि मैं कौन हूं।’ और वे भला कैसे जान सकते थे? एक ऐसी दुनिया में, जहां लाइक्स से ही पहचान को मान्यता मिलती है और ऑनलाइन चुप्पी को विफलता के रूप में देखा जाता है, वहां अपने जैसा होने का हाशिया ही कहां है?
दो युवा जिंदगियां। और एक कठोर सत्य : इंफ्लुएंसर- संस्कृति चुपचाप अपने क्रिएटर्स को निगलती जा रही है। लेकिन सच कहें तो यह हम सभी की कहानी है।
हम ऐसी पीढ़ी हैं, जो धारणाओं की बंधक बन चुकी है। आज पहचानें बनाई नहीं जातीं- ब्रांड की जाती हैं। आप अपना जीवन जी नहीं रहे होते, आप इसे लाइव-स्ट्रीम कर रहे होते हैं। और अगर आपकी इंगेजमेंट घटती है तो आपकी कीमत भी कम हो जाती है। चौबीसों घंटे उत्साहित, सुंदर और सफल दिखने का दबाव न केवल थका देने वाला है- यह अमानवीय भी है।
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यह एक परेशान करने वाला एहसास है कि हर चीज के प्रदर्शन के इस युग में, आपकी कीमत इंगेजमेंट-मीट्रिक में मापी जाती है। लाइक्स जीवन-रेखा बन जाते हैं। रील वास्तविकता बन जाती है। और अगर आप लॉग-ऑफ करके स्क्रीन से गायब हो जाते हैं, तो जैसे आपका कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता।
इससे भी बुरी बात यह कि आज हमारी कमजोरियां भी नुमाइश का सामान हो गई हैं। रोएं, लेकिन सौंदर्यपूर्ण तरीके से। सच बोलें, लेकिन ऐसे कि इससे आपको ब्रांड-डील्स का नुकसान हो। शेयर करें, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं- कहीं ऐसा न हो कि ट्रोल आपके पीछे पड़ जाएं।
हालत यह है कि आज हम प्रासंगिक बने रहने के लिए अपनी मानसिक-शांति को दांव पर लगा चुके हैं। आज इन्फ्लुएंसर्स पूंजीवाद की नई फ्रंटलाइन हैं। वे हमें फिल्टर्ड और स्पॉन्सर्ड पोस्ट्स में सपने बेचते हैं। लेकिन हम कभी नहीं पूछते कि जब सपने देखने वाला अपने सपनों के नीचे दब जाता है तो क्या होता है?
मीशा और बाबिल ने एक ऐसे जीवन का क्रूर परिणाम उजागर किया है, जो हमेशा डिस्प्ले पर होता है। जहां आपकी चुप्पी संदिग्ध समझी जाती है। जहां आपकी ईमानदारी आप पर एक बोझ है और आपकी थकावट आपके ब्रांड के लिए एक जोखिम।
इन्फ्लुएंसर-अर्थव्यवस्था भ्रमों पर चलती है। इसमें आपको हमेशा एल्गोरिदम-फ्रेंडली होना पड़ता है। हमने एक ऐसी मशीन बनाई है, जहां क्रिएटर्स से सबकुछ होने की उम्मीद की जाती है। यह थकाऊ है। अमानवीय भी।
तो हम यहां से कहां जाएं? अव्वल तो हम यह याद कर सकते हैं कि कोई भी तस्वीर पूरी कहानी नहीं बताती। कोई भी संख्या मूल्यों को नहीं माप सकती। हर हाईलाइट रील के पीछे एक इंसान होता है, जिसमें सबकी तरह डर, खामियां और भावनाएं होती हैं। समय आ गया है कि सुनना शुरू करें, सिर्फ लाइक करना नहीं। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे, तो हम अगली मीशा को भी स्क्रॉल करके छोड़ देंगे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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मेघना पंत, पुरस्कृत लेखिका, पत्रकार-वक्ता
हम स्क्रॉल करते हैं, लाइक करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन कभी-कभी एल्गोरिदम हमें कुछ ऐसा दिखा देता है, जो हमें रोक देता है- जैसे कि मीशा अग्रवाल की आत्महत्या की खबर, या बाबिल खान का इंस्टाग्राम पर लाइव आकर विलाप करना। और बस, इंफ्लुएंसर-जीवन का चमकदार आवरण उतर जाता है, पता चल जाता है कि यह क्या है : एक सुनहरा पिंजरा।
मीशा अग्रवाल वो सब थीं, जिसका इंफ्लुएंसर- इकोनॉमी जश्न मनाती है- युवा, स्टाइलिश, बड़ी फॉलोइंग और उनके नाम से जुड़ा एक फैशन-लेबल। उनका कंटेंट अच्छा था, उनकी पोस्ट के कैप्शंस क्यूरेटेड होते थे और उनका पहनावा उनकी आकांक्षाओं को प्रदर्शित करता था। और इस सबके बावजूद, उसके पीछे एक महिला एक ऐसे अंधेरे से जूझ रही थी, जिसे हम देखने में नाकाम रहे थे- या जिसे हमने देखना नहीं चाहा। भला कौन डिप्रेशन पर डबल-टैप करना चाहेगा?
