मूवी रिव्यू: दिल छू लेती है मासूमियत और वास्तविकता से सजी ‘छेल्लो शो’
आज से तकरीबन एक सौ दस साल पहले वह सिनेमा का तिलिस्म ही था, जिसने भारतीय फिल्मों के जनक कहलाने वाले दादा साहेब फाल्के को ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ की थिएटर स्क्रीनिंग के दौरान अपने मोहपाश में ऐसा जकड़ा कि वह अनगिनत बाधाओं के बावजूद फिल्म बनाने के जुनून में पड़ गए। तब से लेकर अब तक सिनेमा की ताकत और उस जादू को अनगिनत लोगों ने महसूस किया और अपने अंदाज में सिनेमा को नए आयाम दिए। 2010 में भी सिनेमा को लेकर एक अनोखी घटना हुई। गुजरात के चलाला गांव का नौ साल का नन्हा लड़का अपने परिवार के साथ सिंगल थिएटर में जय महाकाली देखने आता है और सिनेमा का मुरीद बन जाता है।
‘छेल्लो शो’ यानी ‘द लास्ट फिल्म शो’ की कहानी
यह कहानी है निर्देशक पैन नलिन (Pan Nalin) की अपनी आपबीती, जिसे उन्होंने पर्दे पर गुजराती फिल्म ‘छेल्लो शो’ के रूप पेश किया। एक लंबे अरसे से फिल्म चर्चा में है अपने ऑस्कर ऑफिशल नॉमिनेशन को लेकर। कई इंटरनेशनल फिल्मोत्सवों में फिल्म को भरपूर प्यार और सराहना मिली है और अब यह सिनेमा हॉल में आम दर्शकों के बीच में है।
कहानी 9 साल के नन्हें समय (भाविन राबरी) की है। उसका पिता दीपेन रावल ऊंची जाति का होने के बावजूद आजीविका चलाने के लिए चाय बेचता है। मगर उसे अपने बेटे से बहुत सी उम्मीदें हैं कि बेटा उनके खानदान का नाम रोशन करेगा। यहां बेटा सिंगल थिएटर में फिल्म देखने के बाद सिनेमा का ऐसा दीवाना हो जाता है कि अब उसे सिर्फ फिल्में देखनी हैं। वह स्कूल से बंक मार कर फिल्में देखने लगता है, मगर फिर पकड़ा जाता है। उसकी इस हरकत पर वह पिता के डंडे भी खाता है, मगर सिनेमा के प्रति उसका प्यार कम नहीं होता। तभी उसकी जिंदगी में आता है सिनेमा हॉल का प्रोजेक्शनिस्ट फजल (भावेश श्रीमाली) समय की भूख अगर अलग-अलग फिल्में देखना है, तो फजल की भूख है अच्छा खाना, जो रिश्वत के रूप में समय उसे मुहैया करवाता है। असल में समय की मां उसे रोज टिफिन में स्वादिष्ट खाना बना कर देती है, जिसे वो फजल को खिलाता है और बदले में फजल उसे नई-नई फिल्में देखने देता है।
‘छेल्लो शो’ का ट्रेलर:
प्रॉजेक्शन रूम में बैठकर देखे हुए सिनेमा के आधार पर समय अपने दोस्तों के साथ मिलकर टूटी साइकिल, परदे, बल्ब, मिरर जैसी कई चीजों का इस्तेमाल कर अपने अंदाज का सिनेमा की ईजाद करता है। अपने बेटे को नाकारा समझने वाला समय का पिता भी उसकी सिनेमाई समझ पर हैरान हो जाता है। मगर समय उस वक्त सदमे में आ जाता है, जब उसे पता चलता है कि मॉडर्न टेक्नोलॉजी के चलते फजल को नौकरी से निकाल दिया गया है। उसके बाद कहानी अपने तमाम टर्न और ट्विस्ट के साथ अपनी मंजिल तक पहुंचती है।
‘छेल्लो शो’ का रिव्यू:
