ब्लैकबोर्ड-PM ने सराहा लेकिन कश्मीरी कहते हैं-तुमसे बदबू आ रही: डल झील वालों के लिए ना कोई पॉलिसी ना बजट, अफसर फाइलें फेंक देते हैं

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ब्लैकबोर्ड-PM ने सराहा लेकिन कश्मीरी कहते हैं-तुमसे बदबू आ रही:  डल झील वालों के लिए ना कोई पॉलिसी ना बजट, अफसर फाइलें फेंक देते हैं
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ब्लैकबोर्ड-PM ने सराहा लेकिन कश्मीरी कहते हैं-तुमसे बदबू आ रही: डल झील वालों के लिए ना कोई पॉलिसी ना बजट, अफसर फाइलें फेंक देते हैं

डल झील सिर्फ झील नहीं, रूह की तसल्ली है। शांत जल में पहाड़ों के अक्स, हवाओं में घुली कश्मीर की वादियां, हाउसबोट पर सुबह की चाय और शिकारे की शाम में प्यार के रंग। इसकी हर लहर जैसे कोई गीत गा रही हो…

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कश्मीर आने वाले हर शख्स की ख्वाहिश होती है डल झील, लेकिन अजीब विडंबना है कि इस झील में रहने वालों को अछूत माना जाता है। समाज के साथ-साथ सरकारी फाइलों में भी। स्कूलों में, बाजारों में छोटे-छोटे बच्चों से भी कोई छू जाए, तो यह कहते हुए हाथ झटक देता है कि- ‘दूर हटो, तुमसे बदबू आ रही।’

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ये हांजी कम्युनिटी के लोग हैं। इनकी रोजी-रोटी, ठिकाना सबकुछ डल झील ही है। आज ब्लैकबोर्ड में कहानी इसी हांजी कम्युनिटी की…

डल लेक में खड़ी शिकारा। यहां आने वाले टूरिस्टों के लिए शिकारा पहली पसंद होती है।

22 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली डल झील में कई टापू हैं। इन टापुओं पर रिहाइशी कॉलोनियां हैं, जिन पर पक्के घर बने हुए हैं। यहां रहने वालों की रोजी-रोटी शिकारा से ही चलती है। इनकी संख्या हजारों में है।

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लोकल लैंग्वेज में इन्हें हांजी कहा जाता है। हांजी फारसी शब्द है, जिसका इस्तेमाल नाव या पानी से जुड़े लोगों के लिए किया जाता है।

13 साल की जन्नत परिवार के साथ डल झील में रहती है। 2018 में डल झील की सफाई करते हुए जन्नत का एक वीडियो वायरल हुआ था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस वीडियो को सोशल मीडिया पर शेयर किया था।

जन्नत कहती हैं- ‘जब मोदी साहब ने वीडियो शेयर किया, तो मुझे लगा हमारे दिन बदलेंगे, सरकार हमारे लिए कुछ करेगी। मशीनों से डल लेक की सफाई होगी, पर अब तक कुछ नहीं हुआ। जब कोई वीआईपी आता है तो सफाई की जाती है, फिर हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया जाता है।’

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13 साल की जन्नत हांजी कम्युनिटी से आती हैं। 2018 में पीएम मोदी ने डल लेक की सफाई करते हुए इनका वीडियो शेयर किया था।

जन्नत मुझे हाउसबोट के अंदर लेकर जाती हैं। दीवार पर लगे सर्टिफिकेट और मेडल्स दिखाते हुए कहती हैं- पूरे हिंदुस्तान ने मुझे पहचाना, मेरे काम की तारीफ की। जून 2020 में मेरी कहानी हैदराबाद के एक स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल की गई। जिसका शीर्षक था ‘जन्नत की जन्नत’, लेकिन मेरे स्कूल ने मेरे काम को नहीं सराहा क्योंकि मैं डल लेक में रहती हूं।’

जन्नत के पास ही उनके पिता तारिक अहमद खड़े हैं। उनके चेहरे पर नाराजगी साफ झलकती है। कहते हैं- ‘कभी डल झील में 1200 हाउस बोट हुआ करते थे। आज इनकी संख्या घटकर 700 हो गई है। कई लोग खाने-कमाने के लिए बाहर चले गए। हमारे लिए तो अब कुछ बचा ही नहीं। डल झील की गंदगी का आरोप भी हम पर ही लगा दिया गया।

