मुझे जंगल प्रिय हैं, जंगल से निकली कहानियां भी: मनीषा कुलश्रेष्ठ | I love forests, also stories from forests: Manisha Kulshrestha | News 4 Social

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मुझे जंगल प्रिय हैं, जंगल से निकली कहानियां भी: मनीषा कुलश्रेष्ठ | I love forests, also stories from forests: Manisha Kulshrestha | News 4 Social

मुझे जंगल प्रिय हैं, जंगल से निकली कहानियां भी: मनीषा कुलश्रेष्ठ | I love forests, also stories from forests: Manisha Kulshrestha | News 4 Social

सवाल- नया कहानी संग्रह खासा चर्चित हो रहा है। ‘वन्या’ की कहानियों में घना जंगल है, यह जंगल क्या लेखक के भीतर भी होता है?

जवाब- ‘वन्या’ में जंगल से ज्यादा मेरा जंगल प्रेम है। बचपन से ही जंगल किड रही हूं। पेरेंट्स का भी ऐसी जगह ट्रांसफर होता रहा, जो जंगलों से घिरे थे। बचपन ही छोटी सादड़ी, प्रतापगढ़, सीतामाता सेंचुरी के आसपास बीता। वहां की कहानियां सुनते—सुनाते जंगलों से आत्मिक रिश्ता बन गया और आदिवासियों से भी। शादी के बाद भी पति की लगातार ऐसी जगह पोस्टिंग हुई, जैसे असम, अरुणचल प्रदेश। ऐसे में आदिवासियों से लगातार लगाव रहा। उनके जीवन को देखना, जीवन मूल्यों को, दर्शनों को समझना होता रहा। मैं प्रकृति प्रेमी हूं तो मुझे जंगल प्रिय हैं, जंगल से निकली कहानियां भी और वहां रहने वाले मनुष्य भी, जिनकी वजह से जंगल बचे हुए हैं। इसी तरह निश्चय ही एक बहुत बड़ा जंगल लेखक के भीतर होता है। जहां बहुत तरह के पात्र, घटनाएं, बहुत से अनाम चेहरे, चरित्र होते हैं। बहुत से दृश्यों का एक धुंधलका होता है। रहस्य होता है। उनमें से निकलकर जो कोलाज बनता है, मैं कहूंगी कि वो जो कोलाज है, वही कहानियां होते हैं।

सवाल- युवा कथाकारों से आपकी घनिष्ठता आपको अलग बनाती है। साहित्य की पीढ़ियों को जोड़ने में इसे कितना जरूरी मानती हैं?

जवाब- हमेशा मैं युवाओं के बीच में रही हूं। मुझे उनसे एक ऊर्जा मिलती है। मुझे अच्छा लगता है कि मैं उनके कथानकों को, उनके कहन के ढंग को सीखूं। हमारी पीढ़ी साहित्य में आगे जा चुकी है। अब नई पीढ़ी और उसके बाद वाली पीढ़ी में भी, उनके मुंह से उनकी कहानियां सुनना चाहूंगी। उनसे जुड़ना चाहूंगी। साहित्य की पीढ़ियों को जोड़ना जरूरी मानती हूं। क्योंकि मैं आई थी तब मुझे मेरे वरिष्ठों ने हाथों हाथ लिया था। मुझे लगता है कि प्रतिभाओं को पहचानना आना चाहिए। रही बात कि युवा कितना जुड़ना चाहते हैं? तो अगर आपकी आंखें और बांहें खुली रखेंगे, तो युवा आपसे जुड़ना चाहेंगे। पीढ़ियों के बीच जो अंतराल बना रहता है, उसे पीछा छुड़ाना चाहिए।

सवाल- ‘कथाकहन’ क्या किसी कमी को पूरा करने की कोशिश है या सपने की तरह? क्या आपको लगता है कि देश में ऐसे शिविरों की कमी है?