फिर आए बाबिल खान, जो इरफान के बेटे हैं, एक सेलेब्रिटी-विरासत के अनिच्छुक उत्तराधिकारी हैं। वे लाइवस्ट्रीम पर रो पड़े। जरूरत से ज्यादा निगरानी के दबाव से टूट गए। हर समय ‘ऑन’ रहने का दबाव, एक क्लिकेबल-हेडलाइन तक सीमित हो जाने की मायूसी।
उन्होंने कहा, “मुझे अब बिलकुल नहीं पता कि मैं कौन हूं।’ और वे भला कैसे जान सकते थे? एक ऐसी दुनिया में, जहां लाइक्स से ही पहचान को मान्यता मिलती है और ऑनलाइन चुप्पी को विफलता के रूप में देखा जाता है, वहां अपने जैसा होने का हाशिया ही कहां है?
दो युवा जिंदगियां। और एक कठोर सत्य : इंफ्लुएंसर- संस्कृति चुपचाप अपने क्रिएटर्स को निगलती जा रही है। लेकिन सच कहें तो यह हम सभी की कहानी है।
हम ऐसी पीढ़ी हैं, जो धारणाओं की बंधक बन चुकी है। आज पहचानें बनाई नहीं जातीं- ब्रांड की जाती हैं। आप अपना जीवन जी नहीं रहे होते, आप इसे लाइव-स्ट्रीम कर रहे होते हैं। और अगर आपकी इंगेजमेंट घटती है तो आपकी कीमत भी कम हो जाती है। चौबीसों घंटे उत्साहित, सुंदर और सफल दिखने का दबाव न केवल थका देने वाला है- यह अमानवीय भी है।
यह एक परेशान करने वाला एहसास है कि हर चीज के प्रदर्शन के इस युग में, आपकी कीमत इंगेजमेंट-मीट्रिक में मापी जाती है। लाइक्स जीवन-रेखा बन जाते हैं। रील वास्तविकता बन जाती है। और अगर आप लॉग-ऑफ करके स्क्रीन से गायब हो जाते हैं, तो जैसे आपका कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता।
इससे भी बुरी बात यह कि आज हमारी कमजोरियां भी नुमाइश का सामान हो गई हैं। रोएं, लेकिन सौंदर्यपूर्ण तरीके से। सच बोलें, लेकिन ऐसे कि इससे आपको ब्रांड-डील्स का नुकसान हो। शेयर करें, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं- कहीं ऐसा न हो कि ट्रोल आपके पीछे पड़ जाएं।
हालत यह है कि आज हम प्रासंगिक बने रहने के लिए अपनी मानसिक-शांति को दांव पर लगा चुके हैं। आज इन्फ्लुएंसर्स पूंजीवाद की नई फ्रंटलाइन हैं। वे हमें फिल्टर्ड और स्पॉन्सर्ड पोस्ट्स में सपने बेचते हैं। लेकिन हम कभी नहीं पूछते कि जब सपने देखने वाला अपने सपनों के नीचे दब जाता है तो क्या होता है?
मीशा और बाबिल ने एक ऐसे जीवन का क्रूर परिणाम उजागर किया है, जो हमेशा डिस्प्ले पर होता है। जहां आपकी चुप्पी संदिग्ध समझी जाती है। जहां आपकी ईमानदारी आप पर एक बोझ है और आपकी थकावट आपके ब्रांड के लिए एक जोखिम।
इन्फ्लुएंसर-अर्थव्यवस्था भ्रमों पर चलती है। इसमें आपको हमेशा एल्गोरिदम-फ्रेंडली होना पड़ता है। हमने एक ऐसी मशीन बनाई है, जहां क्रिएटर्स से सबकुछ होने की उम्मीद की जाती है। यह थकाऊ है। अमानवीय भी।
तो हम यहां से कहां जाएं? अव्वल तो हम यह याद कर सकते हैं कि कोई भी तस्वीर पूरी कहानी नहीं बताती। कोई भी संख्या मूल्यों को नहीं माप सकती। हर हाईलाइट रील के पीछे एक इंसान होता है, जिसमें सबकी तरह डर, खामियां और भावनाएं होती हैं। समय आ गया है कि सुनना शुरू करें, सिर्फ लाइक करना नहीं। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे, तो हम अगली मीशा को भी स्क्रॉल करके छोड़ देंगे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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