एक अरसे से बॉलीवुड इंडस्ट्री और पैन इंडिया फिल्मों को लेकर बहस चल रही है, मगर गुजराती फिल्म ‘छेल्लो शो’ देखने के बाद अहसास होता है कि हिंदी और साउथ सिनेमा के अलावा हमारे रीजनल सिनेमा में भी कई बेहतरीन फिल्में बनती हैं, यह अलग बात है कि क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली शानदार फिल्में अपनी विशिष्ट भाषा के कारण मास ऑडियंस तक नहीं पहुंच पाती। यह फिल्म भी ऑस्कर में जाने की खबरों के बाद ही चर्चा में आई। निर्देशक के रूप में पैन नलिन ने फिल्म को हद दरजे तक वास्तविकता के करीब रखने के लिए पुरानी सेल्युलाइड हिंदी फिल्में और प्रोजेक्टर चलाने वाले तकनीशियन को रखा है। उन्होंने इस कहानी को मासूम बचपन के साथ जोड़कर उत्कृष्ट बनाया है। फिल्म के कई दृश्यों में कहानी का जो एग्जीक्यूशन कमाल का है, जैसे दोस्तों की मदद से रील चुराकर खंडहर में फिल्में देखना, प्रॉजेक्टर को गला कर उनके बर्तन बनना और रील्स को गलाकर उसकी चूड़ियां बनाना। निर्देशक द्वारा दो दृश्यों के बीच का जो ट्रांजिशन पीरियड है, वह नरेटिव और किरदार के मानसिक हाल को जोड़ता है। वहीं समय की मां की कुकिंग स्किल को भी निर्देशक ने बड़े मजेदार ढंग से दर्शाया है।
‘छेल्लो शो’ की सिनेमटोग्राफी, एडिटिंग और एक्टिंग
स्वप्निल सोनवणे की सिनेमेटोग्राफी, श्रेयस बेलतंग्दय और प्रवीण भट्ट की एडिटिंग ठीक है। सायरिल मॉरीन का संगीत औसत है, लेकिन फिल्म के विजुअल इफेक्ट और बैकग्राउंड म्यूजिक दमदार है। प्री क्लाइमेक्स और क्लाइमेक्स पूरी तरह से जज्बाती कर देता है और समय ही नहीं बल्कि दर्शक को भी एक उम्मीद दे जाता है। भाविन का अभिनय हर तरह से दिल को छू लेता है। लगता नहीं कि वह अभिनय कर रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता होता है, जैसे वह ही किरदार हैं। फजल का किरदार मार्मिक होने के साथ-साथ वास्तविक भी है, जिसे उन्होंने पूरी सचाई से निभाया है। भाविन की दोस्त विकास बाटा, राहुल कोली, सोबान माकवा, किशन परमार, विजय मेर भी ठीक उसी की ही तरह अल्हड़ और मासूम हैं। ऊंची जाति के चाय बेचने वाले पिता की भूमिका को दीपेन रावल ने बखूबी निभाया है। मां के रूप में रिचा मीना सहज और स्वाभाविक लगी हैं।
क्यों देखें ‘छेल्लो शो’
ऑस्कर के ऑफिशियल नॉमिनेशन के लिए चुनी गई इस फिल्म की मासूमियत और अलहदा तकनीक के लिए इसे देखा जा सकता है।
‘छेल्लो शो’ यानी ‘द लास्ट फिल्म शो’ की कहानी
कहानी 9 साल के नन्हें समय (भाविन राबरी) की है। उसका पिता दीपेन रावल ऊंची जाति का होने के बावजूद आजीविका चलाने के लिए चाय बेचता है। मगर उसे अपने बेटे से बहुत सी उम्मीदें हैं कि बेटा उनके खानदान का नाम रोशन करेगा। यहां बेटा सिंगल थिएटर में फिल्म देखने के बाद सिनेमा का ऐसा दीवाना हो जाता है कि अब उसे सिर्फ फिल्में देखनी हैं। वह स्कूल से बंक मार कर फिल्में देखने लगता है, मगर फिर पकड़ा जाता है। उसकी इस हरकत पर वह पिता के डंडे भी खाता है, मगर सिनेमा के प्रति उसका प्यार कम नहीं होता। तभी उसकी जिंदगी में आता है सिनेमा हॉल का प्रोजेक्शनिस्ट फजल (भावेश श्रीमाली) समय की भूख अगर अलग-अलग फिल्में देखना है, तो फजल की भूख है अच्छा खाना, जो रिश्वत के रूप में समय उसे मुहैया करवाता है। असल में समय की मां उसे रोज टिफिन में स्वादिष्ट खाना बना कर देती है, जिसे वो फजल को खिलाता है और बदले में फजल उसे नई-नई फिल्में देखने देता है।