जवाब- कथाकहन एक कमी की तरह था, जब मैं आई थी तो मुझे गाइडेंस देने वाला कोई नहीं था। या कथानक, द्वंद्व, भाषा, कहानी के आरंभ या अंत पर बात करने जैसा कोई नहीं था। लेकिन जब मैं ‘संगमन’ से जुड़ी, वहां जब अनोपचारिक तौर पर कहानी पर बात होती थी, तो एकलव्य की तरह हम सीखा करते थे। मुझे लगा कि क्यों ना माहिर लेखकों को और जो नये लेखक कुछ सीखना चाहते हैं, उन्हें इकट्ठा करके दोनों को आपस में मिलाया जाए। तो कथाकहन इस कमी की ही पूर्ति है। सपना और भी आगे का है। जब कथाकहन से निकले लेखक दुनिया के आकाश पर छा जाए। अज्ञेय के समय में भी ऐसे शिविर होते थे। अब सीधे ऐसे शिविर नहीं होते। असल कमी कॉलेज शिक्षा में है। जहां साहित्य तो पढ़ाया जाता है, लेकिन रचनात्मकता की कोई क्लास नहीं होती। तो लगता है कि राइटिंग स्किल्स भी साहित्य में एक विषय होना चाहिए।

जीवन में वो कौनसा दिन या पल था, जब आपने अपने लिए लेखक होने को चुन लिया?
मैंने भारत के सबसे रूमानी और खूंरेज़ इतिहास के पन्नों पर दर्ज़ शहर चित्तौड़गढ़ में अपनी कलम – पट्टी पकड़ी थी। मीरां के गीत जहां अनपढ़ स्त्रियां सहज ही गाती हों। यह मेरा अखंड विश्वास है कि इतिहास के खंडहरों के साये में जो लोग जन्म लेते हैं, उनकी रग़ों में अजीब किस्म की रूमानियत रिस आती है। वह छतों पर सोने का आपसी भरोसे वाला समय था। सफेद चादरों वाले ठंडे बिस्तरों पर अंताक्षरी खेली जाती, कहानियां सुनी और सुनाई जाती। बस यहीं से गहरा लगाव हुआ कहानी के कहानीपन से। यों लगता है कहानियां तो हमेशा से मुझमें रही, फिर मैंने कहना सीख लिया। कश्मीर हो या असम, मैं कहीं भी रहूं, राजस्थान मेरी रगों में बहता रहा है। मेरी कहानियों में वह लौट–लौट कर आता है… कभी समूचा तो कभी कोलाज बनकर।

सवाल-आपने कई विदेश यात्राएं भी की हैं, साहित्यिक यात्राएं भी। क्या भारतीय लेखन विदेशों में पसंद किया जा रहा है?
जवाब— भारतीयता के प्रति ललक तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है, लेकिन हम अपने लेखन में भारतीयता को उसके मूल रूप से कितना ला पा रहे हैं? अगर लेखन मौलिक है और अंतर्राष्ट्रीय अपील का है तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पसंद किया जाता है। लेकिन हिंदी लेखन वहां तक पहुंचे उसमें अनुवादों की कमी बहुत बड़ी समस्या है। लेकिन वहां रह रहे पाकिस्तानी हिंदी-उर्दू साहित्य में खूब रुचि लेते हैं। इंग्लैंड में लेखक होना एक बहुत सम्मान का विषय है, स्कॉटलैंड में मैंने राईटर्स म्यूज़ियम देखा। यॉर्कशायर में एमिली ब्रोंटे का घर, स्ट्रेटफोर्ड में शेक्सपियर का घर और बाथ में जेन ऑस्टेन का घर देखा जहां उनके सामान सहेजे रखे थे। और भारत में लेखक मानो सबसे अंतिम प्रतिनिधि हो समाज का, कोई तवज्जोह ही नहीं। प्रेमचंद जी का घर, निर्मल जी के घर उपेक्षित पड़े हैं। लंदन में शेक्सपियर, चार्ल्स डिकेन्स के पुराने पब तक सहेज कर रखे हैं। वहां जाकर एक सुकून मिला कि लेखक होना उल्लेखनीय तो है।

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