हाईकोर्ट में याचिका लगा दी गई है। आज तो हाल ये है कि हाउसबोट का रख-रखाव करना भी मुश्किल हो गया है। रेनोवेशन के लिए भी परमिशन लेनी पड़ती है।’

जन्नत ने अपने हाउसबोट में मेडल सजा रखे हैं। ये मेडल उन्हें देश के अलग-अलग हिस्सों में मिले हैं।

थोड़ा रुककर, गंभीर भाव लिए तारिक कहते हैं, ‘90 के दशक में जब यहां आतंकवाद फैला था, तब लोग कश्मीर आने से कतरा रहे थे। तब मैं दिल्ली में था। वहां की सड़कों पर घूम-घूमकर लोगों से कहता था कि कश्मीर चलिए, बहुत खूबसूरत है। लोगों को मोटिवेट करके हमने यहां के टूरिज्म को जिंदा किया, लेकिन यहां के लोगों ने ही हमें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया।

आज की डेट में जब हमारी कम्युनिटी से कोई बाहर जाता है, तो वो शर्म से ये नहीं कह पाता कि हम हांजी हैं। हमारे लाइसेंस सरकारी दफ्तर में धूल फांक रहे हैं। हमें कागजी कार्रवाई में इतना ज्यादा उलझा दिया गया है कि लाइसेंस रिन्यू करवाना नामुमकिन सा हो गया है। एक हाउसबोट बनाने में आज के समय में 6 करोड़ रुपए खर्च होंगे। जब ये कम पैसे में बनते थे, तब बनाने ही नहीं दिया गया।’

चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए तारिक कहते हैं कि रेसिज्म की वजह से हांजी कम्युनिटी के लोगों से बाहर के लोग शादी नहीं करते। मेरी खुद की भी एक लव स्टोरी थी, मैं एक लड़की से बहुत प्यार करता था, लेकिन वो हांजी नहीं थी। इसलिए फिर सब खत्म हो गया।

तारिक बताते हैं कि अगर हाउसबोट खराब हो जाए तो कागजी कार्रवाई में इतना उलझा दिया जाता है कि उसकी मरम्मत कराना नामुमकिन हो जाता है।

सरकार ने कोई मदद नहीं की?

इस सवाल के जवाब में तारिक कहते हैं, ‘हमारे लिए कोई पॉलिसी ही नहीं है और न ही कोई बजट। हम भी यहीं के वाशिंदे हैं, हम वोट भी करते हैं, लेकिन हमारे साथ सौतेला व्यवहार होता है। अटल बिहारी वाजपेयी ने हम लोगों के लिए 3 लाख रुपए का पैकेज दिया था। उन्हीं की वजह से आज हाउसबोट जिंदा हैं, लेकिन उसके बाद किसी ने ध्यान नहीं दिया।’

60 साल के जिकोगाशी भी हाउसबोट चलाते हैं। वे मुझे देखते ही हाउसबोट की खिड़की से गुनगुनाने लगते हैं- ‘कल चमन था आज वीरान जैसा, देखते देखते ये क्या हो गया’.

आंखों में आंसू लिए जिकोगाशी कहते हैं- ‘कश्मीर में पिछले 35 साल से हालात खराब रहे हैं। हमने हिंदुस्तान के हर कोने में जाकर टूरिस्ट को यहां आने के लिए मोटिवेट किया। बाहर के टूरिस्ट से हम वादा करते थे कि जब तक आप कश्मीर रहोगे, हमारा आदमी आपके साथ रहेगा। आपको डल झील घुमाएगा। सोनमर्ग, पहलगाम, गुलमर्ग हर जगह घुमाएगा। इस भरोसे पर बाहर के लोग यहां आने लगे। ऐसे करके हमने कश्मीर की टूरिज्म इंडस्ट्री को जिंदा रखा।

डल झील के हाउसबोट कश्मीर की शान हैं, लेकिन हम लोग सरकार की किसी भी पॉलिसी में नहीं हैं। हमें बर्फ से नुकसान होता है, तो खुद देखना पड़ेगा। तूफान, फ्लड किसी भी चीज से नुकसान होने पर खुद ही संभालना है। 2020 में तूफान की वजह से मेरी बोट नष्ट हो गई। सारा सामान आंधी में उड़ गया। मैंने अपनी तरफ से सरकार के हर दरवाजे खटखटाए, पर हर जगह से हमें यह कहकर वापस लौटा दिया गया कि आपके लिए कोई पॉलिसी नहीं है।’