‘छेल्लो शो’ का ट्रेलर:
प्रॉजेक्शन रूम में बैठकर देखे हुए सिनेमा के आधार पर समय अपने दोस्तों के साथ मिलकर टूटी साइकिल, परदे, बल्ब, मिरर जैसी कई चीजों का इस्तेमाल कर अपने अंदाज का सिनेमा की ईजाद करता है। अपने बेटे को नाकारा समझने वाला समय का पिता भी उसकी सिनेमाई समझ पर हैरान हो जाता है। मगर समय उस वक्त सदमे में आ जाता है, जब उसे पता चलता है कि मॉडर्न टेक्नोलॉजी के चलते फजल को नौकरी से निकाल दिया गया है। उसके बाद कहानी अपने तमाम टर्न और ट्विस्ट के साथ अपनी मंजिल तक पहुंचती है।
‘छेल्लो शो’ का रिव्यू:
एक अरसे से बॉलीवुड इंडस्ट्री और पैन इंडिया फिल्मों को लेकर बहस चल रही है, मगर गुजराती फिल्म ‘छेल्लो शो’ देखने के बाद अहसास होता है कि हिंदी और साउथ सिनेमा के अलावा हमारे रीजनल सिनेमा में भी कई बेहतरीन फिल्में बनती हैं, यह अलग बात है कि क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली शानदार फिल्में अपनी विशिष्ट भाषा के कारण मास ऑडियंस तक नहीं पहुंच पाती। यह फिल्म भी ऑस्कर में जाने की खबरों के बाद ही चर्चा में आई। निर्देशक के रूप में पैन नलिन ने फिल्म को हद दरजे तक वास्तविकता के करीब रखने के लिए पुरानी सेल्युलाइड हिंदी फिल्में और प्रोजेक्टर चलाने वाले तकनीशियन को रखा है। उन्होंने इस कहानी को मासूम बचपन के साथ जोड़कर उत्कृष्ट बनाया है। फिल्म के कई दृश्यों में कहानी का जो एग्जीक्यूशन कमाल का है, जैसे दोस्तों की मदद से रील चुराकर खंडहर में फिल्में देखना, प्रॉजेक्टर को गला कर उनके बर्तन बनना और रील्स को गलाकर उसकी चूड़ियां बनाना। निर्देशक द्वारा दो दृश्यों के बीच का जो ट्रांजिशन पीरियड है, वह नरेटिव और किरदार के मानसिक हाल को जोड़ता है। वहीं समय की मां की कुकिंग स्किल को भी निर्देशक ने बड़े मजेदार ढंग से दर्शाया है।
‘छेल्लो शो’ की सिनेमटोग्राफी, एडिटिंग और एक्टिंग
स्वप्निल सोनवणे की सिनेमेटोग्राफी, श्रेयस बेलतंग्दय और प्रवीण भट्ट की एडिटिंग ठीक है। सायरिल मॉरीन का संगीत औसत है, लेकिन फिल्म के विजुअल इफेक्ट और बैकग्राउंड म्यूजिक दमदार है। प्री क्लाइमेक्स और क्लाइमेक्स पूरी तरह से जज्बाती कर देता है और समय ही नहीं बल्कि दर्शक को भी एक उम्मीद दे जाता है। भाविन का अभिनय हर तरह से दिल को छू लेता है। लगता नहीं कि वह अभिनय कर रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता होता है, जैसे वह ही किरदार हैं। फजल का किरदार मार्मिक होने के साथ-साथ वास्तविक भी है, जिसे उन्होंने पूरी सचाई से निभाया है। भाविन की दोस्त विकास बाटा, राहुल कोली, सोबान माकवा, किशन परमार, विजय मेर भी ठीक उसी की ही तरह अल्हड़ और मासूम हैं। ऊंची जाति के चाय बेचने वाले पिता की भूमिका को दीपेन रावल ने बखूबी निभाया है। मां के रूप में रिचा मीना सहज और स्वाभाविक लगी हैं।
क्यों देखें ‘छेल्लो शो’
ऑस्कर के ऑफिशियल नॉमिनेशन के लिए चुनी गई इस फिल्म की मासूमियत और अलहदा तकनीक के लिए इसे देखा जा सकता है।