जिकोगाशी कहते हैं- ‘हमने देशभर में घूमकर कश्मीर में टूरिज्म बहाल किया, लेकिन हमें ही किनारे कर दिया गया।’

वो कहते हैं- ‘मेरा हाउसबोट खराब हो गया था। मैं उसकी मरम्मत की परमिशन के लिए LWDA (लेक वाटरवेज डेवलपमेंट अथॉरिटी) गया। वहां अफसर को जैसे ही पता चला कि मैं हांजी हूं, उसने मेरी फाइल किनारे रख दी। बोला- दो-तीन दिन बाद आना। तीन दिन बाद मैं फिर से अफसर के पास गया, तो उसने कहा कि उसे कोई फाइल ही नहीं मिली है।

फिर मुझे किसी ने बताया कि हांजी की फाइलें डस्टबिन में फेंक दी जाती हैं। बड़े अफसर लिख कर भी देते हैं, तो क्लर्क फाइल रोक देता है। पता नहीं हांजी लोगों के साथ क्या दुश्मनी है।’

आंखों में गुस्सा भरकर जिकोगाशी कहते हैं- ‘जब तक मेरी सांसें चल रही हैं, मैं अपने हक के लिए लड़ूंगा। मुझे बस दो टेंट और कंबल दिया गया। किसी ने ये नहीं सोचा कि ये खाएगा क्या, रहेगा कैसे और इसकी कमाई का जरिया भी चला गया तो करेगा क्या। मैंने पिछली ईद भी टेंट में गुजारी है। अगर मेरी बोट में टूरिस्ट रुकने के लिए आएंगे, तो फिर मुझे सड़क पर टेंट लगाकर रहना होगा।

हांजी होना गुनाह नहीं है, हम भी हिंदुस्तानी नागरिक हैं। इलेक्शन में हम लोग भी वोट करते हैं, सरकार की तरफ से भरोसा दिया गया था कि हमें देवदार की लकड़ियां सब्सिडी के साथ दी जाएंगी, लेकिन ऐसा हुआ ही नहीं।’

जिकोगाशी बात करते-करते थोड़ा रुक जाते हैं। कुछ सोचने लगते हैं। टोकने पर कहते हैं- ‘पुराने दिनों में चला गया था। पहले झेलम नदी में भी हाउसबोट हुआ करते थे, जो समय के साथ मेंटेनेंस नहीं होने की वजह से खत्म हो गए।

सरकार की तरफ से कभी कोई मुआवजा नहीं मिला। हाउसबोट बचाने की किसी तरह की कोई पहल नहीं की गई। धीरे-धीरे कई हाउसबोट झेलम की गहराई में समा गए। हम लोगों ने दुनिया को कश्मीरियत बताई, अंग्रेजों को कश्मीर में ट्रैकिंग के बारे में बताया, पर हमें ही अलग कर दिया गया।’

डल लेक में खड़ी हाउसबोट।

जिकोगाशी बताते हैं- ‘मुझे लगता है कि सरकार इस गलतफहमी में है कि हम लोग करोड़पति हैं, लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। हम जो कमाते हैं, उससे बस रोटी मिल जाती है। हम दिन में कमाते हैं और रात को खाते हैं। हम कितना परेशान हैं, इसका किसी को अंदाजा तक नहीं। हमारी जगह कोई और होता तो आत्महत्या कर लेता। हमने तो जैसे-तैसे काट ली, लेकिन बच्चों का सोचकर रोना आता है।

इतना कहते ही जिकोगाशी का चेहरा सुर्ख लाल हो जाता है। आंखों से आंसू बहने लगते हैं। खुद को संभालते हुए कहते हैं- ’50 साल पहले तक श्रीनगर में बस तीन ही होटल थे। तब सारे टूरिस्ट हाउसबोट में ही रुकते थे। कितनी ही फिल्मों की शूटिंग हमने देखी है। शशि कपूर और शम्मी कपूर की फिल्मों की शूटिंग हुई। मैंने पुराने फिल्मस्टार से लेकर नए स्टार को यहां शूटिंग करते देखा है। मैं बस ये कहना चाहता हूं कि हमने विरासत समेटी हुई है। इसे सरकार को ही संभालना पड़ेगा। वरना जल्द ही सारे हाउसबोट खत्म हो जाएंगे।’

चलते-चलते जिकोगाशी गुनगुनाने लगते हैं- ‘हर चेहरा यहां चांद नजर आता है। ये वादी-ए-कश्मीर है। जन्नत का नजारा, जन्नत का नजारा।’

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